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IWOW - Part 3 - The Serpent and the Lotus

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    पश्चिमी सभ्‍यता और लिखित भाषा के प्रारंभ से पूर्व, विज्ञान एवं
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    आध्‍यात्मिकता दो अलग धाराएं नहीं थीं ।
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    महान प्राचीन परंपराओं की शिक्षाओं में ज्ञान तथा
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    निश्चिंतता के लिए बाहरी खोज परिवर्तन के
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    सर्पिल की नश्‍वर एवं अंतर्दर्शी समझ की
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    आंतरिक अनुभूति द्वारा संतुलित थी ।
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    जैसे ही वैज्ञानिक चिंतन अधिक प्रभावी हुआ और सूचना में अत्‍यधिक भरमार हुई,
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    वैसे ही हमारे ज्ञानतंत्र के अंदर विखंडन आरंभ हुआ ।
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    बढ़ती हुई विशेषज्ञता का यह अर्थ हुआ कि कम लोग अनुभूति
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    का विशाल चित्र एवं समग्र रूप में तंत्र की अंतदर्शी एवं
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    सौंदर्य चेतना को देखने के योग्‍य थे ।
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    किसी ने नहीं पूछा कि “क्‍या यह सब सोचना हमारे लिए अच्‍छा है ?“
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    प्राचीन ज्ञान हम लोगों के बीच में है । प्रत्यक्ष दृष्टि से ओझल।
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    परंतु हम अपने पूर्व विचारों से भरे हैं जिसके कारण इसे पहचान नहीं पा रहे हैं।
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    यह विस्‍मृत बुद्धिमत्‍ता ही आंतरिक एवं बाहरी के
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    बीच संतुलन बिठाने का मार्ग है ।
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    यिन एवं यांग ।
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    परिवर्तन के सर्पिल तथा हमारे अभ्‍यांतर में स्थिरता के बीच ।
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    ग्रीक दंतकथा में, अपोलो चिकित्‍सा के देव असलेपियस का पुत्र था।
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    चिकित्‍सा में उसकी बुद्धिमता एवं कुशलता का कोई सानी नहीं था और कहा जाता है कि उसने
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    जीवन एवं मृत्‍यु का रहस्‍य खोजा ।
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    प्राचीन ग्रीस में एसक्‍लेपियन के चिकित्‍सा मंदिरों
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    ने आदिम सर्पिल की शक्ति को मान्‍यता दी ।
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    जिसे एक्‍लेपियस की छड़ द्वारा प्रतीक के रूप में समझा जाता है,
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    औषध के पिता हिप्‍पोक्रेट्स ने,
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    जिसकी शपथ चिकित्‍सा पेशे की आज
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    भी आधार संहिता है, एसीपीयन मंदिर
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    में अपना प्रशिक्षण प्राप्‍त किया ।
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    आज भी हमारी विकासात्‍मक ऊर्जा का यह प्रतीक
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    अमरीकन चिकित्‍सा एसोसिएशन तथा विश्‍वव्‍यापी अन्‍य
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    चिकित्‍सा संगठनों के प्रतीक के रूप में है ।
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    इजिप्‍ट के प्रतिमा विज्ञान में, सर्प एवं पक्षी मानवीय प्रकृति
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    की गुणवत्‍ता तथा ध्रुवत्‍व का प्रतिनिधित्‍व करता है ।
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    सर्प की अधोगामी दिशा, विश्‍व की विकासात्‍मक
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    ऊर्जा का प्रत्यक्ष सर्पिल रूप है ।
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    पक्षी उर्ध्‍वगामी दिशा में है - सूर्य या जागृत एकमात्र के
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    केन्द्रित संचेतनता की ओर उन्‍मुख ऊर्ध्‍वगामी बहाव;
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    आकाश की शून्‍यता ।
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    फारौस तथा ईश्‍वर जागृत ऊर्जा से चित्रित किए
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    जाते हैं जहां कुंडलिनी सांप मेरुदंड की ओर जाती
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    है और नेत्रों के बीच `अज्ञान चक्र` भेदती है ।
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    इसे होरस के नेत्र के रूप में उल्लिखित किया जाता है ।
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    हिन्‍दू परंपरा में बिंदी तीसरे नेत्र का भी प्रतीक है;
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    आत्‍मा से दिव्‍य संबंध ।
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    राजा टुटनखमुन का मुखावरण पुरातन उदाहरण है जिससे सर्प एवं पक्षी,
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    दोनों के मूलभाव का पता चलता है ।
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    मयन और अजटेक परंपराएं सर्प एवं पक्षी के मूलभाव को एक ईश्‍वर में समन्वित करती हैं ।
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    क्‍यूटजलकोट्ल या कुकुल्‍कन ।
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    पर से सुशोभित दैवी सर्प जागृत विकासात्‍मक
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    सचेतनता या जागृत कुंडलिनी का प्रतीक है ।
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    व्‍यक्ति का स्‍वयं में क्‍यूटजलकोट्ल को जागृत कर लेना,
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    दिव्‍यता का जीवंत प्रकटीकरण है ।
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    कहा जाता है कि क्‍यूटजलकोट्ल या सर्पिल ऊर्जा,
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    काल की समाप्ति पर वापस लौटेगी ।
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    सर्प तथा पक्षी के प्रतीक ईसाई धर्म में भी देखे जा सकते हैं ।
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    उनका सच्‍चा अर्थ अधिक गहन में हो सकता है,
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    पर इसका अर्थ अन्‍य प्राचीन परंपराओं के समान ही है ।
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    ईसाई धर्म में, पक्षी या कपोत प्राय: ईसा के सिर पर देखा जा
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    सकता है जो छठे चक्र और उससे आगे बढ़ते
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    समय पवित्र आत्‍मा या कुंडलिनी शक्ति दर्शाता है।
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    ईसाई धर्म के रहस्‍यवादियों ने कुंडलिनी को पवित्र आत्‍मा कह कर अन्य नाम से पुकारा।
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    जान 3:12 में कहा गया है “और जैसे मोसेस ने बीहड़ में सर्प का उत्‍थान
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    किया उसी तरह मनुष्‍य के पुत्र का भी उत्‍थान किया जाए“
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    जीसस तथा मोसेस ने अपनी कुंडलिनी ऊर्जा को जागृत करते हुए अचेतन रेंगने वाली शक्तियों को जागृत
    सचेतनता की ओर उन्‍मुख किया,
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    जिससे मानवीय लालसा संचालित होती है ।
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    कहा जाता है कि यीशू ने निर्जन में चालीस दिन और चालीस रातें बिताईं,
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    इस दौरान उन्‍हें शैतान द्वारा प्रलोभित किया गया ।
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    इसी प्रकार, बुद्ध को `मरा` द्वारा प्रलोभन दिया गया और उन्‍होंने बौद्धिवृक्ष
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    या बुद्धिमत्‍ता वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्‍त किया ।
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    ईसा मसीह और बुद्ध, दोनों प्रलोभन या ऐन्द्रिक
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    आनंद व सांसारिक लोभों से दूर रहे ।
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    प्रत्‍येक कहानी में, दानवी वृत्ति, व्यक्ति के अपने मोह का मानवीकरण ही है ।
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    यदि हम वैदिक और मिस्र की परंपराओं के प्रकाश में आदम और हव्‍वा की कहानी पढ़ते हैं तो हम पाते हैं कि
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    जीवन वृक्ष के लालच और प्रलोभन का प्रतिनिधित्‍व करता है ।
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    आंतरिक संसार के ज्ञान से हमारा ध्‍यान भंग
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    करते हुए ज्ञान का वृक्ष
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    हमारे भीतर है ।
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    अपने अहं के पोषण तथा बाहरी आकर्षणों के फेर में पड़कर हम अपने आंतरिक जगत
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    की जानकारी से कट जाते
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    हैं और आकाश
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    तथा बुद्धिमता स्रोत से
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    हमारा संपर्क टूटने लगता है ।
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    पर वाले सर्पों (ड्रैगन) के बारे में विश्‍व के कई ऐतिहासिक मिथकों को,
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    संस्‍कृतियों की आंतरिक ऊर्जा के रूपकों के रूप में पढ़ा जा सकता है,
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    जिसमें उन्‍हें अंत: स्‍थापित किया गया है।
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    चीन में, पर वाला सर्प अभी भी पवित्र प्रतीक है जो प्रसन्‍नता का प्रतिनिधित्‍व करता है ।
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    मिस्र के फरोहा की भाँति,
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    विकासात्मक ऊर्जा को जागृत करने वाले प्राचीन चीनी शासकों का प्रतिनिधित्व,
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    पंख वाले सर्प या ड्रैगन द्वारा किया गया।
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    जेड शासक या सेलेस्टियल शासक के शाही कुलचिह्न इड़ा
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    और पिंगला के समान संतुलन दर्शाते हैं ।
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    शंकुरूप केन्‍द्र को जागृत करने वाले ताओवादी यिन
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    एवं यांग या जिसे ताओवाद में उच्च डेंटियन कहा जाता है।
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    प्रकृति विभिन्‍न प्रकार के अभिज्ञान और आत्‍म
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    साक्षात्‍करण के प्रकाश से परिपूर्ण है ।
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    उदाहरण के लिए, समुद्र की जलसाही दरअसल अपने नुकीले शरीर से देख सकती है,
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    जो एक बड़े नेत्र के रूप में कार्य करता है।
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    जलसाही अपने रीढ़ पर आघात करने वाले प्रकाश का अभिज्ञान करती है और
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    अपने परिवेश की चेतना अनुभव करने के लिए किरणपुंज की सघनताओं की तुलना करती है ।
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    हरी गोह तथा अन्‍य रेंगनेवालों जीव के सिर के ऊपर
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    भित्‍तीय आंख या शंकुरूप ग्रंथि होती है जिससे
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    वे ऊपर से परभक्षी का पता लगाते हैं।
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    मानव शंकुरूप ग्रंथि एक लघु अंत:स्रावी ग्रंथि होती है जो चलने
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    एवं सोने की क्रियाएं विनियमित करती है ।
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    यद्यपि यह सिर की गहराई में गड़ी होती हैं, तथापि शंकरूप
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    ग्रंथि प्रकाश के प्रति संवेदनशील होती है ।
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    दार्शनिक डिसकार्टस ने माना कि शंकरूप ग्रंथि स्‍थल या तीसरी आंख,
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    चेतनता तथा पदार्थ के बीच अंतरापृष्‍ठ है ।
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    प्राय: प्रत्‍येक वस्‍तु मानव शरीर में समनुरूप है ।
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    दो आंख, दो कान, दो नासिका यहां तक कि मस्तिष्‍क के भी दो पक्ष हैं ।
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    लेकिन मस्तिष्‍क का एक क्षेत्र है जो प्रतिरूप प्रस्‍तुत नहीं करता ।
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    यह शंकरूप ग्रंथि क्षेत्र और उसे चारों ओर से घेरने वाला ऊर्जावान केंद्र है ।
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    शारीरिक स्‍तर पर विशिष्‍ट अणु शंकरूप ग्रंथि द्वारा प्राकृतिक
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    रूप से निर्मित होते हैं जैसे डीएमटी ।
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    डीएमटी जन्‍म के समय और मृत्‍यु के समय
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    प्राकृतिक रूप से निर्मित होते हैं ।
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    शाब्दिक रूप से यह जीवित और मृत संसार के बीच
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    अनन्‍य पुल का कार्य करते हैं ।
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    डीएमटी गहन ध्‍यान की स्थिति और समाधि पर एंथीयोजेनिक उपायों
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    के माध्‍यम से उत्‍पादित होता है ।
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    उदाहरण के लिए, आयुष्‍का दक्षिण अमरीका में शमनिक परंपराओं में प्रयुक्‍त होता है ताकि आंतरिक
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    और बाहरी संसार के बीच के परदे को दूर किया जा सके ।
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    यह पद्धति जीवन पद्धति के पुष्‍प के रूप में अभिज्ञात है,
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    जो जागृत या आत्‍मावलोकित प्राणी को चित्रित करने वाली प्राचीन कला कार्य में सामान्‍य है
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    जब देवदारु फल की छवि पवित्र कला कार्य में दिखाई देती है
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    तो यह जागृत तीसरी आंख, विकासात्‍मक ऊर्जा के प्रवाह को निर्देशित
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    करते हुए एकल बिंदु चेतना का प्रतिनिधित्‍व करती है ।
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    देवदारु का फल उच्‍चतर चक्रों के खिलने का प्रतिनिधित्‍व करता है
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    जो ज्ञान चक्र और उससे आगे बढ़ने के लिए सुषुम्‍ना के रूप में सक्रिय होता है ।
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    ग्रीक पुराण में डॉयोनिसस के उपासकों ने देवदारु
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    फल सहित सर्पिल वल्‍लरी से लपेटकर थायरसस या दैत्‍यों को उठाया था।
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    दोबारा, यह मेरुदंड से शुंकरूप ग्रंथि के छठे चक्र में जाते हुए डायनेसियन
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    ऊर्जा या कुंडलिनी शक्ति का प्रतिनिधित्‍व करती है।
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    वैटिकन के हृदय में आप यीशु या मेरी की वृहत् प्रतिमा की आशा कर सकते हैं,
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    लेकिन इसके स्‍थान पर हम वृहद् देवदारु फल की प्रतिमा पाते
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    हैं जो सूचित करता है कि ईसाई इतिहास में चक्रों
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    तथा कुंडलिनी के बारे में जानकारी थी, लेकिन किन्‍हीं कारणों
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    से उसे जन-समूह से दूर रखा गया।
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    शासकीय चर्च का स्‍पष्‍टीकरण है कि देवरारु का फल पुनरुत्‍पादन का प्रतीक
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    है और ईसा में नए जन्‍म का प्रतिनिधित्‍व करता है।
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    तेरहवीं शताब्‍दी के दार्शनिक व रहस्‍यावादी मीस्‍टर एक्‍खार्ट ने कहा है,
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    “वह नेत्र जिससे मैं ईश्‍वर को देखता हूं और
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    वह नेत्र जिससे ईश्‍वर मुझे देखता है, एक ही है ।“
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    किंग जेम्‍स बाईबल में यीशु ने कहा है “शरीर का प्रकाश नेत्र है ।
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    यदि एक भी नेत्र है तो संपूर्ण शरीर प्रकाश से परिपूर्ण होगा।”
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    बुद्ध ने कहा “शरीर एक नेत्र है ।”
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    समाधि की अवस्‍था में, दृष्टा और देखे जाने वाला दोनों एक हैं ।
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    हम स्‍वयं विश्‍वात्‍मा हैं ।
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    जब कुंडलिनी सक्रिय होती है, यह छठे चक्र को और शंकुरूप केन्‍द्र
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    को उद्दीप्‍त करती है एवं यह क्षेत्र अपने कुछ विकासात्‍मक कार्यों को पुन:
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    प्राप्‍त करना आरंभ कर देता है ।
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    गूढ़ ध्‍यान शंकुरूप ग्रंथि के क्षेत्र में छठे चक्र को सक्रिय करने के लिए
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    हजारों वर्षों से प्रयुक्‍त होता रहा है ।
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    इस केन्‍द्र की सक्रियता से व्‍यक्ति को अपने आंतरिक प्रकाश को देखने की दृष्टि मिलती है ।
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    भले ही लोकप्रसिद्ध योगी हों या गुफ़ा के एकांत में बसे शमन,
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    या ताओवादी हों या तिब्‍बती मठवासी, सभी परंपराएं उस अवधि
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    को समाविष्‍ट करती हैं जिसमें व्‍यक्ति तम में उतरता है ।
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    शंकुरूप ग्रंथि व्‍यक्ति का प्रत्‍यक्ष रूप से सूक्ष्‍म ऊर्जा अनुभव करने का मार्ग है ।
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    दार्शनिक नीत्‍शे ने कहा है “यदि आप रसातल पर काफ़ी देर तक नज़रें गढ़ते हैं,
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    तो अंततोगत्‍वा आप पाते हैं कि अगाध गर्त आपको घूर रहा है।”
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    पुराकालिक स्‍मारक या प्राचीन द्वारा वाले कब्र पृथ्‍वी पर शेष प्राचीनतम ढांचे हैं।
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    अधिकांश ईसा पूर्व 3000-4000 की नवप्रस्‍तर अवधि के और
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    पश्चिमी यूरोप में कुछ सात हजार वर्ष पुराने हैं।
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    पुराकालिक स्‍मारक का प्रयोग मानव द्वारा आंतरिक तथा बाहरी संसार के बीच सेतु निर्माण के एक
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    उपाय के रूप में निरंतर ध्‍यान में प्रवेशार्थ उपयोग किया गया था।
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    चूंकि जब कोई निरंतर अंधकार में ध्यान केंद्रित करना जारी रखता है,
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    तो अंततोगत्‍वा आंतरिक ऊर्जा या प्रकाश को तीसरे नेत्र के सक्रिय होने के रूप में देखने लग जाता है।
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    सूर्य तथा चंद्रमा माध्‍यमों से संचालित जीव चक्रीय लय, शरीर के कार्यों को अधिक
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    समय तक नियमित नहीं कर सकती और नया ताल स्‍थापित हो जाता है।
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    हजारों वर्षों से सातवां चक्र `ओम्` प्रतीक
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    रूप में प्रतिनिधित्‍व करता रहा है।
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    ऐसा प्रतीक जो तत्‍वों को प्रतिनिधित्‍व करने वाले संस्‍कृत चिह्नों से निर्मित हुआ ।
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    जब कुंडलिनी छठे चक्र से आगे उठती है तो ऊर्जा तेजोमंडल (हेलो) का
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    सृजन आरंभ होता है ।
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    तेजोमंडल संसार के विभिन्‍न भागों में विभिन्‍न परंपराओं की
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    धार्मिक चित्रकलाओं में अनवरत दृष्टिगोचर होती है ।
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    जागृत प्राणी के आसपास तेजोमंडल या ऊर्जा
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    का वर्णन विश्‍व के सभी भागों में वास्‍तविक सभी
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    धर्मों में सामान्‍य है ।
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    चक्रों को जागृत करने की विकासात्‍मक प्रक्रिया किसी
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    एक समूह या एक धर्म की संपत्ति नहीं है बल्कि
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    ग्रह पर प्रत्‍येक प्राणी मात्र का जन्‍मजात अधिकार है ।
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    शीर्ष चक्र दिव्‍यता से संबद्ध है,
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    जो द्वैत से आगे है ।
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    नाम और रूप से आगे ।
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    अखेनातेन एक फरोआ था जिसकी पत्‍नी नेफरतिति थी ।
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    उसका उल्‍लेख सूर्य पुत्र के रूप में किया गया है ।
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    उसने एटेन या स्‍वयं में ईश्‍वर के शब्‍द का पुन: अनुसंधान किया,
  • 18:37 - 18:44
    जिससे कुंडलिनी एवं चेतनता को समन्वित किया गया ।
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    इजिप्‍ट आईकोनोग्राफी में, एक बार फि‍र जागृत
  • 18:51 - 18:55
    चेतना का ईश्‍वर या जागृत प्राणी के शीर्षों से ऊपर देखी
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    गई सौर चक्रिका द्वारा प्रतिनिधित्‍व किया जाता है ।
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    हिन्‍दू तथा यौगिक परंपराओं में, इस तेजोमंडल को `सहस्रार` –
  • 19:07 - 19:14
    हजार पंखुड़ी वाला कमल कहा गया है ।
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    बुद्ध को कमल के प्रतीक से संबद्ध किया गया है ।
  • 19:23 - 19:27
    पर्णविन्‍यास वही पद्धति है जिसे खिलते हुए
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    कमल में देखा जा सकता है ।
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    यह जीवन पद्धति का पुष्‍प है ।
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    जीवन का बीज ।
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    यह एक बुनियादी पद्धति है जिसमें सभी रूप अनुकूल हो जाते हैं ।
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    यह अंतरिक्ष का ठीक आकार है या आकाश में अंतनिर्हित गुणवत्‍ता है ।
  • 19:54 - 20:01
    इतिहास में किसी समय जीवन प्रतीक का पुष्‍प संपूर्ण पृथ्‍वी पर व्याप्त था।
  • 20:03 - 20:06
    चीन के अधिकांश पवित्र स्‍थलों और एशिया के अन्‍य
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    204
    00:20:05,567 --> 00:20:12,567
    भागों में शेरों को जीवन-पुष्‍प की रक्षा करते हुए देखा जा सकता है ।
  • 20:17 - 20:22
    1 चिंग का 64 हैक्‍साग्राम प्राय: यिनयांग प्रतीक को घेरे रहता है, जो जीवन पुष्प का
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    प्रतिनिधित्‍व करने का एक और तरीका है ।
  • 20:27 - 20:30
    जीवन पुष्प के भीतर सभी आध्यात्मिक ठोस पदार्थों के लिए ज्‍यामितिक आधार है;
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    अनिवार्य रूप से ऐसा स्वरूप,
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    जिसका अस्तित्‍व हो सकता है ।
  • 20:37 - 20:40
    जीवन का प्राचीन फूल डेविड के सितारे की ज्‍यामिती से आरंभ
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    होता है या त्रिकोणों का सामना करते हुए ऊर्ध्वगामी या अधोगामी होता है या
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    3डी में ये चतुष्‍फलकीय संरचनाएं हो सकती हैं ।
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    यह प्रतीक एक यंत्र है, एक प्रकार का प्रोग्राम, जो ब्रह्माण्‍ड के भीतर अस्त्त्वि में है,
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    वह मशीन जो संसार में हमारे अंश जनित कर रही है ।
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    यंत्रों का हजारों वर्षों से चेतना जागृत करने के लिए
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    उपकरणों के रूप में उपयोग किया जा रहा है ।
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    यंत्र का दृश्‍य रूप आध्‍यात्मिक अनावरण की
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    आंतरिक प्रक्रिया का बाहरी प्रतिनिधित्‍व है ।
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    यह ब्रह्माण्‍ड के छिपे संगीत को प्रत्यक्ष करना है ।
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    ज्‍यामितिक रूपों एवं हस्‍तक्षेपीय पद्धतियों से समन्वित ।
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    प्रत्‍येक चक्र एक कमल, एक यंत्र, एक मनौवैज्ञानिक केन्‍द्र है,
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    जिसके माध्‍यम से विश्‍व का अनुभव किया जा सकता है।
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    एक पारंपरिक यंत्र, जिसे तिब्‍बती परंपरा में पाया जा सकता है,
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    अर्थ की समृद्ध परतों से परिपूरित, जो कभी कभार
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    पूर्ण ब्रह्माण्‍ड विज्ञान एवं विश्‍व दृष्टि को शामिल करता है ।
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    यंत्र सतत विकसित पद्धति है जो पुनरावृति
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    की शक्ति या चक्र की अन्‍योन्‍य
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    क्रिया के माध्‍यम से कार्य करता है ।
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    यंत्र की शक्ति सब कुछ है लेकिन वर्तमान संसार में समाप्‍त हो गई है,
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    क्योंकि हम केवल बाहरी रूप में अर्थ ढूँढ़ते हैं और हम अपने
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    अभीष्‍ट के माध्‍यम से अपनी आंतरिक ऊर्जा से इसे संबद्ध नहीं करते।
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    पादरी, मठवासी, योगियों का पारंपरिक रूप से ब्रह्मचारी
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    बने रहने के पीछे भी एक सही कारण रहा है।
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    आज केवल बहुत कम लोग जानते हैं कि वे क्‍यों ब्रह्मचर्य का अभ्‍यास कर रहे हैं,
  • 23:08 - 23:12
    चूंकि सच्‍चा प्रयोजन समाप्‍त हो गया है ।
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    सीधी-सी बात है कि जैसी भी स्थिति है,
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    आपकी ऊर्जा अधिक जीवाणु या
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    अंडों का उत्‍पापादन कर रही है । कुंडलिनी के और अधिक उत्कर्ष के लिए उत्तेजना नहीं है, जो उच्‍चतर
    चक्रों को सक्रिय करता है ।
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    कुंडलिनी जीवन ऊर्जा है, जो यौन ऊर्जा भी है ।
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    जब जागृति पाश्विक इच्‍छाओं पर कम केन्द्रित होने लगती है
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    और उच्‍च चक्रों के वास्‍तविक प्रतिबिंबन पर आ जाती है,
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    तो वह ऊर्जा मेरुदंड पर उन चक्रों में प्रवाहित होने लगती है ।
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    कई तांत्रिक अभ्‍यास करवाते हैं कि इस यौन ऊर्जा पर किस प्रकार नियंत्रण किया जाए,
  • 23:55 - 24:02
    ताकि इसका उपयोग उच्‍चतर आध्‍यात्मिक विकास में किया जा सके ।
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    आपकी चेतना की मनोदशा आपकी ऊर्जा के लिए उचित
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    स्थितियों का सृजन करती है
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    ताकि इसका विकास किया जा सके ।
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    जैसा कि एक्‍खार्ट टोले ने कहा है “जागृति एवं उपस्थिति सदैव वर्तमान में घटित होती है।“
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    यदि आप कुछ घटित होने का प्रयास कर रहे हैं तो आप
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    यथास्थिति में प्रतिरोध उत्‍पन्‍न कर रहे हैं ।
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    यह सभी तरह के प्रतिरोध को दूर करना ही है,
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    जिससे विकासात्‍मक ऊर्जा अनावृत होने लगती है ।
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    प्राचीन यौगिक परंपरा में योग क्रियाओं को ध्‍यान के लिए शरीर
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    को तैयार करने के लिए किया जाता है ।
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    हठयोग का उद्देश्‍य केवल अभ्‍यास पद्धति नहीं,
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    बल्कि व्‍यक्ति का आंतरिक तथा बाहरी संसार से संपर्क साधना है ।
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    संस्‍कृत शब्‍द `हठ` का अर्थ `सूर्य` का `ह` तथा चंद्रमा का `ठ` है ।
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    पतंजलि के मूल योग सूत्र में योग के आठ
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    अवयवों का प्रयोजन बुद्ध की आठ परतों
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    के मार्ग के समान है, जिससे
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    व्‍यक्ति पीड़ाओं से उबर सके ।
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    जब द्वैत विश्‍व की ध्रुवताएं संतुलन में हैं,
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    तो तीसरी वस्‍तु, उत्‍पन्‍न होती है ।
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    हम रहस्‍यपूर्ण स्‍वर्ण कुंजी पाते हैं जो प्रकृति की
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    विकासात्‍मक शक्तियों को खोलती हैं ।
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    सूर्य एवं चंन्‍द्रमा का यह संश्‍लेषण हमारी विकासात्‍मक ऊर्जा है ।
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    चूंकि मनुष्‍य अब अनन्‍य रूप से आंतरिक एवं बाहरी
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    संसार तथा अपने विचारों से जाना जाता है अतएव
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    ऐसे विरल व्‍यक्ति हैं जो आंतरिक तथा बाहरी शक्तियों
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    का संतुलन प्राप्‍त करते हैं जिससे कुंडलिनी
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    प्राकृतिक रूप से जागृत हो जाती है ।
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    जो केवल संयम में रहते हैं,
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    उनके लिए कुंडलिनी हमेशा रूपक,
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    एक विचार बनी रहती है न कि व्‍यक्ति की ऊर्जा और
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    यह चेतना का प्रत्‍यक्ष अनुभव बन जाती है ।
Title:
IWOW - Part 3 - The Serpent and the Lotus
Description:

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Video Language:
English
Team:
Awaken the World
Project:
02- Inner Worlds, Outer Worlds
Duration:
26:30

Hindi subtitles

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