तुम और घर एक ही चीज़ हो
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0:01 - 0:03[संगीत]
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0:35 - 0:38तुम और घर एक ही चीज़ हो
(उपशीर्षक सहित) -
0:38 - 0:4010-09-2018
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0:42 - 0:47[मूजी] ॐ। नमस्ते। सभी का स्वागत है।
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0:47 - 0:51इतने कम समय में, यहाँ आने के लिए धन्यवाद।
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0:53 - 0:56मैं यहाँ कई नए चेहरे देख रहा हूँ
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0:56 - 1:00जिन्हें मैं शायद पहले नहीं मिला।
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1:00 - 1:04तो आप सभी का स्वागत है।
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1:04 - 1:09और मुझे उम्मीद है कि आप
अपनी अपनी जगह ढूंढ पा रहे हैं, -
1:09 - 1:16अगर आप मेरा मतलब समझें तो,
यहाँ मोंटे सहजा में थोड़े सहज हो रहे हैं। -
1:16 - 1:21तो, मैं यहाँ हूँ। अगर कोई सवाल हैं
तो मैं उनके लिये उपलब्ध हूँ। -
1:21 - 1:25क्या कोई पूछना चाहता है?
और देखते हैं हम कहाँ तक पहुँचते हैं। -
1:25 - 1:28ठीक है, तुम यहाँ शुरुआत कर सकते हो।
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1:28 - 1:33हमारे पास एक [माइक है]।
अभी आ रहा है। -
1:36 - 1:38[प्रश्नकर्ता १] धन्यवाद प्रिय मूजी।
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1:38 - 1:41आखिरकार, पांच महीने के बाद
मुझे एक सवाल मिल ही गया। -
1:41 - 1:43[मूजी] पांच महीने के बाद मिला?
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1:43 - 1:49[प्र. १] उम्मीद है कि अच्छा हो।
[मूजी] चलो देखते हैं। [हँसी] -
1:49 - 1:52[प्र.१] यह निमंत्रण भी क्या उपहार है।
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1:52 - 1:55मैं सच में यह विस्तार महसूस कर पाता हूँ।
सच में यह खुलापन महसूस कर पाता हूँ। -
1:55 - 2:02पर हर बार मैं यह शरीर भी महसूस करता हूँ।
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2:02 - 2:07मेरे लिये इसे छोड़ पाना
सबसे मुश्किल काम है। -
2:07 - 2:10तो मैंने यह पूछने की कोशिश की,
'क्या मैं अपना हाथ हूँ?' -
2:10 - 2:14और मैंने पुष्टि की, कि नहीं,
'मैं अपना हाथ नहीं हूँ।' -
2:14 - 2:18मैंने अपने शरीर और मन को जांचा,
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2:18 - 2:21'नहीं, मैं अपना मन नहीं हूँ'। यह सच है।
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2:21 - 2:24पर जब मैं हृदय पर आता हूँ,
'क्या मैं अपना दिल हूँ?' -
2:24 - 2:26तब वह इतना स्पष्ट नहीं होता।
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2:26 - 2:30[मूजी] वह दिल नहीं।
[प्र.१] शारीरिक दिल नहीं। -
2:30 - 2:33[प्र.१] पर वह 'मैं' जैसा लगता है,
जो मैं हूँ, -
2:33 - 2:36ऐसा लगता है कि वह यहाँ अंदर भी है।
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2:36 - 2:41[मूजी] हाँ। हाँ। बेशक वह वहाँ अंदर भी है।
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2:41 - 2:44[प्र.१] हाँ। [हँसी] पर वह ऐसा है जैसे....
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2:44 - 2:49[मू.] क्या वह सिर्फ़ तुम्हारी उँगलियों के
छोर तक और तुम्हारे सर के ऊपर तक है? -
2:49 - 2:53[मूजी] क्या वह पूरे नाप का, सिकुड़ा हुआ है?
[प्र.१] दरअसल नहीं। -
2:53 - 2:59[मूजी] क्या तुम्हें यह एहसास है,
जब हम इसके बारे में बात करते हैं ... -
2:59 - 3:04तुम उस प्रश्न को कैसे लेते हो,
'क्या उसका कोई रूप है?' -
3:04 - 3:09[प्र.१] यह स्पष्ट है कि वह निराकार है।
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3:09 - 3:14पर मुझे हमेशा लगता है,
'मैं तो अभी भी यह व्यक्ति हूँ', -
3:14 - 3:16या यह संबंध महसूस होता है।
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3:16 - 3:21[मूजी] उससे छुटकारा पाने की
कोई ज़रूरत नहीं। -
3:21 - 3:27वह इतना कड़ा अनुकूलन है
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3:27 - 3:30जो हम अपने अभिव्यक्त जीवन में
अनुभव करते हैं। -
3:30 - 3:35हम यहाँ भी हैं
और इस शरीर में काम कर रहे हैं -
3:35 - 3:41पर यह एक ऐसा अनुकूलन है
जिसे हमने माना हुआ है। -
3:41 - 3:44लगभग कोई भी इस पर सवाल नहीं उठाता।
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3:44 - 3:46तो, अगर तुम किसी चीज़ पर सवाल न उठाओ,
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3:46 - 3:50तो मान लिया जाता है कि यह एक सच है,
जिस पर कोई विवाद नहीं है। -
3:50 - 3:54तो अगर यही एकमात्र सच होता
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3:54 - 4:02कि तुम बस अपना शरीर और मन ही हो,
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4:02 - 4:07और उसके आगे कुछ भी नहीं है,
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4:07 - 4:10तो अधिकतर लोगों के लिए यह काफ़ी होता।
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4:10 - 4:15उनका यही मानना है कि जो है यही है,
तुम्हारी शारीरिक पहचान, -
4:15 - 4:20और यह कि तुम देख रहे हो।
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4:20 - 4:24तुम्हारी इन्द्रियां हैं और कुछ है
जो इन मन और इन्द्रियों के माध्यम से -
4:24 - 4:28देख रहा है, अनुभव कर रहा है।
मन के लिये यही काफ़ी है। -
4:28 - 4:30यह काफ़ी क्यों नहीं है?
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4:30 - 4:34क्यों यह काफ़ी नहीं है?
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4:34 - 4:39अगर आत्मा नाम की कोई चीज़ न होती,
या स्व-आत्मन्, या विशुद्ध चैतन्य, -
4:39 - 4:41तो क्यों वह काफ़ी न होता
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4:41 - 4:45कि तुम सिर्फ़ अपने बारे में माना गया
अपना एक ख़याल होते? -
4:45 - 4:48जो वैसे भी बदलता रहता है,
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4:48 - 4:51जैसे अपनी हमेशा बदलती हुई
ख़ुद की एक तस्वीर। -
4:51 - 4:53तो वह हमेशा नहीं रहता।
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4:53 - 4:56और शरीर भी हमेशा नहीं रहता।
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4:56 - 4:59यह वह शरीर नहीं है
जिसे तुम्हारी मां ने जन्म दिया था। -
4:59 - 5:02तो, यह भी बदल रहा है।
सब कुछ बदल रहा है। -
5:02 - 5:07तो, अगर सब कुछ बदल रहा है
और यह चीज़ों का स्वभाव है कि वे बदलेंगी ही, -
5:07 - 5:12जो भी है, सब बदल रहा है।
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5:12 - 5:15तो हम क्या कर सकते हैं?
ऐसा ही तो है। -
5:15 - 5:18और ऐसा लगता है कि सभी के लिए ऐसा ही है।
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5:18 - 5:22तुम्हारा जीवन है, तुम जीवन जीते हो,
और अंत में ... -
5:22 - 5:24क्योंकि जीवन का एक अंत है,
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5:24 - 5:27जैसे जीवन की शुरुआत है, हम सोचते हैं,
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5:27 - 5:30कि हमारा अस्तित्व तब होता है
जब हमारा शरीर पैदा होता है। -
5:30 - 5:33हम कहते हैं कि वह तुम्हारा पहला दिन है
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5:33 - 5:36और एक आखरी दिन भी होगा।
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5:36 - 5:39और उसके बाद? उसके बाद कुछ नहीं।
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5:39 - 5:44मान लो ऐसा ही है, या इसके दौरान भी,
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5:44 - 5:51तन-मन के चलन के सिवा और कुछ नहीं है।
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5:51 - 5:57क्या तुम्हारे लिए ऐसा है?
तुमने यह पाया है क्या ? -
5:57 - 6:00तो इस निमंत्रण की कोई ज़रूरत ही न होती,
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6:00 - 6:02वह तुम्हारे अपने विश्वास के अलावा
कुछ भी उजागर न करता, -
6:02 - 6:07कि तुम शरीर हो,
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6:07 - 6:10और अनुकूलन हो या वह परिवेश
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6:10 - 6:14जो इस शारीरिक अभिव्यक्ति के लिए पैदा हुआ।
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6:14 - 6:19[प्र. १] मुझे लगता है... जब मैं छोटा था
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6:19 - 6:26तब मुझे यह पता था कि जब मैं मर जाऊंगा
तब भी यहीं रहूँगा। -
6:26 - 6:35सच में मुझे ऐसा लगता है। पर पता नहीं,
शायद मुझे कुछ ज़्यादा ही उम्म्मीद है। -
6:35 - 6:39[मूजी] मुझे बताओ,
तुम्हें ऐसी क्या ज़्यादा उम्मीद है? -
6:42 - 6:46[प्र.१] शायद मुझे उम्मीद है
कि जब मैं उसके साथ रहता हूँ -
6:46 - 6:52तब इससे ज़्यादा कुछ होना चाहिए।
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6:52 - 6:55[मूजी] और 'यह' क्या है?
'इस से ज़्यादा कुछ।' -
6:55 - 6:58बस देखें हम क्या बात कर रहे हैं,
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6:58 - 7:00'इस से ज़्यादा कुछ होना चाहिए।'
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7:00 - 7:03तो इस वक़्त, 'यह' क्या दर्शाता है?
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7:03 - 7:07[प्र.१] ऐसा लगता है कि मुझे इसमें
ज़्यादा स्थापित होना है। -
7:07 - 7:09मानो कुछ है जो पकड़े हुए है ...
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7:09 - 7:13[मूजी] तुम्हारी सभी बातें उस पर आधारित हैं
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7:13 - 7:16कि वह जो स्व को पायेगा,
उसे कुछ होना चाहिए। -
7:16 - 7:18इसमें स्व के बारे में कुछ नहीं है।
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7:18 - 7:22यह उसके बारे में है जो अनुभव करेगा,
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7:22 - 7:27जैसे कोई है जो स्व का अनुभव करेगा और
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7:27 - 7:30सोचेगा, 'हाँ, आख़िरकार मैंने पा ही लिया!'
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7:30 - 7:34और अगर यह नया नया पाया गया है
तो यह खो भी सकता है। -
7:34 - 7:39अगर यह तुमने कुछ नया पाया है
तो हो सकता है तुम्हें लगे, -
7:39 - 7:42'आह! मुझे ध्यान रखना पड़ेगा
कि मैं इसे खो न दूँ!' -
7:42 - 7:46और यह सब इसलिए आता है
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7:46 - 7:50क्योंकि जो तुम ख़ुद को समझते हो उस 'मैं'
भाव में तुम्हें पक्का विश्वास है, -
7:50 - 7:53जो स्व को खोज रहा है।
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7:53 - 7:56अभी तक यह समझ में नहीं आया
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7:56 - 8:01कि यह 'मैं' ही व्यक्ति-भाव से छूट जायेगा,
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8:01 - 8:05और तुम पाओगे कि यह 'मैं' आत्मन ही है!
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8:05 - 8:08पर जब तक स्मृति है, आदतें हैं,
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8:08 - 8:12वासनाएँ है, इच्छाएँ और आसक्तियाँ हैं,
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8:12 - 8:17तब तक यह तुम्हारा ख़ुद को व्यक्ति
मानने को कायम रखेगा और मज़बूत करेगा। -
8:17 - 8:21और वह व्यक्ति जो परम-तत्व को खोज रहा है,
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8:21 - 8:25ख़ुद ही लड़खड़ा रहा है,
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8:25 - 8:34क्योंकि प्रबोधन या मोक्ष
व्यक्ति के लिए नहीं होता, -
8:34 - 8:38वह व्यक्ति से छूट कर होता है!
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8:38 - 8:41यह अजीब बात लगती है,
क्योंकि हमारा विश्वास है, -
8:41 - 8:44'मैंने खोज की है और मैं बेहतर हो गया हूँ,
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8:44 - 8:46मैं ज़्यादा देर तक ध्यान में बैठ पाता हूँ।
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8:46 - 8:50मैं देख रहा हूँ कि मैं पहले से
ज़्यादा शांत हूँ। -
8:50 - 8:52मैं जीवन में ज़्यादा शांत रहने लगा हूँ,
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8:52 - 8:57पर अभी भी मुझे वह 'बड़ी वाली' चीज़ पानी है।
जो कुछ कुछ ऐसा है, -
8:57 - 9:01'हाँ! चैतन्य में मज़बूती से स्थापित होना
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9:01 - 9:05ताकि आगे कोई ग़लतियाँ न हों,
आगे और कष्ट न हों।' -
9:05 - 9:09तो अभी भी ऐसी इच्छा है कि यह व्यक्ति
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9:09 - 9:14सबसे ऊँचा ईनाम पा ले
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9:14 - 9:17ताकि इसे और कष्ट न उठाने पड़ें।
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9:17 - 9:22यह बहुत छोटी सी बात है पर
वास्तव में यह ऐसा नहीं है। -
9:22 - 9:28इस निमंत्रण की ख़ूबसूरती यह है
कि अंत में, -
9:28 - 9:31जब तुम निमंत्रण को सुन चुके,
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9:31 - 9:34या किताब पढ़ कर रख चुके,
तब मैं पूछता हूँ, तुम कौन हो? -
9:34 - 9:37इस निमंत्रण के अंत में क्या रह जाता है?
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9:37 - 9:41क्या बचा है वहाँ?
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9:41 - 9:44[मूजी] एक अच्छे अनुभव वाला व्यक्ति?
[प्र. १] नहीं। -
9:44 - 9:47पर हो सकता है, अभी भी लगता है कि,
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9:47 - 9:51'वाह, यह बहुत बढ़िया था!
क्या हम इसे दोबारा कर सकते हैं?' -
9:51 - 9:55लेकिन, यदि ईमानदारी से तुमने
इसका अनुसरण किया है, -
9:55 - 10:02तो मुझे उम्मीद है कि तुम यह देख पाओगे
कि तुम्हें यह तो मालुम है कि तुम हो, -
10:02 - 10:06लेकिन उसके इर्द-गिर्द कोई परिभाषा नहीं है,
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10:06 - 10:12कोई हद या सीमा नहीं है।
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10:12 - 10:17जबकि पहले, व्यक्ति-भाव में,
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10:17 - 10:20हमारे पास कई संदर्भ होते थे
कि मैं कौन हूँ। -
10:20 - 10:23तुम एक ख़ास संदर्भ में हो
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10:23 - 10:27और यह समझने के लिये कि तुम कौन हो,
तुम उस पर जाते हो। -
10:27 - 10:30होने के एहसास में
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10:30 - 10:36क्या वह सीमित तादात्म्य कायम है?
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10:36 - 10:39अब मैं सभी से पूछ रहा हूँ,
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10:39 - 10:41इस निमंत्रण के अंत में,
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10:41 - 10:45व्यक्ति का यह एहसास कि यह 'मैं' हूँ
जिसने यह किया है, -
10:45 - 10:50'उम्मीद है यह काम करेगा। अरे वाह!
मैं सच में सब कुछ अर्पण कर रहा हूँ ...' -
10:50 - 10:54क्या इस निमंत्रण के बाद यह बचा है
जो कहता है, -
10:54 - 10:58'वाह, सच में बहुत अच्छा हुआ
कि मैंने यह अनुभव किया'? -
10:58 - 11:04सच कहो, क्या यह है जो बचा है? या ...
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11:04 - 11:11जो पाया है
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11:11 - 11:14उसकी अपरिभाषित-ता जानने के बावजूद,
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11:14 - 11:19इसका मतलब यह नहीं
कि व्यक्ति-भाव पूरी तरह से ख़त्म हो गया। -
11:19 - 11:23बेशक उस क्षण से,
वह समझने का पल है -
11:23 - 11:30इसलिए हो सकता है ऐसा लगे,
'वाह! यह अद्भुत है!' -
11:30 - 11:32पर व्यक्ति-भाव
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11:32 - 11:37उस पल में उस दृष्टि की शक्ति को
नहीं झेल सकता, -
11:37 - 11:40तो वह पीछे हट जाता है,
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11:40 - 11:46पर अगर वह पूरी तरह जल नहीं गया
तो धीरे धीरे वापस आ जाता है। -
11:46 - 11:52और जलने का मतलब होगा
कि तुम, अपने ध्यान के माध्यम से -
11:52 - 11:56काफी हद तक अपनी ख़ोज में रहोगे
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11:56 - 12:02और मन-संसार से या व्यक्ति-भाव के
जीवन कि अभिव्यक्ति से -
12:02 - 12:09तादात्म्य बनाने में ज़्यादा कोई दिलचस्पी
नहीं रह जाएगी। -
12:09 - 12:13व्यक्ति-भाव कोई गलती नहीं है,
वह बस एक सीमितता है। -
12:13 - 12:17है वह भी चेतना ही,
पर वह एक ऐसी सीमितता है -
12:17 - 12:22जिसे तुम तभी देखोगे
जब तुम अपनी असीमता देखने लगोगे। -
12:22 - 12:25तब तुम व्यक्ति-भाव की परिसीमा देख पाओगे।
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12:25 - 12:28और कुछ समय के लिए मन डोलेगा।
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12:28 - 12:33किसी न किसी तरह ध्यान
उस विशुद्ध समरसता की तरफ जायेगा -
12:33 - 12:38और तुम ख़ुद को पूरी तरह से
अपने स्वरुप में महसूस करोगे। -
12:38 - 12:43पर वह दोबारा अपनी पुरानी तादात्म्य की आदत में
झूल जायेगा -
12:43 - 12:47और फिर से तुम्हें लगेगा,
'हे भगवान, नहीं, मैंने नहीं पाया। -
12:47 - 12:52मैं तो बिलकुल खो गया हूँ।
हे भगवान, मैं इसमें से कैसे निकलूं?' -
12:52 - 12:55और वह फिर झूलेगा और तुम्हें लगेगा,
-
12:55 - 12:58'हलिलुय! ओह, मैंने इस पर शक़ भी कैसे किया?
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12:58 - 13:02मैं इस पर कैसे शक़ कर सका?
यह तो इतना उत्तम है। उत्तम है। -
13:02 - 13:04ओह, मैं समझ गया, बेशक़
यह कभी फीका नहीं पड़ता! -
13:04 - 13:07मूजी, यह फीका नहीं पड़ता,
यह फीका नहीं पड़ता!' -
13:07 - 13:12और वह फिर झूलता है,
'हे भगवान! यह कब ख़तम होगा?' -
13:12 - 13:16जब तक कि एक बिंदु पर,
अचानक कुछ समझ आ जाता है, -
13:16 - 13:23कि वे दोनों चरम
ऐसी जगह से दिख रहे हैं -
13:23 - 13:27जो खुद झूल नहीं रही।
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13:27 - 13:34यही इसका स्वाभाविक, तुम कह सकते हो,
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13:34 - 13:38विकास या परिपक्वता है।
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13:38 - 13:41पर इससे बस जुड़े रहना है।
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13:41 - 13:44तुम कुछ पाते हो, और मन आ कर कह देता है,
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13:44 - 13:47'इसका मैं क्या करूँ? इसका क्या फ़ायदा?
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13:47 - 13:50मैं कैसे यहाँ रह सकता हूँ?
कैसे मैं इसे खो न दूँ?' -
13:50 - 13:54जैसे इस पर उसका अधिकार हो।
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13:54 - 13:57और मन की चालाकी को पकड़ने के लिए
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13:57 - 14:01तुम्हें बहुत चौकन्ना रहना पड़ेगा।
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14:01 - 14:05पर मैं तुम्हें कह रहा हूँ
कि तुम अपने मन की -
14:05 - 14:10भ्रम पैदा करे वाली शक्ति से
कही ज़्यादा बड़े हो। -
14:10 - 14:15तुम इस मानसिक आवाज़ के बिना रह सकते हो,
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14:15 - 14:18पर वह तुम्हारे बिना नहीं रह सकती।
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14:18 - 14:21तो तुम्हें तय करना है कि बेहतर क्या है,
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14:21 - 14:25क्योंकि थोड़ी देर के लिये तुम देखोगे
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14:25 - 14:28कि यह मानसिक व्यवहार, यह अनुकूलन,
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14:28 - 14:32एक परजीवी की तरह है जो जीता किस पर है?
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14:32 - 14:34शुद्ध आत्मन पर? नहीं।
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14:34 - 14:37यह उस विचार पर जीता है
जो तुम अपने बारे में रखते हो। -
14:37 - 14:41हमें अभी तक पक्का विश्वास नहीं है
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14:41 - 14:44कि तुम केवल चैतन्य हो।
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14:44 - 14:48यह केवल आस्था नहीं है।
जब मैं दृढ विश्वास कहूं, -
14:48 - 14:52तो यह महज़ विश्वास से ऊपर है, यह अभी तक
तुम्हारी अनुभव के आधार पर पुष्टि नहीं है -
14:52 - 14:55कि तुम चैतन्य हो।
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14:55 - 15:00अभी भी लगता है कि यह आगे है
जिसके लिए प्रयत्न करना है। -
15:00 - 15:04तो जब तक यह दूरी है,
तुम व्यापार के लिए उपलब्ध हो -
15:04 - 15:08और मन बार बार आता रहेगा।
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15:08 - 15:13अब मुझे इसका कुछ अंदाज़ा है,
और मुझे लगता है यह काफ़ी अच्छा है, -
15:13 - 15:17क्योंकि वे भी जो कहते हैं,
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15:17 - 15:21"मेरा मन मेरी जान ले रहा है।
यह लगा रहता है! -
15:21 - 15:26कभी हार नहीं मानता।
कभी छुट्टी पर नहीं जाता ...' -
15:26 - 15:32मन अपना काम भली-भांति करता है।
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15:32 - 15:37तुम इसे कैसे हरा सकते हो?
यह भावना ऐसे आती है। -
15:37 - 15:44और मैं कहता हूँ,
'पहले तो, उससे लड़ो मत। उससे मत लड़ो। -
15:44 - 15:50मन किससे बात कर रहा है?
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15:50 - 15:53मन किस से बात कर रहा है?
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15:53 - 15:59अगर हम जीसस क्राइस्ट जैसे गुरु
का उदाहरण लें, -
15:59 - 16:04या पैग़म्बर का, या भगवान राम,
या भगवान कृष्ण, -
16:04 - 16:07तो उनसे मन कैसे बोलेगा?
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16:07 - 16:12हम जानते हैं,और हमने सुना है
कि ईसा मसीह के प्रलोभन में, -
16:12 - 16:15और बुद्धा का भी, एक जैसी कहानियों में,
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16:15 - 16:19कि कैसे शुरू में, उनका आध्यात्मिक उपदेश
शुरू होने से एकदम पहले, -
16:19 - 16:22उन्होंने मन के बहुत से प्रश्न
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16:22 - 16:28और आक्रमण झेले, जैसे मसीह का प्रलोभन आदि।
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16:28 - 16:32तुम्हें कैसे लुभाया जा सकता है
अगर तुम लोभित नहीं हो सकते? -
16:32 - 16:35तो किसी न किसी बिंदु पर, कुछ तो रहा होगा,
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16:35 - 16:39एक खेल, एक दृश्य जो अभी खेला जाना था
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16:39 - 16:44असली लीला समझने के लिए,
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16:44 - 16:52एक मिथ्या शत्रु, बोलने के लिए,
उसका वास्तव में अनुभव करने के लिए -
16:52 - 16:55और स्पष्ट दृष्टि से उससे लड़ने के लिए
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16:55 - 17:01और तुम पर उसका मनोवैज्ञानिक असर
ख़तम करने के लिए। -
17:01 - 17:04सिर्फ़ तभी उनका उपदेश शुरू हो पाया।
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17:04 - 17:07और वह वैसे ही रूप में आएगा,
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17:07 - 17:10जैसा इस शरीर को पहननेवाली चेतना को
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17:10 - 17:12अनुभव करने की ज़रूरत है।
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17:12 - 17:16कई बार कुछ लक्षण, कुछ झुकाव,
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17:16 - 17:21या छिपी हुई आदतें,
जिन्हें वासना या संस्कार कहा जाता है, -
17:21 - 17:25जब वे बढ़ जाते हैं
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17:25 - 17:29तो मानो वे अस्तित्व को बंधक बना लेते हैं।
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17:29 - 17:34क्या तुम समझ रहे हो मैं क्या कह रहा हूँ?
-
17:34 - 17:38तो जब वे बढ़ते हैं, तब बहुत संभावना है
कि तुम व्यक्तिगत तादात्म्य जोड़ लो, -
17:38 - 17:41इन ताकतों की वजह से।
-
17:41 - 17:44तो जब वे आती हैं तब मानो
-
17:44 - 17:47तुम सबसे ज़्यादा कमज़ोर होते हो।
-
17:47 - 17:52लेकिन कभी कभी, तुम्हारी सबसे ज़्यादा
कमज़ोरी के बिंदु पर, सबसे ज़्यादा कमज़ोरी, -
17:52 - 17:57उसके दूसरी तरफ़ तुम्हारी सबसे बड़ी ताकत है,
जो तुमने पहचानी नहीं है। -
17:57 - 18:02कभी कभी,जो भी तुम अपना समझते हो
तुम्हें वह सब कुछ गवांना पड़ता है -
18:02 - 18:08उसे पाने के लिये जो किसी का नहीं हो सकता,
उसे पाने के लिये। -
18:08 - 18:12तो यह खेल इतना जटिल चल रहा है,
-
18:12 - 18:17यह खेल इतना विस्तृत, इतना विविध है,
-
18:17 - 18:21और हर किसी के अपने चालीस दिन
चालीस रातें होते हैं। -
18:21 - 18:27ख़ैर, अब चालीस दिन चालीस रातें नहीं रहे,
किसी के पास इतना वक़्त नहीं है! -
18:27 - 18:29हम इतने बेसब्र हो गए हैं।
-
18:29 - 18:33बेरोज़गार लोगों के पास भी वक़्त नहीं है,
इस सब के लिये। -
18:33 - 18:39तो चेतना ने ख़ुद को आधुनिक जीवन के लिये
ढाल लिया है। -
18:39 - 18:43यह ऐसा नहीं है जिसे तुम दूकान से खरीद सको,
-
18:43 - 18:46लेकिन शायद यह उससे भी ज़्यादा
उपलब्ध लगता है -
18:46 - 18:50कि लोग ऑनलाइन जा कर ये चीज़ें देख सकते हैं,
-
18:50 - 18:53और लगातार इसके साथ रह सकते हैं।
-
18:53 - 18:57मानो तुम अपने गुरु से हर रोज़
बात कर सकते हो। -
18:57 - 19:01जबकि पुराने समय में, शायद ऐसा नहीं था,
-
19:01 - 19:04जैसी आज एक शिष्य की पहुँच है।
-
19:11 - 19:16[प्र.१] यह ऐसा है जैसे
जब मैं तीन महीने के लिये -
19:16 - 19:18MSB (मूजी संघ भवन) में था,
-
19:18 - 19:23और उस वक़्त पर मैं इसमें इतना उभरा हुआ
महसूस करता था। उभरा? -
19:23 - 19:25[मूजी] तल्लीन, शायद।
-
19:25 - 19:29[प्र.१.] और कोई संघर्ष नहीं था,
कोई जलन नहीं थी। -
19:29 - 19:31मैं बस बहुत अच्छा महसूस कर रहा था!
-
19:31 - 19:35ऐसा लगता था,
'क्या यह ज़रूरत से ज़्यादा अच्छा है?' -
19:35 - 19:40जैसे कोई परेशानी होनी चाहिये। पता नहीं।
-
19:40 - 19:42फिर मैं घर वापस चला गया
-
19:42 - 19:45और वहाँ कुछ ऐसी परिस्थितियां हुईं
जो बहुत उलझन भरी थीं, -
19:45 - 19:49पर मैं उन परिस्थितियों में भी
बिलकुल ठीक रहा। -
19:49 - 19:54मैं देख पा रहा था कि
व्यक्ति में मेरी दिलचस्पी बहुत ... -
19:54 - 19:57[मूजी] कमज़ोर?
[प्र.१] कमज़ोर। हाँ। -
19:57 - 20:02[प्र.१] पर यह इतना अजीब था कि
कैसे इस समय में पुरानी आदतें, -
20:02 - 20:06पुरानी कमज़ोरियाँ उभर कर आयीं।
-
20:06 - 20:10मैं लम्बे अरसे बाद
फिर से धूम्रपान करने लग गया, -
20:10 - 20:14सिर्फ़ इस दौरान, इस अंतराल में।
-
20:14 - 20:18मैं देख पा रहा था जैसे, 'अरे,
मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ?' -
20:18 - 20:23मुझे लगा कि मुझमें कुछ इतना,
कैसे कहा जाये ... -
20:23 - 20:27क्या आप मेरी मदद कर सकते हैं?
कोई? जर्मन? -
20:27 - 20:30[संघ में से आवाज़] टालना।
[प्र.१] टाल रहा था। -
20:30 - 20:34और मैं इतना टीवी देखने लग गया था,
देर रात तक। -
20:34 - 20:40पर यह अच्छा था कि मैं अभी भी
महसूस कर पा रहा था कि वह यहीं है। -
20:40 - 20:44[मूजी] ऐसा अक्सर होता है, यह अच्छा है।
-
20:44 - 20:47व्यक्तिगत पहचान को लगता है,
'अब मैं दूर रहा हूँ। -
20:47 - 20:51वाह, मैंने इस सारे आध्यात्म को सोख लिया।'
-
20:51 - 21:00और तुम घर जाते हो
और वह रंग बदलने लगता है। -
21:00 - 21:04इसे समझें, तुम हर बार उसी जगह पर नहीं हो,
-
21:04 - 21:09अगर तुम व्यक्ति-भाव में रहते हो,
तो तुम उसी जगह पर नहीं हो। -
21:09 - 21:12हो सकता है तुम उससे ऊँची जगह पर हो।
-
21:12 - 21:15मैं इसके बारे में और बातें भी कह सकता हूँ।
-
21:15 - 21:18तुम उससे ऊपर की जगह पर हो सकते हो,
-
21:18 - 21:21पर हो सकता है
वह और भी ज़्यादा उलझन भरी लगे। -
21:21 - 21:24तुम्हें लग सकता है कि
तुम्हारी ज़िन्दगी तहस-नहस हो गयी, -
21:24 - 21:27या यह तो बहुत खराब बात है;
पर हो सकता है वह अच्छी बात हो। -
21:27 - 21:31शायद दोबारा से कुछ होने की ज़रूरत है ...
-
21:31 - 21:34हो सकता है किसी चीज़ को तहस-नहस हो कर
-
21:34 - 21:37दोबारा बनने की ज़रूरत हो,
-
21:37 - 21:41या शायद दोबारा बनने की नहीं बल्कि
किसी और रूप में प्रकट होने की ज़रूरत हो। -
21:41 - 21:48तो इसे समझने के लिये
अपने मन पर भरोसा मत करो। -
21:48 - 21:52क्योंकि कभी कभी तुम सोचने लगते हो,
मैं तो यहाँ आने से पहले ही ठीक था। -
21:52 - 21:55पहली बार यहाँ कितना अच्छा था।
-
21:55 - 21:58जब मैं वापस गया तो मानो
जैसे लाल सागर गुज़र गया। -
21:58 - 22:01सब कुछ ऐसे हो रहा था।
-
22:01 - 22:05और फिर, वह बड़ा धमाका हो गया!
-
22:05 - 22:08कई अलग अलग कारण हो सकते हैं।
-
22:08 - 22:12हो सकता है तुममें एक प्रकार का
अहंकार आने लगे। -
22:12 - 22:14तुम सोचने लगो,
'अब तो मैं इतना ख़ास हो गया हूँ। -
22:14 - 22:18मैं सोचता हूँ और वैसा ही हो जाता है।'
-
22:18 - 22:21तो पता नहीं जीवन कैसे आए,
-
22:21 - 22:28तुम्हारे जोश पर पानी फेर दे,
और अधिक विनम्रता के लिये जगह बना दे, -
22:28 - 22:31जो तुम्हें वापस रस्ते पर ले आये।
-
22:31 - 22:34कई चीज़ें हो सकती हैं।
-
22:34 - 22:40हमारे मन से इसके बारे में जो तस्वीर
आती है उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। -
22:40 - 22:44कभी कभी तुम्हें बहुत खराब लगता है
और फिर तुम्हें याद दिलाना पड़ता है -
22:44 - 22:53कि तुम्हारी एक तरह की
मानसिक सफ़ाई हो रही है। -
22:53 - 22:57कुछ है जो बाहर निकाल रहा है, तुम्हें
लगता है, 'ओह, मैंने यह उम्मीद नहीं की थी। -
22:57 - 23:00मैंने सोचा था मुझे शान्ति मिलेगी।
-
23:00 - 23:03पर मैं तो बिलकुल बिखर गया हूँ।
पता नहीं क्या करूँ।' -
23:03 - 23:08तुम्हें बहुत खराब लगता है, 'हे भगवान्।
शायद मैंने यहाँ आ कर गलती कर दी। -
23:08 - 23:11पर तुम्हारी सफ़ाई हो रही है
और यह सब ऊपर आ रहा है -
23:11 - 23:13और यह अच्छा नहीं लगता।
-
23:13 - 23:17अगर तुम्हारे अंदर बहुत बुराई है
-
23:17 - 23:22और तुम्हें उसे उलटी करना है,
तो यह अच्छा एहसास नहीं है। -
23:22 - 23:24पर जब वह बाहर आता है
[उलटी करने की नक़ल करते हुए] -
23:24 - 23:28उलटी करने के बाद बहुत अच्छा लगता है, है न?
-
23:28 - 23:30कभी कभी ये बातें ऊपर आ जाती हैं
-
23:30 - 23:33और वे केवल मोंटे सहजा जैसी जगह के माहौल
-
23:33 - 23:38और आध्यात्मिकता से सक्रिय हो जाती हैं।
-
23:38 - 23:42वे बहुत ताकत से आती हैं और
तुम्हें याद दिलाना पड़ता है, -
23:42 - 23:45कि 'सब ठीक है। चिंता मत करो।
तुम पर कृपादृष्टि है। -
23:45 - 23:49सब ठीक है, यह बस कुछ अटकी हुई ऊर्जा
की डकार आ रहा है, -
23:49 - 23:52या कोई भ्रम हैं जो जल रहे हैं।'
-
23:52 - 23:57और कभी कभी यह जलन
साधना से भी ज़्यादा होती है। -
23:57 - 23:59साधना मतलब आध्यात्मिक अभ्यास,
-
23:59 - 24:03क्योंकि तुम्हारी अंतर्दशा ऐसी होती है
जैसे तुम आग के बीच में हो। -
24:03 - 24:07तुम्हारा जी मिचलाता है,
किसी से बात करने का मन नहीं करता, -
24:07 - 24:11पर तुम पर कृपादृष्टि है।
वह किसी तरह जल कर राख हो रहा है। -
24:11 - 24:15[प्र.१} पिछले साल मेरा बहुत जलन वाला रहा,
-
24:15 - 24:18मैं दिन रात रो रहा था,
-
24:18 - 24:23मैं वाकई जल रहा था।
मेरी पूरी ज़िन्दगी बदल गयी। -
24:23 - 24:25कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा।
-
24:25 - 24:29पर इस समय मुझे कोई जलन नहीं महसूस हो रही,
और मुझे लग रहा है, -
24:29 - 24:33क्या मुझे उससे ज़्यादा जलना चाहिए?
मानो मैं कुछ ज़्यादा ही आराम से हूँ। -
24:33 - 24:37[मूजी] यह 'मैं' ...
मैं हमेशा सीधा 'मैं' पर जाता हूँ। -
24:37 - 24:41कौन बोल रहा है?
इस कहानी का संवाददाता कौन है? -
24:41 - 24:45क्या यह सच में चेतना के
हृदय में दीक्षित हुआ है? -
24:45 - 24:47क्या यह चेतना बोल रही है?
-
24:47 - 24:50या क्या यह चेतना और
-
24:50 - 24:56अचेतन व्यक्ति-भाव का मिश्रण बोल रहा है?
-
24:56 - 25:01और हमेशा ऐसा होता है मानो व्यक्ति-भाव
अभी भी है, वह बच गया है। -
25:01 - 25:05वह बच गया है।
तुम्हें यहाँ आ कर बचना नहीं चाहिए! -
25:05 - 25:07[प्र.१] मैं बचना भी नहीं चाहता।
-
25:07 - 25:11[मूजी] कोई यहाँ आयीं थीं और उसने मुझे
चिट्ठी लिखी, और मुझे एक किताब भेजी। -
25:11 - 25:14किताब में उसने लिखा,
-
25:14 - 25:18'मैं इतनी किस्मत वाली हूँ कि
मैं अपने जीवन में कई गुरुओं के साथ रही हूँ। -
25:18 - 25:20मैं सात गुरुओं के साथ बैठी हूँ।'
-
25:20 - 25:23मैंने कहा, पर तुम सात गुरुओं से
बच कैसे गयी? -
25:23 - 25:27एक भी! तुम्हें एक भी गुरु से
बचना नहीं चाहिए! -
25:27 - 25:31तो आ कर यह कहना,
'हाँ, मैं सात गुरुओं के साथ बैठी'। -
25:31 - 25:34और तुम्हें क्या हुआ?
क्या तुम्हारा अहम् अभी भी ज़िंदा है? -
25:34 - 25:37क्या हुआ?
क्या तुम पीछे की पंक्ति में बैठी थी? -
25:37 - 25:40क्या तुम शौचालय में छिपी हुईं थी?
तुम कहाँ थी? -
25:40 - 25:47क्योंकि अगर तुम तत्परता से आओ,
तो तुम्हारे साथ कुछ होना चाहिए! -
25:47 - 25:51तुम्हें बचना नहीं चाहिये।
'तुम' मतलब अहम् -
25:51 - 25:57जो दरअसल तुम्हारे सत्य स्वरुप के ऊपर
पहना हुआ मुखौटा है। -
25:57 - 26:02तुम इस मुखौटे के साथ जी रहे हो। तुम शीशे
में देखते हो, तो तुम्हें मुखौटा दिखाई देता है, -
26:02 - 26:06तुम अपने मुखौटे पर मेक-उप लगाते हो।
हमें अपने मुखौटे पर कितना गर्व है। -
26:06 - 26:09हमें यह भी नहीं पता कि वह मुखौटा है।
-
26:09 - 26:12जब तुम्हें दिखने लगे कि यह मुखौटा है,
-
26:12 - 26:17तो तुम उसे उतारने की कोशिश करते हो, तुम्हें
दिखाई देता है कि वह कितना चिपका हुआ लगता है, -
26:17 - 26:22फिर भी तुम्हें पता होता है,
कि मैं यह नहीं हूँ। -
26:22 - 26:27और हम इस मुखौटे को कैसे उतार सकते हैं?
ज़ोर-ज़बरदस्ती से नहीं। -
26:27 - 26:30बल्कि जो आंतरिक अनुभव तुम्हें दिया गया है
-
26:30 - 26:34उसे याद कर के,
-
26:34 - 26:38और उसे पहचान कर
-
26:38 - 26:41जो आँखों से नहीं दिखाई देता।
-
26:41 - 26:46तुम गहराई से देख पाते हो।
-
26:46 - 26:49यह निमंत्रण सभी का मित्र है,
-
26:49 - 26:52क्योंकि वह तुम्हें अपनी सामान्य
ध्यान बंटाने वाली चीज़ें -
26:52 - 27:00छोड़ने में,
-
27:00 - 27:04और यह देखने में मदद करता है
कि उस दृष्टि में वापस आना कितना आसान है, -
27:04 - 27:11अस्तित्व के उस क्षेत्र में आना जिसमें
सभी चीज़ें और भी स्पष्ट दिखने लगतीं हैं, -
27:11 - 27:15जहां अदृश्य भी दिखने लगता है।
-
27:20 - 27:25[मूजी] जब तक हम बाहरी जीवन के
भ्रमजाल में हैं, -
27:25 - 27:27जहाँ हमें अधिकतर यही लगता है कि,
-
27:27 - 27:30'मैं यह व्यक्ति हूँ जो व्यक्ति-भाव में
बढ़ रहा है -
27:30 - 27:35और मंज़िल के क़रीब आता जा रहा है',
-
27:35 - 27:40तब तक हममें भ्रम रहता है।
-
27:40 - 27:43तुम्हें इस सब पर जीत पानी होगी।
-
27:43 - 27:46और दरअसल मुझे यह ज़्यादा मुश्किल नहीं लगता।
-
27:46 - 27:51अगर कोई मुश्किल है तो वह है
हमारी अपनी तादात्म्य के प्रति वफ़ादारी। -
27:51 - 27:53अगर तुम्हें अभी भी भूख है,
-
27:53 - 27:57सांसारिक चीज़ों के प्रति विषयी भूख,
-
27:57 - 28:00तो तुम आसक्तियों की ताकत की वजह से
उन्हें छोड़ नहीं पाओगे, -
28:00 - 28:04इसलिए भी कि वह उभरेंगी।
-
28:04 - 28:08और ध्यान में, निर्देशित ध्यान,
या सत्संग में, -
28:08 - 28:13तुम्हें पता चलेगा कि कहाँ
वे आसक्तियां ज़्यादा कसी हुई हैं। -
28:13 - 28:16और इसकी इच्छा होनी चाहिये ...
-
28:16 - 28:18चीज़ें अपने आप में नहीं ...
-
28:18 - 28:22कोई चीज़ खुद परेशानी नहीं होती,
बल्कि तुम्हारा उससे रिश्ता -
28:22 - 28:25और तुम उसको क्या महत्त्व देते हो,
यह बात होती है। -
28:25 - 28:29क्योंकि वह महत्त्व है, कि उस चीज़ की
तुम्हारे लिए क्या कीमत है। -
28:29 - 28:34और जो मूल्य तुम उसे देते हो, वह तब उभरेगा
जब उसके पार जाने का समय आएगा, -
28:34 - 28:36और तुम उसे अपने साथ ले जाना चाहोगे।
-
28:36 - 28:41और अगर एक विकल्प हो,' तुम अकेले आओ
[उसके बिना] या यहीं रहो', -
28:41 - 28:45तो शायद तुम यहीं रह जाओगे
क्योंकि उन पलों में -
28:45 - 28:50तुम्हारी आसक्तियाँ ऐसी लगेंगी
मानो वे क्रिसमस का त्यौहार हों। -
28:50 - 28:59तुम उन्हें छोड़ना नहीं चाहोगे, 'ओह,
शायद मैं बाद में आ जाऊंगा'। तुम ऐसा करोगे। -
28:59 - 29:02मुक्ति की ओर अपना मार्ग निश्चित मत करो!
-
29:02 - 29:05बस आ जाओ और उपस्थित रहो!
-
29:05 - 29:07बस आ जाओ! बस पहुंचो!
-
29:07 - 29:10तुम्हें कोई भी तरक़ीबों की
ज़रूरत नहीं है। -
29:10 - 29:14तुम्हारे पास कोई भी तरकीब न हो!
कोई बचाव का रास्ता मत सोचो। -
29:14 - 29:17बस अपने मन में इस इच्छा के साथ आओ,
-
29:17 - 29:20'मुझमें मुक्त होने की इतनी आकांक्षा है कि,
-
29:20 - 29:26मैं अहम्-भाव का बोझ और नहीं उठा सकता।'
-
29:26 - 29:28क्योंकि अगर तुम खुद (अहम्) को न सह सको
-
29:28 - 29:32तो यह भी तरक्की है!
-
29:32 - 29:37खुद को समझना ही नहीं, बल्कि
एक बिंदु पर आ कर तुम खुद को सह ही न पाओ। -
29:37 - 29:41यह बहुत बड़ी तरक्की है, दरअसल,
क्योंकि इसका मतलब है -
29:41 - 29:44कि तुम अपने अहम् को कायम नहीं रख पा रहे,
-
29:44 - 29:47वह तुम्हारे लिए असहनीय हो गया है।
-
29:47 - 29:51यह भी आध्यात्मिक प्रगति का निशान है,
-
29:51 - 29:55क्योंकि जब तक
-
29:55 - 30:02यह हमारे अवचेतन मन में छिपा हुआ है,
तब तक तुम इसे पकड़ नहीं पाते, -
30:02 - 30:04और तुम बहुत लम्बे समय तक
इस भ्रम में जी सकते हो -
30:04 - 30:07कि तुम यह व्यक्ति हो
-
30:07 - 30:10और अपने राजा और देश के लिए लड़ते हो ...
-
30:10 - 30:16पर जैसे जैसे तुम अपने सत्य को पहचानने
और अनुभव करने लगते हो, -
30:16 - 30:20तुम्हारी आक्रामकता छूटने लगती है।
-
30:20 - 30:22एक तरह की धीरज उसकी जगह ले लेती है,
-
30:22 - 30:27एक शांति, और एक तरह का ज्ञान
तुम्हारे अंदर प्रकट होने लगता है, -
30:27 - 30:29एक तरह का विस्तार।
-
30:29 - 30:34तुम अपने जीवन में भयभीत या
संकुचित महसूस नहीं रहते। -
30:34 - 30:39सब कुछ अधिक विस्तृत महसूस होता है।
-
30:39 - 30:42पर आख़िरकार, विस्तार का एहसास भी
-
30:42 - 30:47उतना ज़रूरी नहीं है,
क्योंकि आत्मन अनंत है। -
30:47 - 30:50अनंत कहाँ तक फ़ैल सकता है?
-
30:50 - 30:53कुछ है जो इतना उपस्थित है।
-
30:53 - 31:01तुम्हारा अस्तित्व, तुम्हारा जीवन
इस विस्तार में से प्रकट हो रहा है। -
31:01 - 31:04यह बस ...
-
31:08 - 31:13यह मानो असंख्य पहलूओं वाला हीरा है,
-
31:13 - 31:18पर हर एक पहलू के पीछे पूरा हीरा है।
-
31:18 - 31:25हर जीवन मानो इस असंख्य पहलूओं वाले
हीरे का एक पहलू है। -
31:25 - 31:28कोई जीवन बस नाम-मात्र का नहीं है।
-
31:28 - 31:34इस विशाल लीला में हर किसी की
अपनी भूमिका है, तुम्हारे जागने तक। -
31:34 - 31:38जागने के बाद भी तुम्हारी बाहरी अभिव्यक्ति
चलती रहेगी, -
31:38 - 31:43शायद पहले से ज़्यादा भी,
बहुत सुन्दर फल देने के लिये। -
31:43 - 31:48पर तुम्हें अपनी पूर्ण पहचान तक आना होगा,
-
31:48 - 31:54द्वैतवादी पहचान तक नहीं,
बल्कि एक अद्वैत पहचान। -
31:54 - 31:57मतलब, कैसे एक चीज़ ...
-
31:57 - 32:01यह ऐसा है जैसे,
एक हाथ से ताली कैसे बज सकती है? -
32:01 - 32:07एक चीज़ खुद को कैसे पहचान सकती है?
-
32:07 - 32:11मैं एक उदहारण देता हूँ ...
-
32:11 - 32:14यह उदहारण मैं बहुत समय से देता रहा हूँ।
-
32:14 - 32:18एक तेज़ धार की छुरी, कितनी भी तेज़ हो,
कितनी ही चीज़ें काट सकती है, -
32:18 - 32:21पर ख़ुद को नहीं काट सकती। क्यों?
-
32:24 - 32:32या आँखें जो कई रूप देख सकती हैं,
पर ख़ुद को नहीं देख सकतीं। -
32:32 - 32:36या तराज़ू जो कई चीज़ें तोल सकता है
-
32:36 - 32:40पर ख़ुद को नहीं तोल सकता। क्यों?
-
32:40 - 32:43क्योंकि वह ख़ुद से अलग नहीं हो सकता।
-
32:43 - 32:46वह इतना एक है कि ख़ुद को देख नहीं सकता।
-
32:46 - 32:48हम वैसे ही नहीं। हमारा सच्चा स्व एक ही है।
-
32:48 - 32:50तुम अपने स्व को देख नहीं सकते।
-
32:50 - 32:55जो भी तुम देखते हो, जो भी तुम ख़ुद को
मानते हो, वह सिर्फ़ कल्पना है। -
32:55 - 32:57वह केवल सतह है।
-
32:57 - 33:02तुम अपने आत्मन में से देख रहे हो।
-
33:02 - 33:04ये सभी चीज़ें,
-
33:04 - 33:08मेरे पास हर छोटी छोटी चीज़ के लिए
कोई ख़ास अभ्यास नहीं है। -
33:08 - 33:12तुम बड़े से तालाब में बैठे हो
और सभी जगह से गीले हो। -
33:12 - 33:17ऐसा नहीं है कि एक तरफ़ का पानी तुम्हें
आगे से भिगोयेगा और दूसरी तरफ़ का पीछे से। -
33:17 - 33:21तुम उसके तालाब में बैठते हो
और तुम पूरे भीग जाते हो। -
33:21 - 33:24तो मैं ऐसे कह रहा हूँ,
-
33:24 - 33:30कि मैं अगर तुम में से एक से भी बात कर
रहा हूँ, तो भी मैं सभी से कह रहा हूँ! -
33:30 - 33:33सत्संग में तुम्हारा आना,
-
33:33 - 33:36अगर तुम उस तत्परता से आये हो,
तो वह तृप्त होगी। -
33:36 - 33:38होना ही है।
-
33:38 - 33:44अगर तुम अपने तादात्म्य को बचाने की
कोशिश करोगे, तो वह बचा रहेगी। -
33:48 - 33:51पर अगर तुम इस भाव से आते हो कि,
-
33:54 - 33:57'मैं बस एक स्पॉन्ज जैसा हूँ,
-
33:57 - 34:01मेरा हृदय कहता है कि सब कुछ
छोड़ कर यह सब सोख लो', -
34:01 - 34:06तो ऐसे आओ।
-
34:06 - 34:10[प्र. १] पिछले सत्संग में
जब आपने यह प्रश्न पूछा, -
34:10 - 34:13'अगर यह तुम्हारा आख़िरी दिन हो',
-
34:13 - 34:16तब तो यह जलन बहुत तेज़ आ रही थी,
-
34:16 - 34:19मगर बाद में यह ठंडी पड़ गयी।
-
34:19 - 34:22[मूजी] अगर असल में
यह तुम्हारा आख़िरी दिन हो, -
34:22 - 34:26बस आख़िरी पांच मिनट बचे हो,
या कुछ .... -
34:26 - 34:28तो अगर यह तुम्हारा आख़िरी मौका हो,
-
34:28 - 34:32अब कृपया इस प्रश्न के साथ रहो
जो मैं पूछने वाला हूँ, -
34:32 - 34:36अगर सच में ऐसा होता कि
बस घड़ियाँ गिनी जा रही हैं, -
34:36 - 34:38घड़ी चलती जा रही है,
-
34:38 - 34:42तुम पांच मिनट में क्या कर सकते हो?
-
34:42 - 34:46पांच मिनट में इस बारे में
तुम क्या कर सकते हो? -
34:46 - 34:49चार मिनट?
-
34:52 - 34:55तीन मिनट?
-
34:55 - 34:59दो मिनट? तुम दो मिनट में क्या पा सकते हो?
-
34:59 - 35:02एक मिनट में? तीस सेकंड में?
-
35:02 - 35:04दस सेकंड में, तुम क्या पा सकते हो?
-
35:04 - 35:08अगर तुम उसैन बोल्ट हो तो
शायद तुम एक और रिकॉर्ड तोड़ सकते हो। -
35:08 - 35:15पर वाकई क्या तुम वह पा सकते हो
जिसकी हम बात कर रहे हैं? -
35:15 - 35:18और शायद इस तरह की चुनौती बहुत
ताकतवर इसीलिए है, -
35:18 - 35:23क्योंकि तुम्हें अपना शारीरिक काम
छोड़ना ही पड़ता है। -
35:23 - 35:27तुम जो हो, वह होने के लिए
कोई शारीरिक काम नहीं कर सकते। -
35:27 - 35:32यह ऐसे नहीं चलता।
-
35:32 - 35:37तुम्हें किस तकनीक की ज़रूरत है? किसी की नहीं।
-
35:37 - 35:39तो मैं कहूंगा कि, वह सब छोड़ दो!
-
35:39 - 35:44बस छोड़ दो सब कुछ,
क्योंकि वह तुम्हारे काम नहीं आएगा। -
35:44 - 35:47मान लो तुम सब कुछ छोड़ते चल सकते!
-
35:47 - 35:50बस छोड़ दो, मतलब,
किसी चीज़ में शामिल मत होओ। -
35:50 - 35:54अपनी स्वाभाविक आत्मन की अनुभूति को
किसी चीज़ के साथ मिलाओ मत, -
35:54 - 35:57किसी देवी-देवता के साथ भी नहीं।
बस छोड़ दो सब कुछ! -
35:57 - 36:00तुम इसी समय भी यह कर सकते हो।
-
36:00 - 36:03क्या तुम्हें सब कुछ छोड़ने में दस सेकंड भी लगेंगे?
-
36:03 - 36:08बिलकुल खाली हो जाओ।
-
36:08 - 36:12और इंतज़ार मत करो। पूरी तरह से खाली हो जाओ।
-
36:17 - 36:21[मूजी] जो छोड़ रहा है, उसे भी छोड़ दो।
-
36:23 - 36:26[मूजी] सच में, ऐसा करो!
-
36:28 - 36:32और अब जहाँ तुम हो वहाँ से बोलो।
-
36:32 - 36:36क्या तुम समय में हो?
-
36:41 - 36:44नहीं। तुम्हें करना पड़ेगा!
-
36:44 - 36:46अगर तुम अपने सभी रिश्ते,
-
36:46 - 36:51वे भी जो तुम्हारे लिए बहुत कीमती हैं,
अगर अभी दस सेकंड में सभी छोड़ दो। -
36:51 - 36:54शायद तुम में से कुछ घर से दूर जा रहे हैं,
-
36:54 - 36:56अगर तुम्हारे पास दस मिनट होते,
-
36:56 - 37:00बस दस सेकंड, ठीक फ़ोन करने का भी
समय नहीं है कि, -
37:00 - 37:04'अलविदा,अलविदा, प्रिये। मैं जा रहा हूँ।'
क्या तुम यह सह सकते हो? -
37:04 - 37:08तो, सब कुछ जा रहा है।
तब तो सब कुछ छोड़ दो। -
37:08 - 37:12हर संबंध, हर इच्छा, सब कुछ।
-
37:12 - 37:16अगर इसी पल सब कुछ छोड़ दो,
-
37:16 - 37:19तो क्या बाकी रह गया,
जो छोड़ा नहीं जा सकता? -
37:24 - 37:30क्योंकि अगर तुम सब कुछ छोड़ दो,
तब भी तुम हो! -
37:30 - 37:34क्या तुम अपने को छोड़ सकते हो?
-
37:34 - 37:37मैं तुम्हारे व्यक्ति-भाव या स्मृति की
बात नहीं कर रहा, -
37:37 - 37:40या तुम्हारे बीते अनुभवों की स्मृति की।
-
37:40 - 37:45मैं अतीत की बात नहीं कर रहा,
उसे छोड़ दो, वैसे भी वह बीत गया! -
37:45 - 37:49सिर्फ़ यादों और भावनाओं की वजह से
तुम्हारे अंदर वह अभी भी चल रहा है। -
37:49 - 37:53वह बीत गया, इसी लिए वह अतीत कहलाता है।
वह चला गया। -
37:53 - 37:55तो छोड़ो, सब कुछ छोड़ दो।
-
37:58 - 38:00और इसे कोई तकनीक मत कहो।
-
38:00 - 38:07बस सब कुछ छोड़ दो और वहाँ से मुझे बयां करो।
अब यहाँ क्या है? -
38:07 - 38:12और क्या तुमने इसे बनाया है, जो भी रह गया,
-
38:12 - 38:18वह तुम्हारी कोशिश से अछूता है,
-
38:18 - 38:22जिसे भी तुम ज़िन्दगी कहते हो
वह उससे अछूता है। -
38:22 - 38:24कोशिश कर के देखो।
-
38:27 - 38:30और क्या यह कोई कामयाबी है?
किसकी कामयाबी? -
38:32 - 38:34क्योंकि अगर तुम सब कुछ छोड़ दो,
-
38:34 - 38:40तो जो छोड़ने में कामयाब होने वाला है,
वह भी छूट जाता है। -
38:40 - 38:44तो क्या बाकी रह गया?
-
38:46 - 38:50मैं तुम्हारी बुद्धि से नहीं पूछ रहा।
-
38:55 - 39:04तो, जो बाकी रहा,
क्या वह एक मानसिक स्थिति है? -
39:04 - 39:07क्या बाकी रहा?
क्या वह एक मानसिक स्थिति है? -
39:07 - 39:11[संघ] नहीं।
[मूजी] नहीं! -
39:11 - 39:15क्या उसकी कोई जन्म तिथि या राशि है?
-
39:15 - 39:21क्या उसके ग्रह हैं?
-
39:21 - 39:26वह तुम्हारा स्व है!
-
39:32 - 39:35यही हमारा खेल है।
-
39:35 - 39:38यह हमारा खेल है, यह और यह और यह,
-
39:38 - 39:42सभी चीज़ें जो तुम्हारे लिए कीमती हैं।
-
39:42 - 39:47वे अधिकतर बीत गयीं,
सिर्फ़ यादों में बाकी हैं। -
39:47 - 39:53क्या तुम इस पल में कल का नमूना
वापस ला सकते हो? वह सब चला गया। -
39:53 - 40:01और क़िस्मत से, शुक्र है कि
तुम कह सकते हो कि बातें बीत जाती हैं, -
40:01 - 40:07तुम्हें वे हटानी नहीं पड़तीं,
वे ख़ुद ही बीत जाती हैं। -
40:07 - 40:15सब कुछ गुज़र जाता है।
सिवाय एक चीज़ के। -
40:15 - 40:19ढूंढो वह क्या है जो बीतता नहीं,
-
40:19 - 40:23और तुम अपनी मुक्ति जीत लोगे!
-
40:26 - 40:31उसे खोजो जो बीतता नहीं,
-
40:31 - 40:38जो समय के असर में नहीं है।
-
40:38 - 40:41और वह कहाँ है?
वह कहाँ स्थित है? -
40:41 - 40:44वह कहाँ है जिसकी मैं बात कर रहा हूँ?
-
40:44 - 40:48वह ठीक ठीक कहाँ है?
-
40:48 - 40:51तुम्हारी इसकी और उसकी सभी बातें,
और तुम्हारे सभी ध्यान समाधि, -
40:51 - 40:59केवल चेतना की रंगभूमि में हैं,
क्षणिक और अस्थायी। -
40:59 - 41:08उसे ढूंढो जो कोई कहानी नहीं रखता,
न कोई कहानी, न इतिहास। -
41:08 - 41:11तुम्हें कितनी दूर जाना होगा?
-
41:11 - 41:17और जब तुम्हारा पहला कदम उठेगा,
तो तुम किस दिशा में जाओगे? -
41:21 - 41:29तो यह कुछ ऐसा होना चाहिए
जो वास्तव में तुम्हारी चेतना को कटोचे, -
41:29 - 41:34इतना कि, तुम्हें जा कर इस पर मनन करना पड़े,
-
41:34 - 41:37और तुम अपना ध्यान बस इस पर लगाओ
और इसी के साथ रहो, -
41:37 - 41:41क्योंकि आज यही तुम्हारी खुश-किस्मती है!
-
41:47 - 41:49जैसे जैसे तुम इसे खोजने लगोगे,
-
41:49 - 41:54कुछ समय के लिए तुम्हारे अंदर किसी और
चीज़ के लिए जगह नहीं रहेगी। -
41:54 - 41:58इसमें डूबे रहो।
-
41:58 - 42:02यह तुम्हारा द्वैतभाव सोख लेगा।
-
42:02 - 42:08मेरे शब्दों से डरने की कोई ज़रूरत नहीं है।
-
42:08 - 42:12और उसके बाद जब तुम स्वाभाविक
काम-काज करने लगोगे, -
42:12 - 42:16तुम पाओगे कि तुम्हारे काम मानो
पवन गति से हो रहे हैं, -
42:16 - 42:19कुछ ऐसा है ...
-
42:19 - 42:22तुम्हारा विवेक इतना बढ़ जाएगा,
-
42:22 - 42:26कि पहले के जो काम और विचार,
-
42:26 - 42:32जो बस वक़्त बर्बाद कर रहे थे और मन पर
बोझ थे, वे ख़तम हो जायेंगे। -
42:35 - 42:42तुम जीवन जी रहे नहीं होगे।
तुम ख़ुद ही जीवन हो! -
42:42 - 42:50और इसका प्रवाह तुम्हारे अपने
अस्तित्व में दिखाई देता है। -
42:50 - 42:53ये बातें किसी किताब में नहीं
लिखी जा सकतीं। -
42:53 - 42:58उसकी ज़रूरत नहीं है।
तुम्हें कुछ भी याद रखने की ज़रूरत नहीं है, -
42:58 - 43:01जब तक वह इतना ही ज़रूरी न हो
-
43:01 - 43:05कि जब तुम उसे याद करो,
तो सब कुछ उसमें समाया हो। -
43:10 - 43:12हालाँकि लगता है कि मेरा ध्यान
तुम पर केंद्रित है, -
43:12 - 43:15पर दरअसल यह बात मैं आप सबसे कर रहा हूँ।
-
43:15 - 43:18हमें अलग से उत्तर की ज़रूरत नहीं होनी चाहिये।
-
43:18 - 43:22मुझे नहीं लगता अब इसके लिए वक़्त बचा है।
पर क्या यह कीमती है या नहीं? -
43:22 - 43:27[संघ] हाँ।
[प्र १] बहुत बहुत धन्यवाद। -
43:27 - 43:30[मूजी] हाँ, यह बहुत कीमती है,
-
43:30 - 43:37क्योंकि हो सकता है कि कुछ समय के लिए
हम अपने सही स्वरूप से अनजान जी रहे हों, -
43:37 - 43:42और ज़्यादातर लगता है कि ऐसा इसीलिए कर
रहे हैं, क्योंकि हम कर सकते हैं। -
43:42 - 43:45क्योंकि अहंकार भी चेतना है,
उसका भी जीवन है, -
43:45 - 43:48और उसमें खटास भी है और मिठास भी,
-
43:48 - 43:52और वह काफ़ी है यह समझने के लिये,
'यह बुरा नहीं है! मुझे मैं होना बहुत पसंद है।' -
43:52 - 43:55और तुम्हें इसका पूरा हक़ है,
-
43:55 - 43:59आज़ाद होने की आज़ादी,
और बंधने की आज़ादी। यह कुछ ऐसा है। -
43:59 - 44:02और इसके बारे में कोई
आलोचना या निंदा नहीं है। -
44:02 - 44:07पर जैसे ही, जीवन की कृपा से,
-
44:07 - 44:10फ़िर किसी भी रूप या तरीके
से ये तुम्हारे पास आये, -
44:10 - 44:14तुम्हारा ध्यान मुड़ जाए, और तुम्हारे अंदर
और गहराई में जाने की इच्छा जागे, -
44:14 - 44:19तो ज़िन्दगी उसे तृप्त करती है।
-
44:19 - 44:21हो सकता है तुम्हारे भीतर से कुछ आये,
-
44:21 - 44:24एक आदत जो किसी न किसी तरह
हम सब ने विरासत में ली है, -
44:24 - 44:29अपनी ही आज़ादी के ख़िलाफ़ काम करने की।
-
44:29 - 44:33अंदर एक ऊर्जा है
जो इस मुक्ति के विरुद्ध काम कर रही है, -
44:33 - 44:38पर सिर्फ़ तब तक जब तक तुम
अपने अंदर व्यक्ति-भाव जगाये रखते हो। -
44:38 - 44:42जैसे ही उसकी जकड़ टूटती है,
-
44:42 - 44:47तुम्हारे अंदर मुक्ति के
कोई विरोधी नहीं बचते। -
44:47 - 44:51वही अहम् जो खुद को बचाने की कोशिश करता है,
-
44:51 - 44:55और जो तुम सोचते हो कि तुम बचा रहे हो,
-
44:55 - 44:57वही चीज़ जिससे तुम चिपके
रहने का प्रयास कर रहे हो, -
44:57 - 45:01तुम्हें उसी के पार जाना है,
और उसी को छोड़ना है। -
45:01 - 45:05पर इसका एहसास हमें धीरे धीरे होता है।
-
45:05 - 45:09और यह भी कि तुम इतने कृपा की बाहों में हो।
-
45:09 - 45:13ऐसा मत सोचो, 'ओह, मैं और मेरी थोड़ी सी
शक्ति यह नहीं कर पायेंगे।' -
45:13 - 45:17यह सच है कि तुम और तुम्हारी थोड़ी सी शक्ति
यह नहीं कर सकते। [हँसी] -
45:19 - 45:26रूमी कहते हैं, 'जो मुझे यहाँ तक लाया है,
उसे ही मुझ को घर तक ले जाना पड़ेगा।' -
45:26 - 45:32कौन है जो तुम्हें यहाँ तक लाया?
-
45:32 - 45:37वही कृपा तुम्हें घर बुला रही है।
-
45:37 - 45:43और घर है कहाँ?
किस दिशा में है घर? -
45:43 - 45:48तुम और घर एक ही चीज़ हो!
-
45:48 - 45:51तुम और घर एक ही चीज़ हो।
-
45:51 - 45:55जब तक तुम्हें इसका एहसास नहीं होता,
तुम्हारा घर ईंट-पत्थर ही रहेगा। -
45:55 - 45:59वह एक जगह होगी।
-
45:59 - 46:04और जीवन, ईश्वर भी,
हमारे सभी आधुनिक रास्ते इस्तेमाल कर रहा है -
46:04 - 46:06हमें महान उपमाएँ सिखाने के लिए।
-
46:06 - 46:08जैसे एक समय था,
-
46:08 - 46:11जब तुम्हारा पता
कुछ ईंट-पत्थरों का बना हुआ था, -
46:11 - 46:14और उसमें दरवाज़ा और खिड़कियाँ होती थीं।
-
46:14 - 46:18अब तुम्हारा पता इंटरनेट भी हो सकता है।
तुम्हारा ईमेल एड्रेस हो सकता है। -
46:18 - 46:22कहते हैं, 'ज़रूरी नहीं पता ऐसा कुछ हो'।
-
46:22 - 46:26तो कहाँ है तुम्हारा पता?
यही तुम्हारा पता है। -
46:26 - 46:30अगर तुम यह शरीर देख पा रहे हो,
तो शायद में इस में हूँ। [हँसी] -
46:30 - 46:33वही तुम्हारा पता है!
-
46:33 - 46:36जब तुम नज़दीक आते हो, और फिर इसके बाद,
-
46:36 - 46:40तुम कुछ ऐसा पाते हो
जिसके बारे में तुम बोल नहीं सकते। -
46:40 - 46:44तुम उसके बारे में बोल नहीं सकते।
-
46:44 - 46:49और वह तुम्हें इस दुनिया में
अपंग नहीं बना देगा! -
46:49 - 46:52कभी कभी मन ही यह खेल खेलता है,
-
46:52 - 46:55'अगर तुम इसके आगे जाओगे,
तो तुम सब कुछ खो दोगे। -
46:55 - 47:00तुम गली में भिखारी बन कर रह जाओगे।
कोई तुम्हें नहीं पहचानेगा। -
47:00 - 47:04तुम अकेले रह जाओगे, क्योंकि
एक बुद्ध से कौन शादी करना चाहता है ...' -
47:04 - 47:08और यह बहुत से लोगों को फँसा लेता है।
-
47:08 - 47:11पर मुक्ति इस तरह से प्रतिबंधित नहीं है।
-
47:11 - 47:16बाहरी चीज़ें हमारी विरोधी नहीं हैं।
-
47:16 - 47:20यह पूरा जीवन अपनी अभिव्यक्ति में
इतना शानदार है। -
47:20 - 47:24वह हमारा स्वाभाविक शत्रु नहीं है।
-
47:24 - 47:28बल्कि इसको देखने में हम बहुत ही आनंद
देख और प्राप्त कर सकते हैं। -
47:28 - 47:33शत्रु तो अंदर है, कुछ समय तक
वह हमारे सोचने के तरीके में है, -
47:33 - 47:38और मुख्यत: हमारे व्यक्तिगत तादात्म्य में।
-
47:38 - 47:43सब कुछ इस तादात्म्य पर आ कर रुक जाता है,
-
47:47 - 47:50जो तुम्हें केवल व्यक्ति-भाव में छोड़ देता है।
-
47:50 - 47:55और सारा ही संसार
व्यक्ति-भाव के ज़हर से पीड़ित है, -
47:55 - 48:00बहुत ज़्यादा व्यक्ति-भाव,
और उपस्थित-भाव उतना नहीं। -
48:03 - 48:07तो, अब मुझे जाना होगा।
और अभी के लिए इतना काफ़ी है? -
48:07 - 48:10[संघ] हाँ।
[मूजी] धन्यवाद। -
48:10 - 48:14[संघ से धीमी आवाज़]
-
48:14 - 48:18[मूजी] ज़रूर! आओ, आओ।
-
48:27 - 48:34[मूजी] ग्रेज़ी, ग्रेज़ी। (इटालियन में धन्यवाद)
तुम्हारा भी जन्मदिन है? -
48:34 - 48:37अच्छा, जन्मदिन की शुभकामनाएं!
-
48:52 - 48:54[प्रश्नकर्ता २ इटालियन में बोलती है]
-
48:54 - 49:00[म.] सी, बेनवेनुतो। (इटालियन में वेलकम)
[हँसी] -
49:03 - 49:07कॉपीराइट © 2018 मूजी मीडिया लि.
सर्वाधिकार आरक्षित। -
49:07 - 49:10इस रिकॉर्डिंग का कोई भाग
पुनः प्रस्तुत नहीं किया जा सकता -
49:10 - 49:14मूजी मीडिया लि. की
प्रत्यक्ष अनुमति के बिना।
- Title:
- तुम और घर एक ही चीज़ हो
- Description:
-
मूजी के साथ सत्संग
मोंटे सहजा में अतिथि दर्शन के समय मूजी बाबा एक सहज बैठक के लिए संघ को इकट्ठे बुलाते हैं। निमंत्रण के अपने अनुभव पर चिंतन करते हुए, एक प्रश्नकर्ता कहता है कि उसे अभी भी 'जो है' भाव में ज़्यादा गहरे उतरने की ज़रूरत महसूस होती है।
मूजी बाबा इशारा करते हैं कि जब तक व्यक्तिगत 'मैं' का भाव कायम है, अपने और 'जो है' के बीच यह द्वैतभाव कायम रहेगा। धीरे धीरे तुम यह देखने लगते हो कि 'जो है' के अंदर आने और बाहर जाने का एहसास भी, एक गहराई की जगह से देखा जा सकता है।
इस निमंत्रण की ख़ूबसूरती यह है कि अंत में जब तुम निमंत्रण सुन चुके हो, तब तुम कौन हो? क्या रह गया? क्या है वहां? एक अच्छे अनुभव वाला एक व्यक्ति? ऐसा हो सकता है, पर मुझे उम्मीद है कि तुम यह देखने लगोगे कि जो तुम हो उसे कोई परिभाषा बाँध नहीं सकती, उसकी कोई सीमा, कोई हद नहीं है।
रूमी कहते हैं, जो मुझे यहाँ तक लाया है, उसे ही मुझ को घर तक ले जाना पड़ेगा।' कौन है जो तुम्हें यहाँ तक लाया? वही कृपा तुम्हें घर बुला रही है। घर है कहाँ? घर किस दिशा में है? तुम और घर एक ही चीज़ हो।
~
१० सितम्बर, २०१८
मोंटे सहजा, पुर्तगाल
आप 'एक निमंत्रण मुक्ति कि ओर' https://mooji.tv/invitation पर देख सकते हैं और अपने आत्म-विचार में मदद के लिए और भी साधन यहाँ पा सकते हैं।यह और कई और वीडियो Mooji.TV पर देखे जा सकते हैं
http://bit.ly/moojitv
और
http://bit.ly/sahaja-express#Mooji #satsang #spirituality #advaita #nonduality #awakening
- Video Language:
- English
- Duration:
- 49:19
Dr Pratik Akhani edited Hindi subtitles for Home and You Are the Same Thing | ||
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Sonam Aparna edited Hindi subtitles for Home and You Are the Same Thing | ||
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