[संगीत] तुम और घर एक ही चीज़ हो (उपशीर्षक सहित) 10-09-2018 [मूजी] ॐ। नमस्ते। सभी का स्वागत है। इतने कम समय में, यहाँ आने के लिए धन्यवाद। मैं यहाँ कई नए चेहरे देख रहा हूँ जिन्हें मैं शायद पहले नहीं मिला। तो आप सभी का स्वागत है। और मुझे उम्मीद है कि आप अपनी अपनी जगह ढूंढ पा रहे हैं, अगर आप मेरा मतलब समझें तो, यहाँ मोंटे सहजा में थोड़े सहज हो रहे हैं। तो, मैं यहाँ हूँ। अगर कोई सवाल हैं तो मैं उनके लिये उपलब्ध हूँ। क्या कोई पूछना चाहता है? और देखते हैं हम कहाँ तक पहुँचते हैं। ठीक है, तुम यहाँ शुरुआत कर सकते हो। हमारे पास एक [माइक है]। अभी आ रहा है। [प्रश्नकर्ता १] धन्यवाद प्रिय मूजी। आखिरकार, पांच महीने के बाद मुझे एक सवाल मिल ही गया। [मूजी] पांच महीने के बाद मिला? [प्र. १] उम्मीद है कि अच्छा हो। [मूजी] चलो देखते हैं। [हँसी] [प्र.१] यह निमंत्रण भी क्या उपहार है। मैं सच में यह विस्तार महसूस कर पाता हूँ। सच में यह खुलापन महसूस कर पाता हूँ। पर हर बार मैं यह शरीर भी महसूस करता हूँ। मेरे लिये इसे छोड़ पाना सबसे मुश्किल काम है। तो मैंने यह पूछने की कोशिश की, 'क्या मैं अपना हाथ हूँ?' और मैंने पुष्टि की, कि नहीं, 'मैं अपना हाथ नहीं हूँ।' मैंने अपने शरीर और मन को जांचा, 'नहीं, मैं अपना मन नहीं हूँ'। यह सच है। पर जब मैं हृदय पर आता हूँ, 'क्या मैं अपना दिल हूँ?' तब वह इतना स्पष्ट नहीं होता। [मूजी] वह दिल नहीं। [प्र.१] शारीरिक दिल नहीं। [प्र.१] पर वह 'मैं' जैसा लगता है, जो मैं हूँ, ऐसा लगता है कि वह यहाँ अंदर भी है। [मूजी] हाँ। हाँ। बेशक वह वहाँ अंदर भी है। [प्र.१] हाँ। [हँसी] पर वह ऐसा है जैसे.... [मू.] क्या वह सिर्फ़ तुम्हारी उँगलियों के छोर तक और तुम्हारे सर के ऊपर तक है? [मूजी] क्या वह पूरे नाप का, सिकुड़ा हुआ है? [प्र.१] दरअसल नहीं। [मूजी] क्या तुम्हें यह एहसास है, जब हम इसके बारे में बात करते हैं ... तुम उस प्रश्न को कैसे लेते हो, 'क्या उसका कोई रूप है?' [प्र.१] यह स्पष्ट है कि वह निराकार है। पर मुझे हमेशा लगता है, 'मैं तो अभी भी यह व्यक्ति हूँ', या यह संबंध महसूस होता है। [मूजी] उससे छुटकारा पाने की कोई ज़रूरत नहीं। वह इतना कड़ा अनुकूलन है जो हम अपने अभिव्यक्त जीवन में अनुभव करते हैं। हम यहाँ भी हैं और इस शरीर में काम कर रहे हैं पर यह एक ऐसा अनुकूलन है जिसे हमने माना हुआ है। लगभग कोई भी इस पर सवाल नहीं उठाता। तो, अगर तुम किसी चीज़ पर सवाल न उठाओ, तो मान लिया जाता है कि यह एक सच है, जिस पर कोई विवाद नहीं है। तो अगर यही एकमात्र सच होता कि तुम बस अपना शरीर और मन ही हो, और उसके आगे कुछ भी नहीं है, तो अधिकतर लोगों के लिए यह काफ़ी होता। उनका यही मानना है कि जो है यही है, तुम्हारी शारीरिक पहचान, और यह कि तुम देख रहे हो। तुम्हारी इन्द्रियां हैं और कुछ है जो इन मन और इन्द्रियों के माध्यम से देख रहा है, अनुभव कर रहा है। मन के लिये यही काफ़ी है। यह काफ़ी क्यों नहीं है? क्यों यह काफ़ी नहीं है? अगर आत्मा नाम की कोई चीज़ न होती, या स्व-आत्मन्, या विशुद्ध चैतन्य, तो क्यों वह काफ़ी न होता कि तुम सिर्फ़ अपने बारे में माना गया अपना एक ख़याल होते? जो वैसे भी बदलता रहता है, जैसे अपनी हमेशा बदलती हुई ख़ुद की एक तस्वीर। तो वह हमेशा नहीं रहता। और शरीर भी हमेशा नहीं रहता। यह वह शरीर नहीं है जिसे तुम्हारी मां ने जन्म दिया था। तो, यह भी बदल रहा है। सब कुछ बदल रहा है। तो, अगर सब कुछ बदल रहा है और यह चीज़ों का स्वभाव है कि वे बदलेंगी ही, जो भी है, सब बदल रहा है। तो हम क्या कर सकते हैं? ऐसा ही तो है। और ऐसा लगता है कि सभी के लिए ऐसा ही है। तुम्हारा जीवन है, तुम जीवन जीते हो, और अंत में ... क्योंकि जीवन का एक अंत है, जैसे जीवन की शुरुआत है, हम सोचते हैं, कि हमारा अस्तित्व तब होता है जब हमारा शरीर पैदा होता है। हम कहते हैं कि वह तुम्हारा पहला दिन है और एक आखरी दिन भी होगा। और उसके बाद? उसके बाद कुछ नहीं। मान लो ऐसा ही है, या इसके दौरान भी, तन-मन के चलन के सिवा और कुछ नहीं है। क्या तुम्हारे लिए ऐसा है? तुमने यह पाया है क्या ? तो इस निमंत्रण की कोई ज़रूरत ही न होती, वह तुम्हारे अपने विश्वास के अलावा कुछ भी उजागर न करता, कि तुम शरीर हो, और अनुकूलन हो या वह परिवेश जो इस शारीरिक अभिव्यक्ति के लिए पैदा हुआ। [प्र. १] मुझे लगता है... जब मैं छोटा था तब मुझे यह पता था कि जब मैं मर जाऊंगा तब भी यहीं रहूँगा। सच में मुझे ऐसा लगता है। पर पता नहीं, शायद मुझे कुछ ज़्यादा ही उम्म्मीद है। [मूजी] मुझे बताओ, तुम्हें ऐसी क्या ज़्यादा उम्मीद है? [प्र.१] शायद मुझे उम्मीद है कि जब मैं उसके साथ रहता हूँ तब इससे ज़्यादा कुछ होना चाहिए। [मूजी] और 'यह' क्या है? 'इस से ज़्यादा कुछ।' बस देखें हम क्या बात कर रहे हैं, 'इस से ज़्यादा कुछ होना चाहिए।' तो इस वक़्त, 'यह' क्या दर्शाता है? [प्र.१] ऐसा लगता है कि मुझे इसमें ज़्यादा स्थापित होना है। मानो कुछ है जो पकड़े हुए है ... [मूजी] तुम्हारी सभी बातें उस पर आधारित हैं कि वह जो स्व को पायेगा, उसे कुछ होना चाहिए। इसमें स्व के बारे में कुछ नहीं है। यह उसके बारे में है जो अनुभव करेगा, जैसे कोई है जो स्व का अनुभव करेगा और सोचेगा, 'हाँ, आख़िरकार मैंने पा ही लिया!' और अगर यह नया नया पाया गया है तो यह खो भी सकता है। अगर यह तुमने कुछ नया पाया है तो हो सकता है तुम्हें लगे, 'आह! मुझे ध्यान रखना पड़ेगा कि मैं इसे खो न दूँ!' और यह सब इसलिए आता है क्योंकि जो तुम ख़ुद को समझते हो उस 'मैं' भाव में तुम्हें पक्का विश्वास है, जो स्व को खोज रहा है। अभी तक यह समझ में नहीं आया कि यह 'मैं' ही व्यक्ति-भाव से छूट जायेगा, और तुम पाओगे कि यह 'मैं' आत्मन ही है! पर जब तक स्मृति है, आदतें हैं, वासनाएँ है, इच्छाएँ और आसक्तियाँ हैं, तब तक यह तुम्हारा ख़ुद को व्यक्ति मानने को कायम रखेगा और मज़बूत करेगा। और वह व्यक्ति जो परम-तत्व को खोज रहा है, ख़ुद ही लड़खड़ा रहा है, क्योंकि प्रबोधन या मोक्ष व्यक्ति के लिए नहीं होता, वह व्यक्ति से छूट कर होता है! यह अजीब बात लगती है, क्योंकि हमारा विश्वास है, 'मैंने खोज की है और मैं बेहतर हो गया हूँ, मैं ज़्यादा देर तक ध्यान में बैठ पाता हूँ। मैं देख रहा हूँ कि मैं पहले से ज़्यादा शांत हूँ। मैं जीवन में ज़्यादा शांत रहने लगा हूँ, पर अभी भी मुझे वह 'बड़ी वाली' चीज़ पानी है। जो कुछ कुछ ऐसा है, 'हाँ! चैतन्य में मज़बूती से स्थापित होना ताकि आगे कोई ग़लतियाँ न हों, आगे और कष्ट न हों।' तो अभी भी ऐसी इच्छा है कि यह व्यक्ति सबसे ऊँचा ईनाम पा ले ताकि इसे और कष्ट न उठाने पड़ें। यह बहुत छोटी सी बात है पर वास्तव में यह ऐसा नहीं है। इस निमंत्रण की ख़ूबसूरती यह है कि अंत में, जब तुम निमंत्रण को सुन चुके, या किताब पढ़ कर रख चुके, तब मैं पूछता हूँ, तुम कौन हो? इस निमंत्रण के अंत में क्या रह जाता है? क्या बचा है वहाँ? [मूजी] एक अच्छे अनुभव वाला व्यक्ति? [प्र. १] नहीं। पर हो सकता है, अभी भी लगता है कि, 'वाह, यह बहुत बढ़िया था! क्या हम इसे दोबारा कर सकते हैं?' लेकिन, यदि ईमानदारी से तुमने इसका अनुसरण किया है, तो मुझे उम्मीद है कि तुम यह देख पाओगे कि तुम्हें यह तो मालुम है कि तुम हो, लेकिन उसके इर्द-गिर्द कोई परिभाषा नहीं है, कोई हद या सीमा नहीं है। जबकि पहले, व्यक्ति-भाव में, हमारे पास कई संदर्भ होते थे कि मैं कौन हूँ। तुम एक ख़ास संदर्भ में हो और यह समझने के लिये कि तुम कौन हो, तुम उस पर जाते हो। होने के एहसास में क्या वह सीमित तादात्म्य कायम है? अब मैं सभी से पूछ रहा हूँ, इस निमंत्रण के अंत में, व्यक्ति का यह एहसास कि यह 'मैं' हूँ जिसने यह किया है, 'उम्मीद है यह काम करेगा। अरे वाह! मैं सच में सब कुछ अर्पण कर रहा हूँ ...' क्या इस निमंत्रण के बाद यह बचा है जो कहता है, 'वाह, सच में बहुत अच्छा हुआ कि मैंने यह अनुभव किया'? सच कहो, क्या यह है जो बचा है? या ... जो पाया है उसकी अपरिभाषित-ता जानने के बावजूद, इसका मतलब यह नहीं कि व्यक्ति-भाव पूरी तरह से ख़त्म हो गया। बेशक उस क्षण से, वह समझने का पल है इसलिए हो सकता है ऐसा लगे, 'वाह! यह अद्भुत है!' पर व्यक्ति-भाव उस पल में उस दृष्टि की शक्ति को नहीं झेल सकता, तो वह पीछे हट जाता है, पर अगर वह पूरी तरह जल नहीं गया तो धीरे धीरे वापस आ जाता है। और जलने का मतलब होगा कि तुम, अपने ध्यान के माध्यम से काफी हद तक अपनी ख़ोज में रहोगे और मन-संसार से या व्यक्ति-भाव के जीवन कि अभिव्यक्ति से तादात्म्य बनाने में ज़्यादा कोई दिलचस्पी नहीं रह जाएगी। व्यक्ति-भाव कोई गलती नहीं है, वह बस एक सीमितता है। है वह भी चेतना ही, पर वह एक ऐसी सीमितता है जिसे तुम तभी देखोगे जब तुम अपनी असीमता देखने लगोगे। तब तुम व्यक्ति-भाव की परिसीमा देख पाओगे। और कुछ समय के लिए मन डोलेगा। किसी न किसी तरह ध्यान उस विशुद्ध समरसता की तरफ जायेगा और तुम ख़ुद को पूरी तरह से अपने स्वरुप में महसूस करोगे। पर वह दोबारा अपनी पुरानी तादात्म्य की आदत में झूल जायेगा और फिर से तुम्हें लगेगा, 'हे भगवान, नहीं, मैंने नहीं पाया। मैं तो बिलकुल खो गया हूँ। हे भगवान, मैं इसमें से कैसे निकलूं?' और वह फिर झूलेगा और तुम्हें लगेगा, 'हलिलुय! ओह, मैंने इस पर शक़ भी कैसे किया? मैं इस पर कैसे शक़ कर सका? यह तो इतना उत्तम है। उत्तम है। ओह, मैं समझ गया, बेशक़ यह कभी फीका नहीं पड़ता! मूजी, यह फीका नहीं पड़ता, यह फीका नहीं पड़ता!' और वह फिर झूलता है, 'हे भगवान! यह कब ख़तम होगा?' जब तक कि एक बिंदु पर, अचानक कुछ समझ आ जाता है, कि वे दोनों चरम ऐसी जगह से दिख रहे हैं जो खुद झूल नहीं रही। यही इसका स्वाभाविक, तुम कह सकते हो, विकास या परिपक्वता है। पर इससे बस जुड़े रहना है। तुम कुछ पाते हो, और मन आ कर कह देता है, 'इसका मैं क्या करूँ? इसका क्या फ़ायदा? मैं कैसे यहाँ रह सकता हूँ? कैसे मैं इसे खो न दूँ?' जैसे इस पर उसका अधिकार हो। और मन की चालाकी को पकड़ने के लिए तुम्हें बहुत चौकन्ना रहना पड़ेगा। पर मैं तुम्हें कह रहा हूँ कि तुम अपने मन की भ्रम पैदा करे वाली शक्ति से कही ज़्यादा बड़े हो। तुम इस मानसिक आवाज़ के बिना रह सकते हो, पर वह तुम्हारे बिना नहीं रह सकती। तो तुम्हें तय करना है कि बेहतर क्या है, क्योंकि थोड़ी देर के लिये तुम देखोगे कि यह मानसिक व्यवहार, यह अनुकूलन, एक परजीवी की तरह है जो जीता किस पर है? शुद्ध आत्मन पर? नहीं। यह उस विचार पर जीता है जो तुम अपने बारे में रखते हो। हमें अभी तक पक्का विश्वास नहीं है कि तुम केवल चैतन्य हो। यह केवल आस्था नहीं है। जब मैं दृढ विश्वास कहूं, तो यह महज़ विश्वास से ऊपर है, यह अभी तक तुम्हारी अनुभव के आधार पर पुष्टि नहीं है कि तुम चैतन्य हो। अभी भी लगता है कि यह आगे है जिसके लिए प्रयत्न करना है। तो जब तक यह दूरी है, तुम व्यापार के लिए उपलब्ध हो और मन बार बार आता रहेगा। अब मुझे इसका कुछ अंदाज़ा है, और मुझे लगता है यह काफ़ी अच्छा है, क्योंकि वे भी जो कहते हैं, "मेरा मन मेरी जान ले रहा है। यह लगा रहता है! कभी हार नहीं मानता। कभी छुट्टी पर नहीं जाता ...' मन अपना काम भली-भांति करता है। तुम इसे कैसे हरा सकते हो? यह भावना ऐसे आती है। और मैं कहता हूँ, 'पहले तो, उससे लड़ो मत। उससे मत लड़ो। मन किससे बात कर रहा है? मन किस से बात कर रहा है? अगर हम जीसस क्राइस्ट जैसे गुरु का उदाहरण लें, या पैग़म्बर का, या भगवान राम, या भगवान कृष्ण, तो उनसे मन कैसे बोलेगा? हम जानते हैं,और हमने सुना है कि ईसा मसीह के प्रलोभन में, और बुद्धा का भी, एक जैसी कहानियों में, कि कैसे शुरू में, उनका आध्यात्मिक उपदेश शुरू होने से एकदम पहले, उन्होंने मन के बहुत से प्रश्न और आक्रमण झेले, जैसे मसीह का प्रलोभन आदि। तुम्हें कैसे लुभाया जा सकता है अगर तुम लोभित नहीं हो सकते? तो किसी न किसी बिंदु पर, कुछ तो रहा होगा, एक खेल, एक दृश्य जो अभी खेला जाना था असली लीला समझने के लिए, एक मिथ्या शत्रु, बोलने के लिए, उसका वास्तव में अनुभव करने के लिए और स्पष्ट दृष्टि से उससे लड़ने के लिए और तुम पर उसका मनोवैज्ञानिक असर ख़तम करने के लिए। सिर्फ़ तभी उनका उपदेश शुरू हो पाया। और वह वैसे ही रूप में आएगा, जैसा इस शरीर को पहननेवाली चेतना को अनुभव करने की ज़रूरत है। कई बार कुछ लक्षण, कुछ झुकाव, या छिपी हुई आदतें, जिन्हें वासना या संस्कार कहा जाता है, जब वे बढ़ जाते हैं तो मानो वे अस्तित्व को बंधक बना लेते हैं। क्या तुम समझ रहे हो मैं क्या कह रहा हूँ? तो जब वे बढ़ते हैं, तब बहुत संभावना है कि तुम व्यक्तिगत तादात्म्य जोड़ लो, इन ताकतों की वजह से। तो जब वे आती हैं तब मानो तुम सबसे ज़्यादा कमज़ोर होते हो। लेकिन कभी कभी, तुम्हारी सबसे ज़्यादा कमज़ोरी के बिंदु पर, सबसे ज़्यादा कमज़ोरी, उसके दूसरी तरफ़ तुम्हारी सबसे बड़ी ताकत है, जो तुमने पहचानी नहीं है। कभी कभी,जो भी तुम अपना समझते हो तुम्हें वह सब कुछ गवांना पड़ता है उसे पाने के लिये जो किसी का नहीं हो सकता, उसे पाने के लिये। तो यह खेल इतना जटिल चल रहा है, यह खेल इतना विस्तृत, इतना विविध है, और हर किसी के अपने चालीस दिन चालीस रातें होते हैं। ख़ैर, अब चालीस दिन चालीस रातें नहीं रहे, किसी के पास इतना वक़्त नहीं है! हम इतने बेसब्र हो गए हैं। बेरोज़गार लोगों के पास भी वक़्त नहीं है, इस सब के लिये। तो चेतना ने ख़ुद को आधुनिक जीवन के लिये ढाल लिया है। यह ऐसा नहीं है जिसे तुम दूकान से खरीद सको, लेकिन शायद यह उससे भी ज़्यादा उपलब्ध लगता है कि लोग ऑनलाइन जा कर ये चीज़ें देख सकते हैं, और लगातार इसके साथ रह सकते हैं। मानो तुम अपने गुरु से हर रोज़ बात कर सकते हो। जबकि पुराने समय में, शायद ऐसा नहीं था, जैसी आज एक शिष्य की पहुँच है। [प्र.१] यह ऐसा है जैसे जब मैं तीन महीने के लिये MSB (मूजी संघ भवन) में था, और उस वक़्त पर मैं इसमें इतना उभरा हुआ महसूस करता था। उभरा? [मूजी] तल्लीन, शायद। [प्र.१.] और कोई संघर्ष नहीं था, कोई जलन नहीं थी। मैं बस बहुत अच्छा महसूस कर रहा था! ऐसा लगता था, 'क्या यह ज़रूरत से ज़्यादा अच्छा है?' जैसे कोई परेशानी होनी चाहिये। पता नहीं। फिर मैं घर वापस चला गया और वहाँ कुछ ऐसी परिस्थितियां हुईं जो बहुत उलझन भरी थीं, पर मैं उन परिस्थितियों में भी बिलकुल ठीक रहा। मैं देख पा रहा था कि व्यक्ति में मेरी दिलचस्पी बहुत ... [मूजी] कमज़ोर? [प्र.१] कमज़ोर। हाँ। [प्र.१] पर यह इतना अजीब था कि कैसे इस समय में पुरानी आदतें, पुरानी कमज़ोरियाँ उभर कर आयीं। मैं लम्बे अरसे बाद फिर से धूम्रपान करने लग गया, सिर्फ़ इस दौरान, इस अंतराल में। मैं देख पा रहा था जैसे, 'अरे, मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ?' मुझे लगा कि मुझमें कुछ इतना, कैसे कहा जाये ... क्या आप मेरी मदद कर सकते हैं? कोई? जर्मन? [संघ में से आवाज़] टालना। [प्र.१] टाल रहा था। और मैं इतना टीवी देखने लग गया था, देर रात तक। पर यह अच्छा था कि मैं अभी भी महसूस कर पा रहा था कि वह यहीं है। [मूजी] ऐसा अक्सर होता है, यह अच्छा है। व्यक्तिगत पहचान को लगता है, 'अब मैं दूर रहा हूँ। वाह, मैंने इस सारे आध्यात्म को सोख लिया।' और तुम घर जाते हो और वह रंग बदलने लगता है। इसे समझें, तुम हर बार उसी जगह पर नहीं हो, अगर तुम व्यक्ति-भाव में रहते हो, तो तुम उसी जगह पर नहीं हो। हो सकता है तुम उससे ऊँची जगह पर हो। मैं इसके बारे में और बातें भी कह सकता हूँ। तुम उससे ऊपर की जगह पर हो सकते हो, पर हो सकता है वह और भी ज़्यादा उलझन भरी लगे। तुम्हें लग सकता है कि तुम्हारी ज़िन्दगी तहस-नहस हो गयी, या यह तो बहुत खराब बात है; पर हो सकता है वह अच्छी बात हो। शायद दोबारा से कुछ होने की ज़रूरत है ... हो सकता है किसी चीज़ को तहस-नहस हो कर दोबारा बनने की ज़रूरत हो, या शायद दोबारा बनने की नहीं बल्कि किसी और रूप में प्रकट होने की ज़रूरत हो। तो इसे समझने के लिये अपने मन पर भरोसा मत करो। क्योंकि कभी कभी तुम सोचने लगते हो, मैं तो यहाँ आने से पहले ही ठीक था। पहली बार यहाँ कितना अच्छा था। जब मैं वापस गया तो मानो जैसे लाल सागर गुज़र गया। सब कुछ ऐसे हो रहा था। और फिर, वह बड़ा धमाका हो गया! कई अलग अलग कारण हो सकते हैं। हो सकता है तुममें एक प्रकार का अहंकार आने लगे। तुम सोचने लगो, 'अब तो मैं इतना ख़ास हो गया हूँ। मैं सोचता हूँ और वैसा ही हो जाता है।' तो पता नहीं जीवन कैसे आए, तुम्हारे जोश पर पानी फेर दे, और अधिक विनम्रता के लिये जगह बना दे, जो तुम्हें वापस रस्ते पर ले आये। कई चीज़ें हो सकती हैं। हमारे मन से इसके बारे में जो तस्वीर आती है उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। कभी कभी तुम्हें बहुत खराब लगता है और फिर तुम्हें याद दिलाना पड़ता है कि तुम्हारी एक तरह की मानसिक सफ़ाई हो रही है। कुछ है जो बाहर निकाल रहा है, तुम्हें लगता है, 'ओह, मैंने यह उम्मीद नहीं की थी। मैंने सोचा था मुझे शान्ति मिलेगी। पर मैं तो बिलकुल बिखर गया हूँ। पता नहीं क्या करूँ।' तुम्हें बहुत खराब लगता है, 'हे भगवान्। शायद मैंने यहाँ आ कर गलती कर दी। पर तुम्हारी सफ़ाई हो रही है और यह सब ऊपर आ रहा है और यह अच्छा नहीं लगता। अगर तुम्हारे अंदर बहुत बुराई है और तुम्हें उसे उलटी करना है, तो यह अच्छा एहसास नहीं है। पर जब वह बाहर आता है [उलटी करने की नक़ल करते हुए] उलटी करने के बाद बहुत अच्छा लगता है, है न? कभी कभी ये बातें ऊपर आ जाती हैं और वे केवल मोंटे सहजा जैसी जगह के माहौल और आध्यात्मिकता से सक्रिय हो जाती हैं। वे बहुत ताकत से आती हैं और तुम्हें याद दिलाना पड़ता है, कि 'सब ठीक है। चिंता मत करो। तुम पर कृपादृष्टि है। सब ठीक है, यह बस कुछ अटकी हुई ऊर्जा की डकार आ रहा है, या कोई भ्रम हैं जो जल रहे हैं।' और कभी कभी यह जलन साधना से भी ज़्यादा होती है। साधना मतलब आध्यात्मिक अभ्यास, क्योंकि तुम्हारी अंतर्दशा ऐसी होती है जैसे तुम आग के बीच में हो। तुम्हारा जी मिचलाता है, किसी से बात करने का मन नहीं करता, पर तुम पर कृपादृष्टि है। वह किसी तरह जल कर राख हो रहा है। [प्र.१} पिछले साल मेरा बहुत जलन वाला रहा, मैं दिन रात रो रहा था, मैं वाकई जल रहा था। मेरी पूरी ज़िन्दगी बदल गयी। कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा। पर इस समय मुझे कोई जलन नहीं महसूस हो रही, और मुझे लग रहा है, क्या मुझे उससे ज़्यादा जलना चाहिए? मानो मैं कुछ ज़्यादा ही आराम से हूँ। [मूजी] यह 'मैं' ... मैं हमेशा सीधा 'मैं' पर जाता हूँ। कौन बोल रहा है? इस कहानी का संवाददाता कौन है? क्या यह सच में चेतना के हृदय में दीक्षित हुआ है? क्या यह चेतना बोल रही है? या क्या यह चेतना और अचेतन व्यक्ति-भाव का मिश्रण बोल रहा है? और हमेशा ऐसा होता है मानो व्यक्ति-भाव अभी भी है, वह बच गया है। वह बच गया है। तुम्हें यहाँ आ कर बचना नहीं चाहिए! [प्र.१] मैं बचना भी नहीं चाहता। [मूजी] कोई यहाँ आयीं थीं और उसने मुझे चिट्ठी लिखी, और मुझे एक किताब भेजी। किताब में उसने लिखा, 'मैं इतनी किस्मत वाली हूँ कि मैं अपने जीवन में कई गुरुओं के साथ रही हूँ। मैं सात गुरुओं के साथ बैठी हूँ।' मैंने कहा, पर तुम सात गुरुओं से बच कैसे गयी? एक भी! तुम्हें एक भी गुरु से बचना नहीं चाहिए! तो आ कर यह कहना, 'हाँ, मैं सात गुरुओं के साथ बैठी'। और तुम्हें क्या हुआ? क्या तुम्हारा अहम् अभी भी ज़िंदा है? क्या हुआ? क्या तुम पीछे की पंक्ति में बैठी थी? क्या तुम शौचालय में छिपी हुईं थी? तुम कहाँ थी? क्योंकि अगर तुम तत्परता से आओ, तो तुम्हारे साथ कुछ होना चाहिए! तुम्हें बचना नहीं चाहिये। 'तुम' मतलब अहम् जो दरअसल तुम्हारे सत्य स्वरुप के ऊपर पहना हुआ मुखौटा है। तुम इस मुखौटे के साथ जी रहे हो। तुम शीशे में देखते हो, तो तुम्हें मुखौटा दिखाई देता है, तुम अपने मुखौटे पर मेक-उप लगाते हो। हमें अपने मुखौटे पर कितना गर्व है। हमें यह भी नहीं पता कि वह मुखौटा है। जब तुम्हें दिखने लगे कि यह मुखौटा है, तो तुम उसे उतारने की कोशिश करते हो, तुम्हें दिखाई देता है कि वह कितना चिपका हुआ लगता है, फिर भी तुम्हें पता होता है, कि मैं यह नहीं हूँ। और हम इस मुखौटे को कैसे उतार सकते हैं? ज़ोर-ज़बरदस्ती से नहीं। बल्कि जो आंतरिक अनुभव तुम्हें दिया गया है उसे याद कर के, और उसे पहचान कर जो आँखों से नहीं दिखाई देता। तुम गहराई से देख पाते हो। यह निमंत्रण सभी का मित्र है, क्योंकि वह तुम्हें अपनी सामान्य ध्यान बंटाने वाली चीज़ें छोड़ने में, और यह देखने में मदद करता है कि उस दृष्टि में वापस आना कितना आसान है, अस्तित्व के उस क्षेत्र में आना जिसमें सभी चीज़ें और भी स्पष्ट दिखने लगतीं हैं, जहां अदृश्य भी दिखने लगता है। [मूजी] जब तक हम बाहरी जीवन के भ्रमजाल में हैं, जहाँ हमें अधिकतर यही लगता है कि, 'मैं यह व्यक्ति हूँ जो व्यक्ति-भाव में बढ़ रहा है और मंज़िल के क़रीब आता जा रहा है', तब तक हममें भ्रम रहता है। तुम्हें इस सब पर जीत पानी होगी। और दरअसल मुझे यह ज़्यादा मुश्किल नहीं लगता। अगर कोई मुश्किल है तो वह है हमारी अपनी तादात्म्य के प्रति वफ़ादारी। अगर तुम्हें अभी भी भूख है, सांसारिक चीज़ों के प्रति विषयी भूख, तो तुम आसक्तियों की ताकत की वजह से उन्हें छोड़ नहीं पाओगे, इसलिए भी कि वह उभरेंगी। और ध्यान में, निर्देशित ध्यान, या सत्संग में, तुम्हें पता चलेगा कि कहाँ वे आसक्तियां ज़्यादा कसी हुई हैं। और इसकी इच्छा होनी चाहिये ... चीज़ें अपने आप में नहीं ... कोई चीज़ खुद परेशानी नहीं होती, बल्कि तुम्हारा उससे रिश्ता और तुम उसको क्या महत्त्व देते हो, यह बात होती है। क्योंकि वह महत्त्व है, कि उस चीज़ की तुम्हारे लिए क्या कीमत है। और जो मूल्य तुम उसे देते हो, वह तब उभरेगा जब उसके पार जाने का समय आएगा, और तुम उसे अपने साथ ले जाना चाहोगे। और अगर एक विकल्प हो,' तुम अकेले आओ [उसके बिना] या यहीं रहो', तो शायद तुम यहीं रह जाओगे क्योंकि उन पलों में तुम्हारी आसक्तियाँ ऐसी लगेंगी मानो वे क्रिसमस का त्यौहार हों। तुम उन्हें छोड़ना नहीं चाहोगे, 'ओह, शायद मैं बाद में आ जाऊंगा'। तुम ऐसा करोगे। मुक्ति की ओर अपना मार्ग निश्चित मत करो! बस आ जाओ और उपस्थित रहो! बस आ जाओ! बस पहुंचो! तुम्हें कोई भी तरक़ीबों की ज़रूरत नहीं है। तुम्हारे पास कोई भी तरकीब न हो! कोई बचाव का रास्ता मत सोचो। बस अपने मन में इस इच्छा के साथ आओ, 'मुझमें मुक्त होने की इतनी आकांक्षा है कि, मैं अहम्-भाव का बोझ और नहीं उठा सकता।' क्योंकि अगर तुम खुद (अहम्) को न सह सको तो यह भी तरक्की है! खुद को समझना ही नहीं, बल्कि एक बिंदु पर आ कर तुम खुद को सह ही न पाओ। यह बहुत बड़ी तरक्की है, दरअसल, क्योंकि इसका मतलब है कि तुम अपने अहम् को कायम नहीं रख पा रहे, वह तुम्हारे लिए असहनीय हो गया है। यह भी आध्यात्मिक प्रगति का निशान है, क्योंकि जब तक यह हमारे अवचेतन मन में छिपा हुआ है, तब तक तुम इसे पकड़ नहीं पाते, और तुम बहुत लम्बे समय तक इस भ्रम में जी सकते हो कि तुम यह व्यक्ति हो और अपने राजा और देश के लिए लड़ते हो ... पर जैसे जैसे तुम अपने सत्य को पहचानने और अनुभव करने लगते हो, तुम्हारी आक्रामकता छूटने लगती है। एक तरह की धीरज उसकी जगह ले लेती है, एक शांति, और एक तरह का ज्ञान तुम्हारे अंदर प्रकट होने लगता है, एक तरह का विस्तार। तुम अपने जीवन में भयभीत या संकुचित महसूस नहीं रहते। सब कुछ अधिक विस्तृत महसूस होता है। पर आख़िरकार, विस्तार का एहसास भी उतना ज़रूरी नहीं है, क्योंकि आत्मन अनंत है। अनंत कहाँ तक फ़ैल सकता है? कुछ है जो इतना उपस्थित है। तुम्हारा अस्तित्व, तुम्हारा जीवन इस विस्तार में से प्रकट हो रहा है। यह बस ... यह मानो असंख्य पहलूओं वाला हीरा है, पर हर एक पहलू के पीछे पूरा हीरा है। हर जीवन मानो इस असंख्य पहलूओं वाले हीरे का एक पहलू है। कोई जीवन बस नाम-मात्र का नहीं है। इस विशाल लीला में हर किसी की अपनी भूमिका है, तुम्हारे जागने तक। जागने के बाद भी तुम्हारी बाहरी अभिव्यक्ति चलती रहेगी, शायद पहले से ज़्यादा भी, बहुत सुन्दर फल देने के लिये। पर तुम्हें अपनी पूर्ण पहचान तक आना होगा, द्वैतवादी पहचान तक नहीं, बल्कि एक अद्वैत पहचान। मतलब, कैसे एक चीज़ ... यह ऐसा है जैसे, एक हाथ से ताली कैसे बज सकती है? एक चीज़ खुद को कैसे पहचान सकती है? मैं एक उदहारण देता हूँ ... यह उदहारण मैं बहुत समय से देता रहा हूँ। एक तेज़ धार की छुरी, कितनी भी तेज़ हो, कितनी ही चीज़ें काट सकती है, पर ख़ुद को नहीं काट सकती। क्यों? या आँखें जो कई रूप देख सकती हैं, पर ख़ुद को नहीं देख सकतीं। या तराज़ू जो कई चीज़ें तोल सकता है पर ख़ुद को नहीं तोल सकता। क्यों? क्योंकि वह ख़ुद से अलग नहीं हो सकता। वह इतना एक है कि ख़ुद को देख नहीं सकता। हम वैसे ही नहीं। हमारा सच्चा स्व एक ही है। तुम अपने स्व को देख नहीं सकते। जो भी तुम देखते हो, जो भी तुम ख़ुद को मानते हो, वह सिर्फ़ कल्पना है। वह केवल सतह है। तुम अपने आत्मन में से देख रहे हो। ये सभी चीज़ें, मेरे पास हर छोटी छोटी चीज़ के लिए कोई ख़ास अभ्यास नहीं है। तुम बड़े से तालाब में बैठे हो और सभी जगह से गीले हो। ऐसा नहीं है कि एक तरफ़ का पानी तुम्हें आगे से भिगोयेगा और दूसरी तरफ़ का पीछे से। तुम उसके तालाब में बैठते हो और तुम पूरे भीग जाते हो। तो मैं ऐसे कह रहा हूँ, कि मैं अगर तुम में से एक से भी बात कर रहा हूँ, तो भी मैं सभी से कह रहा हूँ! सत्संग में तुम्हारा आना, अगर तुम उस तत्परता से आये हो, तो वह तृप्त होगी। होना ही है। अगर तुम अपने तादात्म्य को बचाने की कोशिश करोगे, तो वह बचा रहेगी। पर अगर तुम इस भाव से आते हो कि, 'मैं बस एक स्पॉन्ज जैसा हूँ, मेरा हृदय कहता है कि सब कुछ छोड़ कर यह सब सोख लो', तो ऐसे आओ। [प्र. १] पिछले सत्संग में जब आपने यह प्रश्न पूछा, 'अगर यह तुम्हारा आख़िरी दिन हो', तब तो यह जलन बहुत तेज़ आ रही थी, मगर बाद में यह ठंडी पड़ गयी। [मूजी] अगर असल में यह तुम्हारा आख़िरी दिन हो, बस आख़िरी पांच मिनट बचे हो, या कुछ .... तो अगर यह तुम्हारा आख़िरी मौका हो, अब कृपया इस प्रश्न के साथ रहो जो मैं पूछने वाला हूँ, अगर सच में ऐसा होता कि बस घड़ियाँ गिनी जा रही हैं, घड़ी चलती जा रही है, तुम पांच मिनट में क्या कर सकते हो? पांच मिनट में इस बारे में तुम क्या कर सकते हो? चार मिनट? तीन मिनट? दो मिनट? तुम दो मिनट में क्या पा सकते हो? एक मिनट में? तीस सेकंड में? दस सेकंड में, तुम क्या पा सकते हो? अगर तुम उसैन बोल्ट हो तो शायद तुम एक और रिकॉर्ड तोड़ सकते हो। पर वाकई क्या तुम वह पा सकते हो जिसकी हम बात कर रहे हैं? और शायद इस तरह की चुनौती बहुत ताकतवर इसीलिए है, क्योंकि तुम्हें अपना शारीरिक काम छोड़ना ही पड़ता है। तुम जो हो, वह होने के लिए कोई शारीरिक काम नहीं कर सकते। यह ऐसे नहीं चलता। तुम्हें किस तकनीक की ज़रूरत है? किसी की नहीं। तो मैं कहूंगा कि, वह सब छोड़ दो! बस छोड़ दो सब कुछ, क्योंकि वह तुम्हारे काम नहीं आएगा। मान लो तुम सब कुछ छोड़ते चल सकते! बस छोड़ दो, मतलब, किसी चीज़ में शामिल मत होओ। अपनी स्वाभाविक आत्मन की अनुभूति को किसी चीज़ के साथ मिलाओ मत, किसी देवी-देवता के साथ भी नहीं। बस छोड़ दो सब कुछ! तुम इसी समय भी यह कर सकते हो। क्या तुम्हें सब कुछ छोड़ने में दस सेकंड भी लगेंगे? बिलकुल खाली हो जाओ। और इंतज़ार मत करो। पूरी तरह से खाली हो जाओ। [मूजी] जो छोड़ रहा है, उसे भी छोड़ दो। [मूजी] सच में, ऐसा करो! और अब जहाँ तुम हो वहाँ से बोलो। क्या तुम समय में हो? नहीं। तुम्हें करना पड़ेगा! अगर तुम अपने सभी रिश्ते, वे भी जो तुम्हारे लिए बहुत कीमती हैं, अगर अभी दस सेकंड में सभी छोड़ दो। शायद तुम में से कुछ घर से दूर जा रहे हैं, अगर तुम्हारे पास दस मिनट होते, बस दस सेकंड, ठीक फ़ोन करने का भी समय नहीं है कि, 'अलविदा,अलविदा, प्रिये। मैं जा रहा हूँ।' क्या तुम यह सह सकते हो? तो, सब कुछ जा रहा है। तब तो सब कुछ छोड़ दो। हर संबंध, हर इच्छा, सब कुछ। अगर इसी पल सब कुछ छोड़ दो, तो क्या बाकी रह गया, जो छोड़ा नहीं जा सकता? क्योंकि अगर तुम सब कुछ छोड़ दो, तब भी तुम हो! क्या तुम अपने को छोड़ सकते हो? मैं तुम्हारे व्यक्ति-भाव या स्मृति की बात नहीं कर रहा, या तुम्हारे बीते अनुभवों की स्मृति की। मैं अतीत की बात नहीं कर रहा, उसे छोड़ दो, वैसे भी वह बीत गया! सिर्फ़ यादों और भावनाओं की वजह से तुम्हारे अंदर वह अभी भी चल रहा है। वह बीत गया, इसी लिए वह अतीत कहलाता है। वह चला गया। तो छोड़ो, सब कुछ छोड़ दो। और इसे कोई तकनीक मत कहो। बस सब कुछ छोड़ दो और वहाँ से मुझे बयां करो। अब यहाँ क्या है? और क्या तुमने इसे बनाया है, जो भी रह गया, वह तुम्हारी कोशिश से अछूता है, जिसे भी तुम ज़िन्दगी कहते हो वह उससे अछूता है। कोशिश कर के देखो। और क्या यह कोई कामयाबी है? किसकी कामयाबी? क्योंकि अगर तुम सब कुछ छोड़ दो, तो जो छोड़ने में कामयाब होने वाला है, वह भी छूट जाता है। तो क्या बाकी रह गया? मैं तुम्हारी बुद्धि से नहीं पूछ रहा। तो, जो बाकी रहा, क्या वह एक मानसिक स्थिति है? क्या बाकी रहा? क्या वह एक मानसिक स्थिति है? [संघ] नहीं। [मूजी] नहीं! क्या उसकी कोई जन्म तिथि या राशि है? क्या उसके ग्रह हैं? वह तुम्हारा स्व है! यही हमारा खेल है। यह हमारा खेल है, यह और यह और यह, सभी चीज़ें जो तुम्हारे लिए कीमती हैं। वे अधिकतर बीत गयीं, सिर्फ़ यादों में बाकी हैं। क्या तुम इस पल में कल का नमूना वापस ला सकते हो? वह सब चला गया। और क़िस्मत से, शुक्र है कि तुम कह सकते हो कि बातें बीत जाती हैं, तुम्हें वे हटानी नहीं पड़तीं, वे ख़ुद ही बीत जाती हैं। सब कुछ गुज़र जाता है। सिवाय एक चीज़ के। ढूंढो वह क्या है जो बीतता नहीं, और तुम अपनी मुक्ति जीत लोगे! उसे खोजो जो बीतता नहीं, जो समय के असर में नहीं है। और वह कहाँ है? वह कहाँ स्थित है? वह कहाँ है जिसकी मैं बात कर रहा हूँ? वह ठीक ठीक कहाँ है? तुम्हारी इसकी और उसकी सभी बातें, और तुम्हारे सभी ध्यान समाधि, केवल चेतना की रंगभूमि में हैं, क्षणिक और अस्थायी। उसे ढूंढो जो कोई कहानी नहीं रखता, न कोई कहानी, न इतिहास। तुम्हें कितनी दूर जाना होगा? और जब तुम्हारा पहला कदम उठेगा, तो तुम किस दिशा में जाओगे? तो यह कुछ ऐसा होना चाहिए जो वास्तव में तुम्हारी चेतना को कटोचे, इतना कि, तुम्हें जा कर इस पर मनन करना पड़े, और तुम अपना ध्यान बस इस पर लगाओ और इसी के साथ रहो, क्योंकि आज यही तुम्हारी खुश-किस्मती है! जैसे जैसे तुम इसे खोजने लगोगे, कुछ समय के लिए तुम्हारे अंदर किसी और चीज़ के लिए जगह नहीं रहेगी। इसमें डूबे रहो। यह तुम्हारा द्वैतभाव सोख लेगा। मेरे शब्दों से डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। और उसके बाद जब तुम स्वाभाविक काम-काज करने लगोगे, तुम पाओगे कि तुम्हारे काम मानो पवन गति से हो रहे हैं, कुछ ऐसा है ... तुम्हारा विवेक इतना बढ़ जाएगा, कि पहले के जो काम और विचार, जो बस वक़्त बर्बाद कर रहे थे और मन पर बोझ थे, वे ख़तम हो जायेंगे। तुम जीवन जी रहे नहीं होगे। तुम ख़ुद ही जीवन हो! और इसका प्रवाह तुम्हारे अपने अस्तित्व में दिखाई देता है। ये बातें किसी किताब में नहीं लिखी जा सकतीं। उसकी ज़रूरत नहीं है। तुम्हें कुछ भी याद रखने की ज़रूरत नहीं है, जब तक वह इतना ही ज़रूरी न हो कि जब तुम उसे याद करो, तो सब कुछ उसमें समाया हो। हालाँकि लगता है कि मेरा ध्यान तुम पर केंद्रित है, पर दरअसल यह बात मैं आप सबसे कर रहा हूँ। हमें अलग से उत्तर की ज़रूरत नहीं होनी चाहिये। मुझे नहीं लगता अब इसके लिए वक़्त बचा है। पर क्या यह कीमती है या नहीं? [संघ] हाँ। [प्र १] बहुत बहुत धन्यवाद। [मूजी] हाँ, यह बहुत कीमती है, क्योंकि हो सकता है कि कुछ समय के लिए हम अपने सही स्वरूप से अनजान जी रहे हों, और ज़्यादातर लगता है कि ऐसा इसीलिए कर रहे हैं, क्योंकि हम कर सकते हैं। क्योंकि अहंकार भी चेतना है, उसका भी जीवन है, और उसमें खटास भी है और मिठास भी, और वह काफ़ी है यह समझने के लिये, 'यह बुरा नहीं है! मुझे मैं होना बहुत पसंद है।' और तुम्हें इसका पूरा हक़ है, आज़ाद होने की आज़ादी, और बंधने की आज़ादी। यह कुछ ऐसा है। और इसके बारे में कोई आलोचना या निंदा नहीं है। पर जैसे ही, जीवन की कृपा से, फ़िर किसी भी रूप या तरीके से ये तुम्हारे पास आये, तुम्हारा ध्यान मुड़ जाए, और तुम्हारे अंदर और गहराई में जाने की इच्छा जागे, तो ज़िन्दगी उसे तृप्त करती है। हो सकता है तुम्हारे भीतर से कुछ आये, एक आदत जो किसी न किसी तरह हम सब ने विरासत में ली है, अपनी ही आज़ादी के ख़िलाफ़ काम करने की। अंदर एक ऊर्जा है जो इस मुक्ति के विरुद्ध काम कर रही है, पर सिर्फ़ तब तक जब तक तुम अपने अंदर व्यक्ति-भाव जगाये रखते हो। जैसे ही उसकी जकड़ टूटती है, तुम्हारे अंदर मुक्ति के कोई विरोधी नहीं बचते। वही अहम् जो खुद को बचाने की कोशिश करता है, और जो तुम सोचते हो कि तुम बचा रहे हो, वही चीज़ जिससे तुम चिपके रहने का प्रयास कर रहे हो, तुम्हें उसी के पार जाना है, और उसी को छोड़ना है। पर इसका एहसास हमें धीरे धीरे होता है। और यह भी कि तुम इतने कृपा की बाहों में हो। ऐसा मत सोचो, 'ओह, मैं और मेरी थोड़ी सी शक्ति यह नहीं कर पायेंगे।' यह सच है कि तुम और तुम्हारी थोड़ी सी शक्ति यह नहीं कर सकते। [हँसी] रूमी कहते हैं, 'जो मुझे यहाँ तक लाया है, उसे ही मुझ को घर तक ले जाना पड़ेगा।' कौन है जो तुम्हें यहाँ तक लाया? वही कृपा तुम्हें घर बुला रही है। और घर है कहाँ? किस दिशा में है घर? तुम और घर एक ही चीज़ हो! तुम और घर एक ही चीज़ हो। जब तक तुम्हें इसका एहसास नहीं होता, तुम्हारा घर ईंट-पत्थर ही रहेगा। वह एक जगह होगी। और जीवन, ईश्वर भी, हमारे सभी आधुनिक रास्ते इस्तेमाल कर रहा है हमें महान उपमाएँ सिखाने के लिए। जैसे एक समय था, जब तुम्हारा पता कुछ ईंट-पत्थरों का बना हुआ था, और उसमें दरवाज़ा और खिड़कियाँ होती थीं। अब तुम्हारा पता इंटरनेट भी हो सकता है। तुम्हारा ईमेल एड्रेस हो सकता है। कहते हैं, 'ज़रूरी नहीं पता ऐसा कुछ हो'। तो कहाँ है तुम्हारा पता? यही तुम्हारा पता है। अगर तुम यह शरीर देख पा रहे हो, तो शायद में इस में हूँ। [हँसी] वही तुम्हारा पता है! जब तुम नज़दीक आते हो, और फिर इसके बाद, तुम कुछ ऐसा पाते हो जिसके बारे में तुम बोल नहीं सकते। तुम उसके बारे में बोल नहीं सकते। और वह तुम्हें इस दुनिया में अपंग नहीं बना देगा! कभी कभी मन ही यह खेल खेलता है, 'अगर तुम इसके आगे जाओगे, तो तुम सब कुछ खो दोगे। तुम गली में भिखारी बन कर रह जाओगे। कोई तुम्हें नहीं पहचानेगा। तुम अकेले रह जाओगे, क्योंकि एक बुद्ध से कौन शादी करना चाहता है ...' और यह बहुत से लोगों को फँसा लेता है। पर मुक्ति इस तरह से प्रतिबंधित नहीं है। बाहरी चीज़ें हमारी विरोधी नहीं हैं। यह पूरा जीवन अपनी अभिव्यक्ति में इतना शानदार है। वह हमारा स्वाभाविक शत्रु नहीं है। बल्कि इसको देखने में हम बहुत ही आनंद देख और प्राप्त कर सकते हैं। शत्रु तो अंदर है, कुछ समय तक वह हमारे सोचने के तरीके में है, और मुख्यत: हमारे व्यक्तिगत तादात्म्य में। सब कुछ इस तादात्म्य पर आ कर रुक जाता है, जो तुम्हें केवल व्यक्ति-भाव में छोड़ देता है। और सारा ही संसार व्यक्ति-भाव के ज़हर से पीड़ित है, बहुत ज़्यादा व्यक्ति-भाव, और उपस्थित-भाव उतना नहीं। तो, अब मुझे जाना होगा। और अभी के लिए इतना काफ़ी है? [संघ] हाँ। [मूजी] धन्यवाद। [संघ से धीमी आवाज़] [मूजी] ज़रूर! आओ, आओ। [मूजी] ग्रेज़ी, ग्रेज़ी। (इटालियन में धन्यवाद) तुम्हारा भी जन्मदिन है? अच्छा, जन्मदिन की शुभकामनाएं! [प्रश्नकर्ता २ इटालियन में बोलती है] [म.] सी, बेनवेनुतो। (इटालियन में वेलकम) [हँसी] कॉपीराइट © 2018 मूजी मीडिया लि. सर्वाधिकार आरक्षित। इस रिकॉर्डिंग का कोई भाग पुनः प्रस्तुत नहीं किया जा सकता मूजी मीडिया लि. की प्रत्यक्ष अनुमति के बिना।