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पर्दों के पीछे: कौन तय करता है कि हम ऑनलाइन क्या देखते हैं?

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    ♪ (संगीत) ♪
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    [पर्दे के पीछे:
    कौन तय करता है कि मैं ऑनलाइन क्या देखूँ?]
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    नमस्‍ते, मेरा नाम टेलर है।
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    मैं इंटरनेट तथा पत्रकारिता
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    और हम नागरिक विश्व संबंधी जानकारी कैसे
    प्राप्त करते हैं इसका अध्ययन करता हूँ।
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    पुराने दिनों में जब लोगों को
    जानकारी मिलती थी,
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    वह अधिकतर लोगों द्वारा तय की जाती थी।
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    ऐसे व्यक्ति थे जो निर्णय करते थे
    कि हमें क्या जानने की आवश्यकता है।
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    तो जब हम समाचार पत्र खोलते थे
    या सांयकालीन समाचार चलाते थे,
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    तो वह एक व्यक्ति था जो निर्णय करता था
    कि हमने क्या सुना और देखा।
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    इसका परिणाम यह है कि हम सब को
    एक जैसी बातें पता होती थीं।
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    अब इंटरनेट ने सब कुछ बदल दिया है।
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    जब आप ऑनलाइन जाते हैं,
    जब आप कोई अनुप्रयोग खोलते हैं,
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    आप जो देखते हैं उसे कोई व्यक्ति नहीं
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    बल्कि एक मशीन तय करती है।
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    और यह कई प्रकार से अद्भुत है:
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    वह आपको गूगल मैप्स का प्रयोग करने देता है;
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    वह आपको ऑनलाइन भोजन मंगाने देता है;
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    वह आपको दुनिया भर के मित्रों से जुड़ने
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    और जानकारी साझा करने देता है...
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    किंतु इस यंत्र के कुछ पहलू हैं
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    जिनके संबंध में हमें वास्तव में
    ध्यान से विचार करना है
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    क्योंकि ये वह जानकारी तय करते हैं जो हम सब
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    बतौर नागरिक एक समाज में और
    एक जनतंत्र में प्राप्त करते हैं।
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    तो जब आप कोई अनुप्रयोग खोलते हैं
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    और आपको अपने स्नैपचैट फ़ीड में
    एक चित्र दिखाया जाता है,
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    वह सब जानकारी एक यंत्र द्वारा
    तय की जाती है,
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    और वह यंत्र उस कंपनी के
    प्रोत्‍साहन द्वारा संचालित होता है
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    जिसकी वह वेबसाइट या अनुप्रयोग होता है।
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    और वह प्रोत्‍साहन आपके लिए होता है कि आप
    उस अनुप्रयोग में अधिक से अधिक
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    समय व्यतीत करें।
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    तो वे कुछ ऐसा करते हैं
    जिससे आपको वहाँ रहना बहुत अच्छा लगे।
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    वे लोगों को आपकी तस्‍वीरों को
    पसंद करने देते हैं।
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    आपको वह सामग्री दिखाते हैं जो
    उन्हें लगता है कि आप देखना चाहते हैं
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    जो आपको सच में खुश कर देगा
    या सच में गुस्‍सा दिलाएगा
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    जिससे आपको वहाँ बनाये रखने के लिए
    आपसे भावनात्मक प्रतिक्रिया मिलेगी।
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    क्‍योंकि जब तक आप वहाँ पर हैं
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    तब तक वे आपको अधिक से अधिक
    विज्ञापन दिखाना चाहते हैं।
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    क्योंकि वही उनका व्यावसायिक प्रतिरूप है।
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    वे इसी अवसर का लाभ उनके ऐप में आपकी
    मौजूदगी के जरिए
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    आपके बारे में आकड़ें एकत्रित करके भी
    उठा रहे हैं।
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    और वे इन आकड़ों का उपयोग
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    आपके जीवन और व्यवहार के संबंध में
    विस्तृत खाका बनाने के लिए करते हैं,
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    और इस खाके का उपयोग बाद में
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    आपकी ओर और अधिक विज्ञापन
    लक्षित करने के लिए किया जा सकता है,
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    और तब वह भी तय करता है कि आखिर
    आप क्या देखते हैं।
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    पर यह सब केवल उन कंपनियों के व्यावसायिक
    प्रतिरूप के बारे में ही नहीं है,
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    दरअसल हमारे जनतंत्र पर भी इसका
    प्रभाव पड़ता है
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    क्योंकि हम इंटरनेट पर जो कुछ भी देखते हैं
    वह हमारी रुचि के बहुत अनुकूल बना होता है,
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    हम क्या पसंद करते हैं,
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    हम किस पर विश्वास करते हैं,
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    हम क्या देखना चाहते हैं
    या किस पर विश्वास करना चाहते हैं।
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    और इसका अर्थ है कि बतौर एक समाज,
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    हमारे पास जानकारी का साझा समुच्‍चय
    अब उपलब्ध नहीं है
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    जो एक जनतंत्र के लिए कठिन है जो हमसे
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    एक साथ मिल कर काम करने और एक जैसी
    जानकारी रखने की अपेक्षा करता है
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    ताकि हम अपने जीवन के संबंध में मिलजुल कर
    निर्णय ले सकें।
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    जब हम सभी अलग बातें जानते हैं
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    और हम सभी अपनी जानकारी के
    छोटे-छोटे दायरों में कैद हो रहे हैं,
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    तब हमारे लिए एक दूसरे के साथ बनाकर रखना
    अत्यंत कठिन हो जाता है।
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    हमारे पास न कोई साझा अनुभव होता है
    न ही कोई साझा जानकारी।
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    मुझे लगता है कि यह बेहद महत्वपूर्ण है
    कि हम ऑनलाइन मिलने वाली
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    जानकारी और उन कंपनियों
    और संरचनाओं के बारे में
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    गंभीरता से सोचें, जो यह निर्धारित करती हैं
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    कि हम इंटरनेट पर क्या देखें।
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    ♪ (संगीत) ♪
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    [न्यूज़वाइज़ CIVIX तथा कनाडियन जर्नलिज्म
    फ़ाउंडेशन की एक परियोजना है]
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    उपशीर्षक: श्री राव
    समीक्षा: अजय सिंह रावत
Title:
पर्दों के पीछे: कौन तय करता है कि हम ऑनलाइन क्या देखते हैं?
Description:

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Video Language:
English
Team:
Amplifying Voices
Project:
CIVIX
Duration:
03:39

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