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जीवन, स्वतंत्रता तथा प्रसन्नता का अनुगमन ।
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हम प्रसन्नता को बाहर ढूंढने में जीवन बिता देते
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हैं मानों वह कोई वस्तु हो ।
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हम अपनी इच्छाओं तथा लालसाओं के गुलाम बन गए हैं ।
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प्रसन्नता कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसे ढूंढा जाए
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या सस्ते सूट की तरह खरीदा जा सके ।
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यह माया,
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भ्रम है रूप का
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अंतहीन खेल ।
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बौद्ध परंपरा में,
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संसार या पीड़ा का अंतहीन चक्र,
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प्रसन्नता की अभिलाषा एवं पीड़ा
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से मुक्ति से परिपूर्ण है ।
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फ्रॉयड ने इसे `प्रसन्नता सिद्धांत़` के रूप में उल्लिखित किया है ।
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हम वही सब करने का प्रयास करते हैं जिससे प्रसन्नता मिले या
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कुछ ऐसा प्राप्त किया जा सके जो हम चाहते
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हैं या उन सबसे छुटकारा, जो हम नहीं चाहते।
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यहां तक कि पैरामेशियम जैसा साधारण जीव यह कार्य करता है ।
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इसे प्रेरक के प्रति प्रतिक्रिया कहा जाता है ।
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पैरामेशियम से हटकर मनुष्यों के अधिक विकल्प हैं ।
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हम सोचने के लिए स्वतंत्र हैं और वही समस्या का आधार है ।
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हम चाहते क्या हैं, यही सोचना नियंत्रण से बाहर हो गया है ।
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आधुनिक समाज की दुविधा यही है कि हम विश्व को समझना चाहते हैं,
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लेकिन अपनी आंतरिक चेतना से नहीं,
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बल्कि वैज्ञानिक साधनों तथा विचारों के माध्यम से बाहरी
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संसार की मात्रात्मकता एवं गुणवत्ता मूल्यांकित करते हैं ।
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चिंतन से केवल अधिक सोच-विचार एवं अधिकाधिक प्रश्न उत्पन्न होते हैं ।
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हम जब आंतरिक संसार को जानना चाहते हैं जिससे विश्व उत्पन्न और दिशा-निर्देशित होता है,
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तब हम इस सारतत्व को बाहरी रूप से ग्रहण करने लगते हैं ।
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हम इसे एक जीवंत वस्तु या अपनी प्रकृति
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के अंतर्भूत के रूप में ग्रहण नहीं करते ।
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प्रसिद्ध मनश्चिकित्सक कार्ल जुंग जिन्होंने कहा “वह व्यक्ति जो बाहर देखता है,
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वह सपने देखता है और वह जो अपने अंदर झांकता है, वह जागृत हो जाता है ।”
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जागने और प्रसन्न होने की इच्छा गलत नहीं है ।
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गलत यह है कि खुशी को बाहर तलाशा जाए,
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जबकि इसे केवल भीतर पाया जा सकता है ।
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भाग चार: सोच से आगे- लेक तहोए, कैलिफोर्निया, एरिक श्मिट– गूगल के सीईओ की
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शिल्पविज्ञानी सम्मेलन में 4 अगस्त, 2010 को उल्लिखित विस्मयकारी सांख्यिकी ।
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श्मिट के अनुसार, सभ्यता के प्रारंभ से 2003 तक हमने
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जितनी सूचना निर्मित की, उतना अब हम प्रत्येक
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दो दिन में उत्पन्न करते हैं ।
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जो है 5 एक्साबाईट्स डेटा के बराबर ।
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मानव इतिहास में कभी इतनी सोच नहीं
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रही और न ही ग्रह पर इतनी हलचल।
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ऐसा तो नहीं कि हम हर समय किसी एक समस्या का समाधान तो कर नहीं पाते, दो और
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समस्याएं उत्पन्न करते हैं?
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क्या यह सोच ठीक है जो अत्यधिक
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प्रसन्नता की ओर न ले जाए?
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क्या हम अधिक प्रसन्न हैं?
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अधिक स्थितप्रज्ञ?
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क्या इस प्रकार की सोच से अधिक आनंदित हैं?
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या यह हमें जीवन के गहन तथा
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अधिक अर्थपूर्ण अनुभव से
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अलग या असंबद्ध करती है?
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सोचना, क्रियाशील होना और कार्य करना,
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इन्हें जीव के अस्तित्व के साथ संतुलित करना होगा ।
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अंततोगत्वा हम मनुष्य हैं, मनुष्य के कार्य नहीं ।
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हम परिवर्तन और स्थायित्व एक साथ चाहते हैं ।
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हमारा हृदय जीवन के सर्पिल से,
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परिवर्तन के नियम से असंबद्ध हो गया है,
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चूंकि हमारा सोचने वाला मस्तिष्क हमें स्थिरता,
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सुरक्षा तथा चेतनाओं के शमन की ओर संचालित करता है ।
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विकृत सम्मोहन से हम हत्या, सुनामी,
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भूकंप एवं युद्धों को देखते हैं ।
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हम लगातार अपना मन मस्तिष्क व्यस्त रखते हैं और उसमें सूचनाएँ भरते हैं।
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हर कल्पनीय उपकरण से टीवी कार्यक्रमों का प्रसारण।
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खेल और पहेलियाँ ।
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पाठ संदेश ।
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और प्रत्येक संभव मामूली कार्य ।
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हम अपनी चेतनाओं व संवेदनों के शमन के
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लिए नई छवियों, नई सूचना तथा नए तरीकों
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से अनंत बहाव में स्वयं घिर जाते हैं ।
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शांत आंतरिक चिंतन के समय हमें हृदय में एहसास होता
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है कि हमारी वर्तमान वास्तविकता से आगे भी जीवन
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है चूंकि हम भूखे प्रेतों के संसार में जीते हैं ।
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अनंत लालसाओं से भरे और कभी संतुष्ट न होने वाले ।
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ग्रहों के आसपास हमने इतने आंकड़े फैलाए हैं,
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जिनमें संसार के निर्धारण और समस्याओं के निर्धारण के लिए इतनी सोच,
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इतने विचार दिए, जो केवल इस कारण से हैं
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चूंकि ये मस्तिष्क से निकले हैं ।
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सोच ने इतना सारा बखेड़ा पैदा किया है जिसमें रहने के लिए हम अभिशप्त हैं ।
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हम बीमारियों, शत्रुता और समस्याओं से जूझते रहते हैं ।
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विडंबना यह है कि जिसका हम प्रतिरोध करते हैं वही अस्तित्व में है ।
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आप जिसका जितना प्रतिरोध करते हैं, वह उतना ही ताकतवर हो जाता है ।
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मांसपेशियों के व्यायाम की तरह, जिससे आप छुटकारा
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पाना चाहते हैं, दरअसल उसे मजबूत बना रहे हैं ।
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ऐसे में, सोचने का विकल्प क्या है ?
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इस ग्रह पर अस्तित्व बनाए रखने के लिए मनुष्य किस अन्य प्रक्रिया का प्रयोग कर सकता है?
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यद्यपि हाल की शताब्दियों में पश्चिमी संस्कृति
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ने चिंतन तथा विश्लेषण का प्रयोग करते हुए भौतिक को उद्भासित किया,
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तथापि अन्य प्राचीन संस्कृतियों ने आंतरिक विकास
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के लिए समान रूप से सुविज्ञ प्रौद्योगिकी विकसित की है ।
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हमारे आंतरिक संसार के साथ हमारा संपर्क टूटने के
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कारण ही हमारे ग्रह पर असंतुलन उत्पन्न हुआ है ।
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प्राचीन आप्त वाक्य "स्वयं को जानो”
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को रूप के बाहरी संसार के अनुभव की कामना से प्रतिस्थापित किया गया है ।
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“मैं कौन हूं?” इसका उत्तर आपके व्यावसायिक कार्ड पर
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व्यवसाय को वर्णित करने जितना सरल नहीं ।
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बौद्धधर्म में, आप अपनी चेतना की विषयवस्तु नहीं हैं ।
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आप केवल चिंतन या विचारों का संग्रह नहीं,
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चूंकि चिंतन के पीछे वही एक है जो चिंतन का साक्षी है ।
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आदेश सूचक `स्वयं को जानो` एक जेन कोआन है, एक अनुत्तरित पहेली।
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अंततोगत्वा उत्तर जानने के प्रयत्न में मस्तिष्क थक जाएगा ।
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केवल अहं अभिज्ञान ही है जिसे उत्तर या प्रयोजन चाहिए,
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किसी कुत्ते द्वारा अपनी पूंछ का पीछा करने के समान। आप कौन हैं,
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इस सत्य को उत्तर की आवश्यकता नहीं,
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चूंकि सभी प्रश्न अहंशील मस्तिष्क की देन हैं ।
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आप मस्तिष्क नहीं हैं।
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सत्य अधिक उत्तरों में नहीं है बल्कि कम प्रश्नों में है।
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जैसाकि जोसेफ कैंपबेल ने कहा है
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“मैं उन लोगों में विश्वास नहीं करता जो जीवन का अर्थ खोज रहे हैं,
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बल्कि मैं उन लोगों में विश्वास करता हूं जो जीवन का अनुभव कर रहे हैं ।”
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जब बुद्ध से पूछा गया “आप क्या हैं?” तो उन्होंने बस कहा,
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“मैं जागा हुआ हूं” ।
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जागृत होना, इसका क्या अर्थ है ?
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बुद्ध ने सटीक तौर पर नहीं कहा, चूंकि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन
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का खिलना अलग है लेकिन उन्होंने एक बात कही।
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यह पीड़ा का अंत है ।
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प्रत्येक बड़ी धार्मिक परंपरा में जागृत
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अवस्था के लिए एक नाम है।
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स्वर्ग,
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निर्वाण
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या मोक्ष ।
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केवल शांत चित्त की आवश्यकता है ताकि प्रकृति के बहाव को महसूस किया जा सके -
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अन्यथा जब आपका चित्त शांत हो, तब यह आपके मन में घटित होगा।
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उस स्थैर्य में आंतरिक ऊर्जाएं जागृत हो जाएंगी और आप
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बिना प्रयास के कार्य संपन्न करने में सक्षम हो जाएंगे ।
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जैसा कि टॉलस्टाय ने कहा है “चि चेतना का अनुपालन करता है”।
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स्थिरता प्राप्त होने पर व्यक्ति पौधों तथा पशुओं की
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बुद्धिमत्ता भी सुनना आरंभ कर देता है।
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स्वप्नों में हल्की सी फुसफसाहट को व्यक्ति
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सूक्ष्म प्रक्रिया से सीख जाता है,
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जिससे वे स्वप्न भौतिक रूप में सामने आ जाते हैं ।
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ताओ ते चिंग में इस प्रकार के
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जीवन को “वेइ वू वेइ” कहते हैं ।
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`करना, न करना` बुद्ध ने इस मार्ग को मध्यम मार्ग कहा है जो
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जागृति की ओर ले जाता है ।
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अरस्तू ने स्वर्णिम मध्यमान को वर्णित किया
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– दो चरम सीमाओं के बीच मध्य, अर्थात् सौंदर्य का मार्ग ।
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बहुत अधिक प्रयास नहीं, लेकिन बहुत कम भी नहीं।
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Yचिन एवं यांग का संपूर्ण संतुलन।
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वेदांत की माया या संभ्रम की धारणा यह है कि हम
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परिवेश का अनुभव नहीं करते,
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बल्कि विचारों द्वारा सृजित इसका प्रक्षेपण करते हैं ।
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निस्संदेह आपके विचार कुछेक तरीके से कंपायमान
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संसार का अनुभव करवाते हैं, लेकिन हमारे
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आंतरिक समत्व को बाहरी घटनाओं की आवश्यकता नहीं।
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बाहरी संसार पर विश्वास,
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विज्ञान के बुनियादी सिद्धांत पर टिका है ।
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लेकिन हमारी संवेदनाएं हमें केवल अप्रत्यक्ष सूचना देती हैं।
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इस मस्तिष्क निर्मित भौतिक संसार के बारे में हमारी धारणाएं संवेदनाओं के
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माध्यम से हमेशा निस्यंदित होती हैं और इसलिए हमेशा अपूर्ण रहती हैं ।
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कंपन का एक क्षेत्र है जो सभी संवेदनों में अंतर्निहित है।
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ऐसी स्थिति के लोगों को `सिनेस्थेसिया` कहा जाता है,
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जो कभी-कभार विभिन्न तरीकों से इस कंपनशील क्षेत्र का अनुभव करते हैं।
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`सिनेस्थेसिया`, ध्वनियों को एक संवेदन से दूसरे
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के रंगों या आकारों में देख सकता है।
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`सिनेस्थेसिया` संवेदनाओं के संश्लेषण या अंतरमिश्रण से संबद्ध हैं ।
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चक्र तथा संवेदनाएं संपार्श्व की तरह हैं
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जिससे कंपन का अविच्छिनन्न निस्यंदन होता है ।
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ब्रह्माण्ड में सभी वस्तुएं कंपित हो रही हैं
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लेकिन भिन्न गति और नैरंतर्य से ।
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होरस का नेत्र छह प्रतीकों से बना है,
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प्रत्येक में एक संवेदना का प्रतिनिधित्व है ।
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प्राचीन वैदिक प्रणाली की तरह,
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विचार को संवेदना के रूप में माना गया है ।
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शरीर द्वारा संवेदनाओं की अनुभूति
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के साथ-साथ विचार प्राप्त होते हैं।
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वे उसी कंपन स्रोत से उत्पन्न होते हैं ।
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चिंतन बस एक साधन है ।
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छह संवेदनाओं में एक ।
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लेकिन हमने इसे ऐसी उच्च स्थिति में विकसित किया है कि हम
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स्वयं की पहचान अपने विचारों से करते हैं ।
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वास्तव में यह तथ्य कि हम छह संवेदनाओं में एक के रूप में
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चिंतन की पहचान नहीं करते, अत्यंत महत्वपूर्ण है ।
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हम चिंतन में ऐसे लिप्त हैं कि सोच-विचार को संवेदना के रूप में
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व्याख्यायित करना मछली को जल के बारे में बताने की तरह हैं ।
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जल, कैसा जल?
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उपनिषदों में कहा गया है, वह नहीं जिसे नेत्र देख सकता है,
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बल्कि वह जिसके माध्यम से नेत्र देखता है।
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उसे शाश्वत ब्रह्म के रूप में जानें, न कि वह जिसकी लोग यहाँ आराधना करते हैं ।
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उसे नहीं जिसे कान सुन सकते हैं बल्कि वह, जिससे कान सुनते हैं ।
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उसे शाश्वत ब्रह्म जानें न कि वह जिसकी लोग यहाँ आराधना करते हैं ।
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वह नहीं जिसे बोलना स्पष्ट कर सकता है बल्कि वह, जिसके द्वारा बोल उजागर होते हैं ।
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उसे शाश्वत ब्रह्म जानें न कि वह जिसकी लोग यहाँ आराधना करते हैं ।
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वह नहीं जो मस्तिष्क सोच सकता है, बल्कि वह, जिससे मस्तिष्क सोचता है ।
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उसे शाश्वत ब्रह्म जानें न कि वह जिसकी लोग यहाँ आराधना करते हैं ।
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गत दशक में, मस्तिष्क के
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अनुसंधान ने बड़ी प्रगति की है ।
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वैज्ञानिकों ने न्यूरो प्लास्टिीसिटी की खोज की;
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एक ऐसा शब्द जो यह विचार व्यक्त करता है कि मस्तिष्क के भौतिक तार,
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इसके माध्यम से संचरित होने वाले विचारों के अनुसार परिवर्तित हो जाते हैं ।
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कनाडाई मनोवैज्ञानिक डोनाल्ड हेब्ब ने जैसा इसे स्पष्ट किया “तंत्रिका-कोशिकाएँ,
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जो एक साथ सक्रिय होती है, एक साथ जुड़ती है ”।
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तंत्रिका-कोशिका एक साथ जुड़ने का अभिप्राय है जब कोई व्यक्ति सतत ध्यान की मनोदशा में होता है ।
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इसका अर्थ हुआ कि आपके द्वारा वास्तविकता के अपने
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आत्मनिष्ठ अनुभव को निर्देशित करना संभव है।
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शाब्दिक रूप में, यदि आपके विचार भय, चिंता, उद्विग्नता तथा नकारात्मकता से परिपूर्ण हैं,
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तो आप इन विचारों को अधिकाधिक पनपने के लिए संयोजन बढ़ाते हैं ।
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यदि आप अपने विचारों को प्रेम, दया,
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कृतज्ञता तथा प्रसन्नता के लिए निर्देशित करते हैं,
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तो आप उन अनुभवों की पुनरावृत्ति के लिए तार सृजित करते हैं ।
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लेकिन तब क्या करें यदि हम हिंसा तथा पीड़ा से घिरे हों ?
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क्या यह भ्रांति या महात्वाकांक्षी विचार जैसा नहीं ?
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न्यूरोप्लास्टिसिटी उस आधुनिक धारणा के समान नहीं है जैसे आप सकारात्मक
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सोच से अपनी वास्तविकता का सृजन कर सकते हैं ।
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यह वास्तव में वही है जिसे बुद्ध ने
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2500 वर्ष पूर्व सिखाया था ।
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विपासना-ध्यान या अंतर्दर्शी-ध्यान को आत्मनिर्देशित न्यूरोप्लास्टीसिटी
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के रूप में वर्णित किया जा सकता है ।
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आप अपनी वास्तविकता ठीक उसी रूप में स्वीकारते हैं – जैसा कि वह वास्तव में है ।
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लेकिन आप विचार के पूर्वाग्रह या प्रभाव के
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बिना कंपायमान या ऊर्जावान स्तर
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पर संवेदन की गहराई में अनुभव करते हैं ।
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तना के गहन तल पर सतत ध्यान के माध्यम से वास्तविकता
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की समूची विभिन्न धारणा के लिए तार उत्पन्न हो जाते हैं ।
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अधिकांशतः हम इसके विपरीत सोचते हैं ।
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हम अपने तंत्रिकीय संजाल से बाहरी विश्व आकार पर सतत विचार करते रहते हैं लेकिन
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हमारे आंतरिक समत्व को बाहरी घटनाओं पर आश्रित रहने की आवश्यकता नहीं है।
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परिस्थितियों का कोई महत्व नहीं।
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केवल मेरी चेतना का महत्व है।
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संस्कृत में ध्यान का अर्थ है परिमापन से मुक्ति ।
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सभी तुलनाओं से मुक्त ।
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सभी अच्छाइयों (आने वाली स्थितियों) से मुक्त ।
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आप कुछ और बनने का प्रयास नहीं कर रहे हो ।
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आप जो हैं उसी में संतुष्ट हैं ।
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भौतिक यथार्थ की पीड़ाओं से ऊपर उठने का
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मार्ग इसे पूर्ण रूप से स्वीकारने में ही है ।
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यह मानना कि हां यह है ।
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इसलिए यह आपके भीतर घटित हो जाता है,
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न कि आप इसके भीतर होते हो ।
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कोई व्यक्ति इस प्रकार कैसे रह सकता है
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कि चेतना अपनी अंतर्वस्तु से अधिक देर तक न टकराए?
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कैसे कोई व्यक्ति ह्रदय से छोटी-छोटी महत्वाकांक्षाओं को हटा सकता है ।
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चेतना में संपूर्ण क्रांति होनी चाहिए ।
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बाहरी संसार से आंतरिक संसार की ओर अभिविन्यास में मूलभूत रूपांतरण ।
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यह इच्छा या केवल प्रयास द्वारा लाई गई क्रांति नहीं है ।
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बल्कि यह समर्पण से संभव है ।
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वास्तविकता की यथावत् स्वीकृति । (“केवल ह्रदय से ही आप आकाश छू सकते हैं”- रूमी)
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ईसा के खुले ह्रदय की छवि इस विचार को गहनता से संप्रेषित करती है
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कि व्यक्ति को सभी प्रकार के कष्टों के लिए तैयार रहना चाहिए,
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यदि व्यक्ति को विकासात्मक स्रोत के लिए अपने को खुला रखना है,
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तो उसे यह सब स्वीकारना चाहिए।
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इसका अर्थ यह नहीं कि आप पर-पीड़ित बन जाओ,
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आप दुख की ओर न देखो,
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लेकिन जब वह आए,
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जो अनिवार्यतः होता है, तो आप इसकी वास्तविकता को
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स्वीकारें न कि किसी अन्य वास्तविकता की अभिलाषा करें।
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हवाईवासियों का पुराना विश्वास है कि केवल
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हृदय के माध्यम से ही हम सत्य पा सकते हैं ।
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हृदय की अपनी बुद्धिमत्ता मस्तिष्क से विशिष्ट होती है ।
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मिस्रवासियों का विश्वास है कि हृदय मस्तिष्क नहीं,
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मानव बुद्धिमत्ता का स्रोत है ।
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हृदय को ही आत्मा तथा
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व्यक्तित्व का केन्द्र माना गया।
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यह हृदय के माध्यम से ही संभव हुआ है कि दिव्यात्मा ने प्राचीन
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मिस्रवासियों को उनके सच्चे मार्ग का ज्ञान दिया ।
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इस कथन में हृदय के सारतत्व को वर्णित किया गया है । "
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इसे अच्छा समझा गया है कि सरल
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हृदय से जीवन के पार जाएँ ।
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इसका तात्पर्य है कि आपने ठीक से जिया ।
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एक वैश्विक या आदर्श स्थिति यह है कि हृदय केन्द्र के जागृत
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होने पर अपनी ऊर्जा की प्रक्रिया में लोगों को
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ब्रह्माण्ड की ऊर्जा का अनुभव हो जाता है ।
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जब आप स्वयं को इस प्रेम की अनुभूति करने देते हैं,
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प्रेम अनुभव करने लगते हैं,
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जब आप अपने आंतरिक संसार को बाहरी संसार से संबद्ध करते हैं,
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तो सब एकाकार हो जाता है ।
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कोई तारों के संगीत का अनुभव कैसे करता है?
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हृदय कैसे खुलता है ?
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श्री रमण महर्षि ने कहा है “ईश्वर आपके भीतर है,
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आपकी तरह है,
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और ईश्वर अनुभूति या आत्मानुभूति
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के लिए आपको कुछ नहीं करना है।
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यह पहले ही आपकी वास्तविक और प्राकृतिक स्थिति है ।
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सभी प्रकार की अभिलाषाओं –
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याचनाओं को त्याग दें,
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अपना ध्यान भीतर मोड़ें और अपना मन `स्व` को समर्पित कर दें,
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अपने ह्रदय में उतर जाएं ।
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इसे अपने वर्तमान का जीवंत अनुभव बनाने के लिए
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आत्मान्वेषण एक प्रत्यक्ष तथा तात्कालिक मार्ग है ।”
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जब आप ध्यानमग्न होते हैं और अपने भीतर, अपनी आंतरिक जीवंत संवेदनाएं देखते हैं,
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तो वास्तव में आप अपना परिवर्तन देखते हैं ।
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परिवर्तन की यह शक्ति, ऊर्जा परिवर्तन के आकार में
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उद्भूत होती है और आगे बढ़ती जाती है ।
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वह मात्रा, जिसमें व्यक्ति विकसित या जागृत हुआ है,
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वह दशा है जिसमें व्यक्ति ने प्रत्येक क्षण
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को अंगीकार करने के लिए क्षमता
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अर्जित की है या परिस्थितियों, पीड़ा और
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आनंद के सतत परिवर्तित मानवीय प्रवाह
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को परमानंद में रूपांतरित कर दिया है ।
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`युद्ध और शांति` के लेखक लियो टॉल्स्टाय ने कहा है
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“प्रत्येक व्यक्ति संसार को बदलने की सोचता है,
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लेकिन कोई भी व्यक्ति स्वयं को बदलने की नहीं सोचता ।”
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डार्विन ने कहा है कि जीव के अस्तित्व के लिए
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अत्यधिक महत्वपूर्ण विशेषता ताकत या बुद्धिमत्ता
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की नहीं बल्कि परिवर्तन के अनुकूलन की है ।
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अंगीकार करने में कुशल हो जाना चाहिए ।
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यही बुद्ध की शिक्षा है “अणिका” –
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प्रत्येक वस्तु प्रकट और विलुप्त,
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परिवर्तित हो रही है –
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सतत परिवर्तन। पीड़ा इसलिए अस्तित्व में है क्योंकि हम विशिष्ट स्वरूप से मोहासक्त हो जाते हैं ।
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जब आप अणिका को समझते हुए स्वयं के प्रत्यक्षदर्शी अंश से जुड़ जाओगे,
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तो ह्रदय में परमानंद उत्पन्न हो जाएगा ।
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पूरे इतिहास में संतों, महात्माओं और योगियों ने सर्वसम्मति से पवित्र
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मिलन का वर्णन किया है जो ह्रदय में घटित होता है ।
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भले ही क्रॉस के सेंट जॉन का लेखन हो,
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रूमी का काव्य हो
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या भारत की तांत्रिक शिक्षाएं,
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इन सभी भिन्न शिक्षाओं ने ह्रदय के सूक्ष्म रहस्य
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को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है ।
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हृदय में शिव और शक्ति की संयुक्ति है ।
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पुरुषोचित प्रभाव जीवन के सर्पिल में उतरता है
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और स्त्री-सुलभता परिवर्तन के प्रति समर्पण करती है ।
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इन सबका दर्शन
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और बिना शर्त उनकी स्वीकृति ।
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अपना हृदय उद्घाटित करने के उपक्रम में
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आपको परिवर्तन भी स्वीकार करना होगा।
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इस ठोस प्रतीत होने वाले संसार में
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रहने के लिए इसके साथ नृत्य करें,
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इसमें शामिल हों,
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पूर्ण रूप में जिएं,
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पूर्णतः प्रेम करें,
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लेकिन यह भी जानें कि यह नश्वर है और अंततोगत्वा
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सभी रूपाकार समाप्त या परिवर्तित हो जाते हैं ।
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परमानंद वह ऊर्जा है जो नीरवता के प्रति प्रतिक्रिया दर्शाती है ।
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यह चेतना से सभी विषय-वस्तुओं को हटाने से आती है ।
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नीरवता से उत्पन्न यह परमानंद ऊर्जा की विषयवस्तु ही चेतना है ।
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ह्रदय की नई चेतना ।
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चेतना जो सभी प्राणियों से संबद्ध है
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