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IWOW - Part 4 - Beyond Thinking

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    जीवन, स्‍वतंत्रता तथा प्रसन्‍नता का अनुगमन ।
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    हम प्रसन्‍नता को बाहर ढूंढने में जीवन बिता देते
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    हैं मानों वह कोई वस्‍तु हो ।
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    हम अपनी इच्‍छाओं तथा लालसाओं के गुलाम बन गए हैं ।
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    प्रसन्‍नता कोई ऐसी वस्‍तु नहीं जिसे ढूंढा जाए
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    या सस्‍ते सूट की तरह खरीदा जा सके ।
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    यह माया,
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    भ्रम है रूप का
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    अंतहीन खेल ।
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    बौद्ध परंपरा में,
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    संसार या पीड़ा का अंतहीन चक्र,
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    प्रसन्‍नता की अभिलाषा एवं पीड़ा
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    से मुक्ति से परिपूर्ण है ।
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    फ्रॉयड ने इसे `प्रसन्‍नता सिद्धांत़` के रूप में उल्लिखित किया है ।
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    हम वही सब करने का प्रयास करते हैं जिससे प्रसन्‍नता मिले या
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    कुछ ऐसा प्राप्‍त किया जा सके जो हम चाहते
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    हैं या उन सबसे छुटकारा, जो हम नहीं चाहते।
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    यहां तक कि पैरामेशियम जैसा साधारण जीव यह कार्य करता है ।
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    इसे प्रेरक के प्रति प्रतिक्रिया कहा जाता है ।
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    पैरामेशियम से हटकर मनुष्‍यों के अधिक विकल्‍प हैं ।
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    हम सोचने के लिए स्‍वतंत्र हैं और वही समस्‍या का आधार है ।
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    हम चाहते क्‍या हैं, यही सोचना नियंत्रण से बाहर हो गया है ।
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    आधुनिक समाज की दुविधा यही है कि हम विश्‍व को समझना चाहते हैं,
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    लेकिन अपनी आंतरिक चेतना से नहीं,
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    बल्कि वैज्ञानिक साधनों तथा विचारों के माध्‍यम से बाहरी
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    संसार की मात्रात्‍मकता एवं गुणवत्‍ता मूल्‍यांकित करते हैं ।
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    चिंतन से केवल अधिक सोच-विचार एवं अधिकाधिक प्रश्‍न उत्‍पन्‍न होते हैं ।
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    हम जब आंतरिक संसार को जानना चाहते हैं जिससे विश्‍व उत्‍पन्‍न और दिशा-निर्देशित होता है,
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    तब हम इस सारतत्‍व को बाहरी रूप से ग्रहण करने लगते हैं ।
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    हम इसे एक जीवंत वस्‍तु या अपनी प्रकृति
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    के अंतर्भूत के रूप में ग्रहण नहीं करते ।
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    प्रसिद्ध मनश्‍चिकित्‍सक कार्ल जुंग जिन्‍होंने कहा “वह व्‍यक्ति जो बाहर देखता है,
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    वह सपने देखता है और वह जो अपने अंदर झांकता है, वह जागृत हो जाता है ।”
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    जागने और प्रसन्‍न होने की इच्‍छा गलत नहीं है ।
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    गलत यह है कि खुशी को बाहर तलाशा जाए,
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    जबकि इसे केवल भीतर पाया जा सकता है ।
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    भाग चार: सोच से आगे- लेक तहोए, कैलिफोर्निया, एरिक श्मिट– गूगल के सीईओ की
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    शिल्‍पविज्ञानी सम्‍मेलन में 4 अगस्‍त, 2010 को उल्लिखित विस्‍मयकारी सांख्यिकी ।
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    श्मिट के अनुसार, सभ्‍यता के प्रारंभ से 2003 तक हमने
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    जितनी सूचना निर्मित की, उतना अब हम प्रत्‍येक
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    दो दिन में उत्‍पन्‍न करते हैं ।
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    जो है 5 एक्‍साबाईट्स डेटा के बराबर ।
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    मानव इतिहास में कभी इतनी सोच नहीं
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    रही और न ही ग्रह पर इतनी हलचल।
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    ऐसा तो नहीं कि हम हर समय किसी एक समस्‍या का समाधान तो कर नहीं पाते, दो और
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    समस्‍याएं उत्‍पन्‍न करते हैं?
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    क्‍या यह सोच ठीक है जो अत्‍यधिक
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    प्रसन्‍नता की ओर न ले जाए?
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    क्‍या हम अधिक प्रसन्‍न हैं?
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    अधिक स्थितप्रज्ञ?
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    क्‍या इस प्रकार की सोच से अधिक आनंदित हैं?
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    या यह हमें जीवन के गहन तथा
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    अधिक अर्थपूर्ण अनुभव से
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    अलग या असंबद्ध करती है?
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    सोचना, क्रियाशील होना और कार्य करना,
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    इन्हें जीव के अस्तित्व के साथ संतुलित करना होगा ।
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    अंततोगत्‍वा हम मनुष्‍य हैं, मनुष्‍य के कार्य नहीं ।
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    हम परिवर्तन और स्‍थायित्‍व एक साथ चाहते हैं ।
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    हमारा हृदय जीवन के सर्पिल से,
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    परिवर्तन के नियम से असंबद्ध हो गया है,
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    चूंकि हमारा सोचने वाला मस्तिष्‍क हमें स्थिरता,
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    सुरक्षा तथा चेतनाओं के शमन की ओर संचालित करता है ।
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    विकृत सम्‍मोहन से हम हत्‍या, सुनामी,
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    भूकंप एवं युद्धों को देखते हैं ।
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    हम लगातार अपना मन मस्तिष्‍क व्‍यस्‍त रखते हैं और उसमें सूचनाएँ भरते हैं।
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    हर कल्पनीय उपकरण से टीवी कार्यक्रमों का प्रसारण।
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    खेल और पहेलियाँ ।
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    पाठ संदेश ।
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    और प्रत्‍येक संभव मामूली कार्य ।
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    हम अपनी चेतनाओं व संवेदनों के शमन के
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    लिए नई छवियों, नई सूचना तथा नए तरीकों
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    से अनंत बहाव में स्‍वयं घिर जाते हैं ।
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    शांत आंतरिक चिंतन के समय हमें हृदय में एहसास होता
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    है कि हमारी वर्तमान वास्‍तविकता से आगे भी जीवन
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    है चूंकि हम भूखे प्रेतों के संसार में जीते हैं ।
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    अनंत लालसाओं से भरे और कभी संतुष्‍ट न होने वाले ।
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    ग्रहों के आसपास हमने इतने आंकड़े फैलाए हैं,
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    जिनमें संसार के निर्धारण और समस्‍याओं के निर्धारण के लिए इतनी सोच,
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    इतने विचार दिए, जो केवल इस कारण से हैं
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    चूंकि ये मस्तिष्‍क से निकले हैं ।
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    सोच ने इतना सारा बखेड़ा पैदा किया है जिसमें रहने के लिए हम अभिशप्‍त हैं ।
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    हम बीमारियों, शत्रुता और समस्‍याओं से जूझते रहते हैं ।
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    विडंबना यह है कि जिसका हम प्रतिरोध करते हैं वही अस्तित्‍व में है ।
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    आप जिसका जितना प्रतिरोध करते हैं, वह उतना ही ताकतवर हो जाता है ।
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    मांसपेशियों के व्‍यायाम की तरह, जिससे आप छुटकारा
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    पाना चाहते हैं, दरअसल उसे मजबूत बना रहे हैं ।
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    ऐसे में, सोचने का विकल्‍प क्‍या है ?
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    इस ग्रह पर अस्तित्‍व बनाए रखने के लिए मनुष्‍य किस अन्‍य प्रक्रिया का प्रयोग कर सकता है?
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    यद्यपि हाल की शताब्दियों में पश्चिमी संस्‍कृति
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    ने चिंतन तथा विश्‍लेषण का प्रयोग करते हुए भौतिक को उद्भासित किया,
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    तथापि अन्‍य प्राचीन संस्‍कृतियों ने आंतरिक विकास
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    के लिए समान रूप से सुविज्ञ प्रौद्योगिकी विकसित की है ।
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    हमारे आंतरिक संसार के साथ हमारा संपर्क टूटने के
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    कारण ही हमारे ग्रह पर असंतुलन उत्‍पन्‍न हुआ है ।
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    प्राचीन आप्‍त वाक्‍य "स्वयं को जानो”
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    को रूप के बाहरी संसार के अनुभव की कामना से‍ प्रतिस्‍थापित किया गया है ।
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    “मैं कौन हूं?” इसका उत्‍तर आपके व्‍यावसायिक कार्ड पर
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    व्‍यवसाय को वर्णित करने जितना सरल नहीं ।
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    बौद्धधर्म में, आप अपनी चेतना की विषयवस्‍तु नहीं हैं ।
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    आप केवल चिंतन या विचारों का संग्रह नहीं,
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    चूंकि चिंतन के पीछे वही एक है जो चिंतन का साक्षी है ।
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    आदेश सूचक `स्वयं को जानो` एक जेन कोआन है, एक अनुत्‍तरित पहेली।
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    अंततोगत्‍वा उत्‍तर जानने के प्रयत्‍न में मस्तिष्‍क थक जाएगा ।
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    केवल अहं अभिज्ञान ही है जिसे उत्‍तर या प्रयोजन चाहिए,
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    किसी कुत्‍ते द्वारा अपनी पूंछ का पीछा करने के समान। आप कौन हैं,
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    इस सत्‍य को उत्‍तर की आवश्‍यकता नहीं,
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    चूंकि सभी प्रश्‍न अहंशील मस्तिष्‍क की देन हैं ।
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    आप मस्तिष्‍क नहीं हैं।
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    सत्‍य अधिक उत्‍तरों में नहीं है बल्कि कम प्रश्‍नों में है।
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    जैसाकि जोसेफ कैंपबेल ने कहा है
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    “मैं उन लोगों में विश्‍वास नहीं करता जो जीवन का अर्थ खोज रहे हैं,
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    बल्कि मैं उन लोगों में विश्‍वास करता हूं जो जीवन का अनुभव कर रहे हैं ।”
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    जब बुद्ध से पूछा गया “आप क्‍या हैं?” तो उन्‍होंने बस कहा,
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    “मैं जागा हुआ हूं” ।
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    जागृत होना, इसका क्‍या अर्थ है ?
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    बुद्ध ने सटीक तौर पर नहीं कहा, चूंकि प्रत्‍येक व्‍यक्ति के जीवन
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    का खिलना अलग है लेकिन उन्‍होंने एक बात कही।
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    यह पीड़ा का अंत है ।
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    प्रत्‍येक बड़ी धा‍र्मिक परंपरा में जागृत
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    अवस्था के लिए एक नाम है।
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    स्‍वर्ग,
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    निर्वाण
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    या मोक्ष ।
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    केवल शांत चित्‍त की आवश्‍यकता है ताकि प्रकृति के बहाव को महसूस किया जा सके -
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    अन्यथा जब आपका चित्‍त शांत हो, तब यह आपके मन में घटित होगा।
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    उस स्‍थैर्य में आंतरिक ऊर्जाएं जागृत हो जाएंगी और आप
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    बिना प्रयास के कार्य संपन्‍न करने में सक्षम हो जाएंगे ।
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    जैसा कि टॉलस्‍टाय ने कहा है “चि चेतना का अनुपालन करता है”।
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    स्थिरता प्राप्‍त होने पर व्‍यक्ति पौधों तथा पशुओं की
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    बुद्धिमत्‍ता भी सुनना आरंभ कर देता है।
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    स्‍वप्‍नों में हल्‍की सी फुसफसाहट को व्‍यक्ति
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    सूक्ष्‍म प्रक्रिया से सीख जाता है,
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    जिससे वे स्‍वप्‍न भौतिक रूप में सामने आ जाते हैं ।
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    ताओ ते चिंग में इस प्रकार के
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    जीवन को “वेइ वू वेइ” कहते हैं ।
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    `करना, न करना` बुद्ध ने इस मार्ग को मध्‍यम मार्ग कहा है जो
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    जागृति की ओर ले जाता है ।
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    अरस्‍तू ने स्वर्णिम मध्यमान को वर्णित किया
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    – दो चरम सीमाओं के बीच मध्‍य, अर्थात् सौंदर्य का मार्ग ।
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    बहुत अधिक प्रयास नहीं, लेकिन बहुत कम भी नहीं।
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    Yचिन एवं यांग का संपूर्ण संतुलन।
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    वेदांत की माया या संभ्रम की धारणा यह है कि हम
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    परिवेश का अनुभव नहीं करते,
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    बल्कि विचारों द्वारा सृजित इसका प्रक्षेपण करते हैं ।
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    निस्‍संदेह आपके विचार कुछेक तरीके से कंपायमान
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    संसार का अनुभव करवाते हैं, लेकिन हमारे
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    आंतरिक समत्‍व को बाहरी घटनाओं की आवश्‍यकता नहीं।
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    बाहरी संसार पर विश्‍वास,
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    विज्ञान के बुनियादी सिद्धांत पर टिका है ।
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    लेकिन हमारी संवेदनाएं हमें केवल अप्रत्‍यक्ष सूचना देती हैं।
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    इस मस्तिष्‍क निर्मित भौतिक संसार के बारे में हमारी धारणाएं संवेदनाओं के
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    माध्‍यम से हमेशा निस्‍यंदित होती हैं और इसलिए हमेशा अपूर्ण रहती हैं ।
  • 12:44 - 12:49
    कंपन का एक क्षेत्र है जो सभी संवेदनों में अंतर्निहित है।
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    ऐसी स्थिति के लोगों को `सिनेस्थेसिया` कहा जाता है,
  • 12:53 - 12:57
    जो कभी-कभार विभिन्‍न तरीकों से इस कंपनशील क्षेत्र का अनुभव करते हैं।
  • 12:57 - 13:02
    `सिनेस्थेसिया`, ध्‍वनियों को एक संवेदन से दूसरे
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    के रंगों या आकारों में देख सकता है।
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    `सिनेस्थेसिया` संवेदनाओं के संश्‍लेषण या अंतरमिश्रण से संबद्ध हैं ।
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    चक्र तथा संवेदनाएं संपार्श्‍व की तरह हैं
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    जिससे कंपन का अविच्छिनन्न निस्यंदन होता है ।
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    ब्रह्माण्‍ड में सभी वस्‍तुएं कंपित हो रही हैं
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    लेकिन भिन्‍न गति और नैरंतर्य से ।
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    होरस का नेत्र छह प्रतीकों से बना है,
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    प्रत्‍येक में एक संवेदना का प्रतिनिधित्‍व है ।
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    प्राचीन वैदिक प्रणाली की तरह,
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    विचार को संवेदना के रूप में माना गया है ।
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    शरीर द्वारा संवेदनाओं की अनुभूति
  • 13:46 - 13:49
    के साथ-साथ विचार प्राप्त होते हैं।
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    वे उसी कंपन स्रोत से उत्‍पन्‍न होते हैं ।
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    चिंतन बस एक साधन है ।
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    छह संवेदनाओं में एक ।
  • 13:58 - 14:02
    लेकिन हमने इसे ऐसी उच्‍च स्थिति में विकसित किया है कि हम
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    स्‍वयं की पहचान अपने विचारों से करते हैं ।
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    वास्‍तव में यह तथ्य कि हम छह संवेदनाओं में एक के रूप में
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    चिंतन की पहचान नहीं करते, अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण है ।
  • 14:13 - 14:18
    हम चिंतन में ऐसे लिप्‍त हैं कि सोच-विचार को संवेदना के रूप में
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    व्‍याख्‍यायित करना मछली को जल के बारे में बताने की तरह हैं ।
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    जल, कैसा जल?
  • 14:32 - 14:35
    उपनिषदों में कहा गया है, वह नहीं जिसे नेत्र देख सकता है,
  • 14:35 - 14:41
    बल्कि वह जिसके माध्‍यम से नेत्र देखता है।
  • 14:41 - 14:48
    उसे शाश्वत ब्रह्म के रूप में जानें, न कि वह जिसकी लोग यहाँ आराधना करते हैं ।
  • 14:48 - 14:54
    उसे नहीं जिसे कान सुन सकते हैं बल्कि वह, जिससे कान सुनते हैं ।
  • 14:54 - 15:01
    उसे शाश्वत ब्रह्म जानें न कि वह जिसकी लोग यहाँ आराधना करते हैं ।
  • 15:03 - 15:09
    वह नहीं जिसे बोलना स्‍पष्‍ट कर सकता है बल्कि वह, जिसके द्वारा बोल उजागर होते हैं ।
  • 15:09 - 15:16
    उसे शाश्वत ब्रह्म जानें न कि वह जिसकी लोग यहाँ आराधना करते हैं ।
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    वह नहीं जो मस्तिष्‍क सोच सकता है, बल्कि वह, जिससे मस्तिष्‍क सोचता है ।
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    उसे शाश्वत ब्रह्म जानें न कि वह जिसकी लोग यहाँ आराधना करते हैं ।
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    गत दशक में, मस्तिष्‍क के
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    अनुसंधान ने बड़ी प्रगति की है ।
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    वैज्ञानिकों ने न्यूरो प्‍लास्टिीसिटी की खोज की;
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    एक ऐसा शब्द जो यह विचार व्यक्त करता है कि मस्तिष्‍क के भौतिक तार,
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    इसके माध्‍यम से संचरित होने वाले विचारों के अनुसार परिवर्तित हो जाते हैं ।
  • 16:21 - 16:24
    कनाडाई मनोवैज्ञानिक डोनाल्‍ड हेब्‍ब ने जैसा इसे स्पष्ट किया “तंत्रिका-कोशिकाएँ,
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    जो एक साथ सक्रिय होती है, एक साथ जुड़ती है ”।
  • 16:35 - 16:41
    तंत्रिका-कोशिका एक साथ जुड़ने का अभिप्राय है जब कोई व्‍यक्ति सतत ध्‍यान की मनोदशा में होता है ।
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    इसका अर्थ हुआ कि आपके द्वारा वास्‍तविकता के अपने
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    आत्‍मनिष्‍ठ अनुभव को निर्देशित करना संभव है।
  • 16:46 - 16:50
    शाब्दिक रूप में, यदि आपके विचार भय, चिंता, उद्विग्‍नता तथा नकारात्‍मकता से परिपूर्ण हैं,
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    तो आप इन विचारों को अधिकाधिक पनपने के लिए संयोजन बढ़ाते हैं ।
  • 16:56 - 16:59
    यदि आप अपने विचारों को प्रेम, दया,
  • 16:59 - 17:02
    कृतज्ञता तथा प्रसन्‍नता के लिए निर्देशित करते हैं,
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    तो आप उन अनुभवों की पुनरावृत्ति के लिए तार सृजित करते हैं ।
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    लेकिन तब क्‍या करें यदि हम हिंसा तथा पीड़ा से घिरे हों ?
  • 17:10 - 17:16
    क्‍या यह भ्रांति या महात्वाकांक्षी विचार जैसा नहीं ?
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    न्यूरोप्‍लास्टिसिटी उस आधुनिक धारणा के समान नहीं है जैसे आप सकारात्‍मक
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    सोच से अपनी वास्‍तविकता का सृजन कर सकते हैं ।
  • 17:22 - 17:25
    यह वास्‍तव में वही है जिसे बुद्ध ने
  • 17:25 - 17:29
    2500 वर्ष पूर्व सिखाया था ।
  • 17:29 - 17:34
    विपासना-ध्‍यान या अंतर्दर्शी-ध्‍यान को आत्‍मनिर्देशित न्यूरोप्‍ला‍स्‍टीसिटी
  • 17:34 - 17:39
    के रूप में वर्णित किया जा सकता है ।
  • 17:39 - 17:46
    आप अपनी वास्‍तविकता ठीक उसी रूप में स्‍वीकारते हैं – जैसा कि वह वास्तव में है ।
  • 17:46 - 17:51
    लेकिन आप विचार के पूर्वाग्रह या प्रभाव के
  • 17:51 - 17:55
    बिना कंपायमान या ऊर्जावान स्‍तर
  • 17:55 - 17:57
    पर संवेदन की गहराई में अनुभव करते हैं ।
  • 17:57 - 18:01
    तना के गहन तल पर सतत ध्‍यान के माध्‍यम से वास्‍तविकता
  • 18:01 - 18:08
    की समूची विभिन्‍न धारणा के लिए तार उत्‍पन्‍न हो जाते हैं ।
  • 18:18 - 18:21
    अधिकांशतः हम इसके विपरीत सोचते हैं ।
  • 18:21 - 18:28
    हम अपने तंत्रिकीय संजाल से बाहरी विश्‍व आकार पर सतत विचार करते रहते हैं लेकिन
  • 18:28 - 18:35
    हमारे आंतरिक समत्‍व को बाहरी घटनाओं पर आश्रित रहने की आवश्‍यकता नहीं है।
  • 18:35 - 18:38
    परिस्थितियों का कोई महत्‍व नहीं।
  • 18:38 - 18:42
    केवल मेरी चेतना का महत्‍व है।
  • 18:42 - 18:45
    संस्‍कृत में ध्‍यान का अर्थ है परिमापन से मुक्ति ।
  • 18:45 - 18:47
    सभी तुलनाओं से मुक्‍त ।
  • 18:47 - 18:49
    सभी अच्छाइयों (आने वाली स्थितियों) से मुक्‍त ।
  • 18:49 - 18:52
    आप कुछ और बनने का प्रयास नहीं कर रहे हो ।
  • 18:52 - 18:57
    आप जो हैं उसी में संतुष्‍ट हैं ।
  • 18:57 - 19:01
    भौतिक यथार्थ की पीड़ाओं से ऊपर उठने का
  • 19:01 - 19:03
    मार्ग इसे पूर्ण रूप से स्‍वीकारने में ही है ।
  • 19:03 - 19:05
    यह मानना कि हां यह है ।
  • 19:05 - 19:08
    इसलिए यह आपके भीतर घटित हो जाता है,
  • 19:08 - 19:15
    न कि आप इसके भीतर होते हो ।
  • 19:21 - 19:24
    कोई व्‍यक्ति इस प्रकार कैसे रह सकता है
  • 19:24 - 19:27
    कि चेतना अपनी अंतर्वस्‍तु से अधिक देर तक न टकराए?
  • 19:27 - 19:32
    कैसे कोई व्‍यक्ति ह्रदय से छोटी-छोटी महत्‍वाकांक्षाओं को हटा सकता है ।
  • 19:32 - 19:35
    चेतना में संपूर्ण क्रांति होनी चाहिए ।
  • 19:35 - 19:42
    बाहरी संसार से आंतरिक संसार की ओर अभिविन्यास में मूलभूत रूपांतरण ।
  • 19:42 - 19:46
    यह इच्‍छा या केवल प्रयास द्वारा लाई गई क्रांति नहीं है ।
  • 19:46 - 19:49
    बल्कि यह समर्पण से संभव है ।
  • 19:49 - 19:56
    वास्‍तविकता की यथावत् स्‍वीकृति । (“केवल ह्रदय से ही आप आकाश छू सकते हैं”- रूमी)
  • 20:01 - 20:05
    ईसा के खुले ह्रदय की छवि इस विचार को गहनता से संप्रेषित करती है
  • 20:05 - 20:08
    कि व्‍यक्ति को सभी प्रकार के कष्‍टों के लिए तैयार रहना चाहिए,
  • 20:08 - 20:12
    यदि व्‍यक्ति को विकासात्‍मक स्रोत के लिए अपने को खुला रखना है,
  • 20:12 - 20:15
    तो उसे यह सब स्‍वीकारना चाहिए।
  • 20:15 - 20:17
    इसका अर्थ यह नहीं कि आप पर-पीड़ित बन जाओ,
  • 20:17 - 20:19
    आप दुख की ओर न देखो,
  • 20:19 - 20:23
    लेकिन जब वह आए,
  • 20:23 - 20:27
    जो अनिवार्यतः होता है, तो आप इसकी वास्‍तविकता को
  • 20:27 - 20:32
    स्‍वीकारें न कि किसी अन्‍य वास्‍तविकता की अभिलाषा करें।
  • 20:32 - 20:34
    हवाईवासियों का पुराना विश्‍वास है कि केवल
  • 20:34 - 20:37
    हृदय के माध्‍यम से ही हम सत्‍य पा सकते हैं ।
  • 20:37 - 20:44
    हृदय की अपनी बुद्धिमत्‍ता मस्तिष्‍क से विशिष्‍ट होती है ।
  • 20:44 - 20:48
    मिस्रवासियों का विश्‍वास है कि हृदय मस्तिष्‍क नहीं,
  • 20:48 - 20:49
    मानव बुद्धिमत्‍ता का स्रोत है ।
  • 20:49 - 20:52
    हृदय को ही आत्‍मा तथा
  • 20:52 - 20:55
    व्‍यक्तित्‍व का केन्‍द्र माना गया।
  • 20:55 - 20:58
    यह हृदय के माध्‍यम से ही संभव हुआ है कि दिव्‍यात्‍मा ने प्राचीन
  • 20:58 - 21:05
    मिस्रवासियों को उनके सच्‍चे मार्ग का ज्ञान दिया ।
  • 21:06 - 21:08
    इस कथन में हृदय के सारतत्‍व को वर्णित किया गया है । "
  • 21:08 - 21:11
    इसे अच्‍छा समझा गया है कि सरल
  • 21:11 - 21:14
    हृदय से जीवन के पार जाएँ ।
  • 21:14 - 21:21
    इसका तात्‍पर्य है कि आपने ठीक से जिया ।
  • 21:22 - 21:25
    एक वैश्विक या आदर्श स्थिति यह है कि हृदय केन्‍द्र के जागृत
  • 21:25 - 21:28
    होने पर अपनी ऊर्जा की प्रक्रिया में लोगों को
  • 21:28 - 21:35
    ब्रह्माण्‍ड की ऊर्जा का अनुभव हो जाता है ।
  • 21:44 - 21:47
    जब आप स्‍वयं को इस प्रेम की अनुभूति करने देते हैं,
  • 21:47 - 21:50
    प्रेम अनुभव करने लगते हैं,
  • 21:50 - 21:53
    जब आप अपने आंतरिक संसार को बाहरी संसार से संबद्ध करते हैं,
  • 21:53 - 21:57
    तो सब एकाकार हो जाता है ।
  • 21:57 - 22:01
    कोई तारों के संगीत का अनुभव कैसे करता है?
  • 22:01 - 22:04
    हृदय कैसे खुलता है ?
  • 22:04 - 22:09
    श्री रमण महर्षि ने कहा है “ईश्‍वर आपके भीतर है,
  • 22:09 - 22:12
    आपकी तरह है,
  • 22:12 - 22:14
    और ईश्‍वर अनुभूति या आत्‍मानुभूति
  • 22:14 - 22:16
    के लिए आपको कुछ नहीं करना है।
  • 22:16 - 22:20
    यह पहले ही आपकी वास्तविक और प्राकृतिक स्थिति है ।
  • 22:20 - 22:23
    सभी प्रकार की अभिलाषाओं –
  • 22:23 - 22:25
    याचनाओं को त्‍याग दें,
  • 22:25 - 22:28
    अपना ध्‍यान भीतर मोड़ें और अपना मन `स्‍व` को समर्पित कर दें,
  • 22:28 - 22:30
    अपने ह्रदय में उतर जाएं ।
  • 22:30 - 22:35
    इसे अपने वर्तमान का जीवंत अनुभव बनाने के लिए
  • 22:35 - 22:42
    आत्‍मान्‍वेषण एक प्रत्‍यक्ष तथा तात्‍कालिक मार्ग है ।”
  • 22:48 - 22:52
    जब आप ध्‍यानमग्न होते हैं और अपने भीतर, अपनी आंतरिक जीवंत संवेदनाएं देखते हैं,
  • 22:52 - 22:58
    तो वास्‍तव में आप अपना परिवर्तन देखते हैं ।
  • 22:58 - 23:01
    परिवर्तन की यह शक्ति, ऊर्जा परिवर्तन के आकार में
  • 23:01 - 23:04
    उद्भूत होती है और आगे बढ़ती जाती है ।
  • 23:04 - 23:09
    वह मात्रा, जिसमें व्‍यक्ति विकसित या जागृत हुआ है,
  • 23:09 - 23:11
    वह दशा है जिसमें व्‍यक्ति ने प्रत्‍येक क्षण
  • 23:11 - 23:13
    को अंगीकार करने के लिए क्षमता
  • 23:13 - 23:16
    अर्जित की है या परिस्थितियों, पीड़ा और
  • 23:16 - 23:20
    आनंद के सतत परिवर्तित मानवीय प्रवाह
  • 23:20 - 23:27
    को परमानंद में रूपांतरित कर दिया है ।
  • 23:29 - 23:33
    `युद्ध और शांति` के लेखक लियो टॉल्‍स्‍टाय ने कहा है
  • 23:33 - 23:36
    “प्रत्‍येक व्‍यक्ति संसार को बदलने की सोचता है,
  • 23:36 - 23:44
    लेकिन कोई भी व्‍यक्ति स्‍वयं को बदलने की नहीं सोचता ।”
  • 23:45 - 23:48
    डार्विन ने कहा है कि जीव के अस्तित्‍व के लिए
  • 23:48 - 23:52
    अत्‍यधिक महत्‍वपूर्ण विशेषता ताकत या बुद्धिमत्‍ता
  • 23:52 - 23:59
    की नहीं बल्कि परिवर्तन के अनुकूलन की है ।
  • 24:09 - 24:12
    अंगीकार करने में कुशल हो जाना चाहिए ।
  • 24:12 - 24:15
    यही बुद्ध की शिक्षा है “अणिका” –
  • 24:15 - 24:20
    प्रत्‍येक वस्‍तु प्रकट और विलुप्‍त,
  • 24:20 - 24:22
    परिवर्तित हो रही है –
  • 24:22 - 24:29
    सतत परिवर्तन। पीड़ा इसलिए अस्तित्व में है क्योंकि हम विशिष्‍ट स्वरूप से मोहासक्‍त हो जाते हैं ।
  • 24:32 - 24:35
    जब आप अणिका को समझते हुए स्वयं के प्रत्यक्षदर्शी अंश से जुड़ जाओगे,
  • 24:35 - 24:42
    तो ह्रदय में परमानंद उत्‍पन्‍न हो जाएगा ।
  • 25:13 - 25:20
    पूरे इतिहास में संतों, महात्‍माओं और योगियों ने सर्वसम्‍मति से पवित्र
  • 25:27 - 25:31
    मिलन का वर्णन किया है जो ह्रदय में घटित होता है ।
  • 25:31 - 25:34
    भले ही क्रॉस के सेंट जॉन का लेखन हो,
  • 25:34 - 25:36
    रूमी का काव्‍य हो
  • 25:36 - 25:40
    या भारत की तांत्रिक शिक्षाएं,
  • 25:40 - 25:42
    इन सभी भिन्‍न शिक्षाओं ने ह्रदय के सूक्ष्‍म रहस्‍य
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    को अभिव्‍यक्‍त करने का प्रयास किया है ।
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    हृदय में शिव और शक्ति की संयुक्ति है ।
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    पुरुषोचित प्रभाव जीवन के सर्पिल में उतरता है
  • 25:55 - 25:59
    और स्‍त्री-सुलभता परिवर्तन के प्रति समर्पण करती है ।
  • 25:59 - 26:00
    इन सबका दर्शन
  • 26:00 - 26:07
    और बिना शर्त उनकी स्‍वीकृति ।
  • 26:07 - 26:08
    अपना हृदय उद्घाटित करने के उपक्रम में
  • 26:08 - 26:12
    आपको परिवर्तन भी स्वीकार करना होगा।
  • 26:12 - 26:14
    इस ठोस प्रतीत होने वाले संसार में
  • 26:14 - 26:16
    रहने के लिए इसके साथ नृत्‍य करें,
  • 26:16 - 26:17
    इसमें शामिल हों,
  • 26:17 - 26:18
    पूर्ण रूप में जिएं,
  • 26:18 - 26:20
    पूर्णतः प्रेम करें,
  • 26:20 - 26:23
    लेकिन यह भी जानें कि यह नश्‍वर है और अंततोगत्‍वा
  • 26:23 - 26:30
    सभी रूपाकार समाप्‍त या परिवर्तित हो जाते हैं ।
  • 26:30 - 26:34
    परमानंद वह ऊर्जा है जो नीरवता के प्रति प्रतिक्रिया दर्शाती है ।
  • 26:34 - 26:38
    यह चेतना से सभी विषय-वस्‍तुओं को हटाने से आती है ।
  • 26:38 - 26:42
    नीरवता से उत्‍पन्‍न यह परमानंद ऊर्जा की विषयवस्‍तु ही चेतना है ।
  • 26:42 - 26:45
    ह्रदय की नई चेतना ।
  • 26:45 - 26:49
    चेतना जो सभी प्राणियों से संबद्ध है
Title:
IWOW - Part 4 - Beyond Thinking
Description:

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Video Language:
English
Team:
Awaken the World
Project:
02- Inner Worlds, Outer Worlds
Duration:
31:56

Hindi subtitles

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