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जय भगवान

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    मूजी बाबा के साथ सैर
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    जय भगवान
    06/08/2017
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    तो हम चल रहे हैं,
    सुबह का वक़्त है।
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    अभी अभी उषा की पहली किरणें फूटी हैं
    और यह बहुत मनोहर है
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    इस तरह जंगल के साथ साथ चलना।
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    तो हम एक साथ कहते हैं, 'जय भगवान्, जय भगवान् '।
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    दिल यह व्यक्त करना चाहता है।
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    कि भगवान् दरअसल है क्या?
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    मेरा कहना है की भगवान् सर्वस्व है,
    सर्व-व्यापक, केवल एक,
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    दो नहीं हैं।
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    शायद इसके अलग अलग नाम हैं।
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    जैसा मैंने पहले कहा
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    अज्ञानी कल्पना करते हैं
    कि हम अलग-अलग भगवानों की पूजा करते हैं।
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    लेकिन असल में, हम सभी
    एक ही भगवान को अलग-अलग तरह से पूज रहे हैं,

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    अलग अलग विधियों से।
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    हर कोई ईश्वर को अपने रास्ते से मिले।
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    किन्तु हम कहते हैं, यह न कहें कि
    भगवान् क्या है या क्या नहीं है।
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    इससे बेहतर है कि तुम अपना ध्यान
    अंदर लगाओ और चुप रहो,
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    जब तक तुम यह नहीं पा लेते कि तुम्हारा ईश्वर यहाँ है।
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    क्योंकि ईश्वर सबसे आतंरिक तत्व है,
    सबसे आतंरिक तत्व,
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    लेकिन वह हर चीज़ में समाया है, हर चीज़ में!
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    चाहे तुम उसे पुरुष कहो या स्त्री या वस्तु
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    या सर्वत्र-ता या होना या सदृश-ता,
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    या ताओ या चाहे कुछ भी,
    इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता।
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    जैसे भगवान् कृष्ण ने कहा,
    एक तरह से सर्वोच्च परमेश्वर की ओर से
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    वे कहते हैं,
    'जिस भी रूप में मानव ईश्वर की उपासना करें,
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    सब उपासना मुझ तक आती है'।
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    मतलब मैं कृष्ण नहीं,
    किन्तु मैं, सर्वोच्च परमेश्वर, सर्वोच्च परमात्मा।
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    तो क्या कहा जाये?
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    और येसु कहते हैं,
    'मैं और मेरे पिता एक हैं'।
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    मतलब, बराबर नहीं,
    यद्यपि मैं सामंजस्य में हूँ।
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    मैं ईश्वर मे हूँ और ईश्वर मुझ में है।
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    हमें ईश्वर को कोई रूप
    देने की ज़रूरत नहीं है,
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    क्योंकि दरअसल ईश्वर अरूप है, रूप के परे।
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    यह वह सर्वोच्च प्रज्ञा है
    जो सबको घेरे है
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    और सबमें समायी है।
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    तो मुझे ईश्वर से बाहर कुछ नहीं दिखता।
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    और धीरे धीरे, साधक जान जाता है
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    कि वे अपनी स्थानबद्ध चेतना खो देते हैं,
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    जिसने व्यक्ति-रूप लिया हुआ है
    और बहुत सीमित है
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    और इसीलिए सनकी स्वभाव
    व् धारणाओं से भरी हुई है,
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    जो असुरक्षा व् डर से भरी हुई है,
    वह विस्तृत हो जाती है।
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    तब चेतना विस्तृत
    व् पूर्ण व् सम्पूर्ण प्रतीत होती है।
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    हम अहम् की सीमित हद से व धारणाओं से
    मुक्त होते हैं और बढ़ते हैं ....
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    जितना अधिक तुम अपने स्रोत को पहचानोगे,
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    उतना अधिक तुम हृदय में ईश्वर को पाओगे।
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    और हम में अभी भी अलग व्यक्तित्व होने का
    एहसास होता है, जो ठीक भी है।
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    जैसे कि तुम अलग व्यक्तित्व भी हो
    और सार्वभौमिक भी।
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    तुम कर्ता भी हो और अकर्ता भी,
    और उनके परे भी।
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    हम यह खोज पा रहे हैं।
    कितनी अद्भुत, स्वादिष्ट मिठास
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    इस सामंजस्य में खोजना।
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    कुछ भी बाहर नहीं छूटा है,
    किसी के प्रति पक्षपात नहीं है।
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    यह बस सामंजस्य की भूमि है,
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    और इस भूमि की सुगंध
    आनंद व् अखंड शांति
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    व् कभी कम न होने वाला, अवर्णनीय प्रेम
    व् खुलापन व् ज्ञान है।
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    यह हमारी सुगंध है जब हम
    अहम्-भाव की जकड़ से
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    व् मनोवैज्ञानिक मन से व् उसके अनुकूलन से
    मुक्त होते हैं।
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    फिर, हम ईश्वर के बारे में कहते हैं
    विशाल शांति, विशाल अस्तित्व।
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    किन्तु दरअसल ऐसा कोई शब्द नहीं है
    जो उसे समाहित कर सके जो वह है।
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    हम केवल सहजज्ञान से बोल सकते हैं
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    और रूपक या प्रतीक के रूप में
    शब्दों का प्रयोग कर सकते हैं,
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    क्योंकि वह इन सबके परे है।
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    किन्तु परे फ़ासले के रूप में नहीं,
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    अपितु सूक्ष्मता व् पवित्रता के रूप में।
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    और फिर भी, वह किसी चीज़ से अलग नहीं है।
    यही विरोधाभास है।
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    लेकिन किसके लिए?
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    सब बस यही कहना शुरू करें, 'धन्यवाद'।
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    'धन्यवाद, धन्यवाद, धन्यवाद, धन्यवाद।'
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    शायद शुरू में हम निश्चित न हों,
    क्योंकि मन बहुत कठोर होता है
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    और बहुत कृतघ्न।
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    लेकिन बस यह कहना शुरू करें,
    'धन्यवाद, धन्यवाद, धन्यवाद, धन्यवाद।
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    अस्तित्व को धन्यवाद।
    ईश्वर को धन्यवाद। जीवन को धन्यवाद।
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    इन्द्रियों के लिए धन्यवाद।
    विवेक के लिए धन्यवाद।'
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    और धीरे धीरे यह बढ़ेगा,
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    कृपा व् आशीर्वाद की एक विशाल वर्षा में।
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    मैं सबके लिए पूर्ण शांति और पूर्ण प्रेम
    की अभिलाषा करता हूँ
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    उसकी बढ़ती पहचान में
    जो कालातीत व् अनश्वर है,
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    हृदय में वह विशुद्ध चेतना।
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    धन्यवाद, धन्यवाद. धन्यवाद।
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    कॉपीराइट @. 2017 मूजी मीडिया लिमिटेड
    सर्वाधिकार आरक्षित।
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    इस रिकॉर्ड का कोई भाग
    मूजी मीडिया लि की प्रत्यक्ष
  • 6:05 - 6:08
    अनुमति बिना पुनःप्रस्तुत
    नहीं किया जा सकता
Title:
जय भगवान
Description:

मूजी बाबा के साथ सैर
इस सुन्दर सुबह की सैर में मूजी ईश्वर के स्वरुप के बारे में, उस परम प्रज्ञा के बारे में जो शब्दों व् रूप के परे है, औरअपने अहम् का त्याग कर के तथा अपन सत्य स्वरुप के प्रति जागृत हो कर कैसे हम भगवान् को जान सकते हैं, इनके बारे में बात करते हैं।

हमें ईश्वर को कोई रूप देने की ज़रूरत नहीं है,
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2:27.36
क्योंकि दरअसल ईश्वर अरूप है, रूप के परे। यह वह सर्वोच्च प्रज्ञा है
जो सबको घेरे है
और सबमें समायी है।
तो मुझे ईश्वर से बाहर कुछ नहीं दिखता।
जितना अधिक तुम अपने स्रोत को पहचानोगे,
उतना अधिक तुम हृदय में ईश्वर को पाओगे।
अस्तित्व को धन्यवाद।
ईश्वर को धन्यवाद। जीवन को धन्यवाद!"
~

संगीत: गोविन्द, एश्ले व् इगोर द्वारा संगीत । मोंटे सहज शिविर २०१७ द्वारा रिकॉर्ड किया गया।

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Video Language:
English
Duration:
06:09
pd12 edited Hindi subtitles for Glory to God
Sonam Aparna edited Hindi subtitles for Glory to God
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