कुछ भी समझ नहीं पाए आप, है न ? [हँसी] वर्तमान भारत में 18 करोड़ श्रवण दिव्यांग है जो इस कष्ट में जीते है साल दर-साल, दिन-प्रति-दिन, उस दुनिया को समझने की कोशिश में, जिसे वे सुन नहीं सकते। जागरूकता की भारी कमी और सामाजिक कलंक उस नवजात के होने की, जो दिव्यांग है अभिभावक मारे-मारे फिरते हैं के किस प्रकार शिशु का पालन-पोषण करें और उन्हें बताया जाता है यद्यपि वे सुन नहीं सकते उनके ध्वनि-अंग ख़राब नहीं है। उनके स्वर-रज्जु बेक़ार नहीं हैं। और उन्हें अंततः सिखाया जा सकता है किस प्रकार बोलना सीखें। एक यात्रा आरम्भ होती है और वर्षों बीत जाते हैं, सिखाने की कोशिश में, इन नन्हें बालकों को, सुस्पष्ट उच्चारण उन अश्रवणीय शब्दों का। यहाँ तक की परिवार में भी यह नन्हा बालक चाहता है अपने अभिभावक से संवाद करना उसे भी हिस्सा बनना है पारिवारिक वार्तालाप का। पर वह असहाय समझ नहीं पाता क्यूँ कोई भी उसकी नहीं सुन रहा? अतः वह खुद को अकेला पाता है और चूक जाता है इस निर्णायक योग्यता को पाने में जो एक जरुरत है हमारी, बढ़ने पर। वह रोज स्कूल जाता है इस आशा के साथ की अब परिस्थितियां बदलेगी किन्तु वह देखता है, अपने अध्यापकों के मुख खुलते और बंद होते और विचित्र चीज़ें लिखते, तख़्ती पर। बिना समझे, क्यूंकि वे सुन नहीं सकते, उसे अपने कॉपी पर छापते है और परीक्षा-काल में उलट देते है और किसी प्रकार रटकर और कुछ अनुग्रह पर ये स्कूल की पढाई ख़त्म करते हैं, १०वीं तक। इनके रोजगार पाने की संभावना क्या होगी? इस बच्चे को देखिये, कोई वास्तविक ज्ञान नहीं, दृश्य शब्द, तीस से चालीस शब्दों की शब्दावली वह भावनात्मक रूप से असुरक्षित है, और शायद पूरी दुनिया से ख़फा भी, जिसने, वे महसूस करते है, उसे जान-बुझ कर लाचार बनाया। वे कहाँ और कैसे काम करें? तुच्छ काम, कौशलविहीन कार्य, प्रायः अपमानजनक स्थितियों में। यहाँ से मेरे जन्म-यात्रा २००४ से शुरु हुई। कोई नहीं है, जैसा केली ने बताया, मेरे परिवार में कोई दिव्यांग नहीं है। सिर्फ एक विचित्र खिंचाव और, कोई तर्कसंगत सोच नहीं। मैं इनकी दुनिया में कूद पड़ी और सांकेतिक भाषा सीखा। उस वक्त, यह एक चुनौती थी। कोई नहीं चाहता था, शायद ही कोई जानता था, "यह क्या है जो तुम सीखना चाहती हो, रुमा? यह कोई भाषा है?" फिर भी, सांकेतिक भाषा सीखकर मेरी ज़िंदगी इस समुदाय के लिए खुल गयी जो बाहर से शांत दिखती है, पर भरी पड़ी है जुनून और जिज्ञासा से _ फिर मैंने उनकी कहानियों सुनी वे क्या बनना चाहते है। एक साल बाद, २००५ में, ५००० डॉलर की छोटी पूंजी से, जो एक बीमा योजना के पूरे होने पर मिली, मैंने इस केंद्र की शुरुआत की, एक छोटे से दो कमरे के मकान में, सिर्फ ६ छात्रों के साथ और मैं उन्हें अंग्रेजी सिखाती, सांकेतिक भाषा में। चुनौतियाँ, प्राथमिकताएं उस वक्त की थी, किस प्रकार इन, सिर्फ हाई स्कूल उत्तीर्ण, बच्चों को कंपनियों में वास्तविक रोज़गार के लिए लगाया जाये? गरिमापूर्ण नौकरी, नौकरी जो साबित करें बधिर मूर्ख नहीं हैं? अतः, चुनौतियाँ अपार थी। उनका वर्षों का ठहराव, वर्षों की विरक्ति और अंधकार। इनकी आवश्यक्ता थी खुद पर विस्वास करने की। अभिभावकों को, आश्वस्त करने की उनके बच्चें बधिर हैं पर मूर्ख नहीं। और वे पूरी तरह से सक्षम है अपने दो पैरों पर खड़े होने में। पर सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण, क्या कोई कंपनी ऐसे व्यक्ति को कार्य के लिए चुनेगी जो मूक है, सुन नहीं सकते, और काफी हद तक न लिख सकते है और न पढ़? मैं अपने कुछ व्यावसायिक दोस्तों के साथ बैठी, और अपनी कहानी उन्हें बताया मेरे लिए बधिर होने के क्या मायने है और जाना कंपनियों में कुछ ऐसे निश्चित स्थान है जहाँ ये कार्य कर सकते हैं, और कपनियों में उनका योगदान महत्वपूर्ण होगा। और फिर अल्प साधनों से हमने सबसे प्रथम शुरुआत की व्यावसायिक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम बधिरों के लिए, देश में। प्रशिक्षकों को ढूंढना एक समस्या थी। अतः मैंने इन्हें प्रशिक्षण दिया, अपने छात्रों को, ताकि ये बधिरों के शिक्षक बनें। और यह कार्य उन्होंने अपने हाथों में ली पूरी जिम्मेदारी और गर्व के साथ। तथापि, नियोक्ता संशय में थे। इनकी शिक्षा, योग्यता, १०वीं पास। "नहीं, नहीं, नहीं, रुमा, हम उन्हें काम नहीं दे सकते।" वो एक बड़ी समस्या थी। "और यदि हम उन्हें काम देते भी हैं, हम उनसे संवाद कैसे स्थापित करेंगे? वे न तो पढ़-लिख सकते। और न ही सुन-बोल सकते है।" मैंने उनसे कहा, "कृपया क्या हम एक-एक करके कदम बढ़ा सकते है? क्या हम अपना ध्यान, वो किस कार्य में सक्षम है,पर केंद्रित कर सकते है? उसकी, देख कर समझने की, क्षमता अद्भुत है। और... और यदि यह प्रयोग सफल होता है, या नहीं होता है, अंततः हमें पता तो लगेगा।" यहाँ मैं एक कहानी आपसे साझा करना चाहती हूँ, विशु कपूर की। वह हमारे पास २००९ में आया, हर भाषा से अनभिज्ञ। सांकेतिक भाषा तक नहीं आती थी उसे। सिर्फ आँखों की मदद से चींजो को देखता-समझता था। उनकी माता हताश थी और उन्होंने कहा, "रुमा, क्या मैं इसे कृपया दो घंटे के लिए आपके केंद्र में रख सकती हूँ? मेरे लिए इसे संभालना बहुत ही कठिन हो जाता है, मतलब चौबीसों घंटा इसको देखना हर दिन।" तो मैंने कहा, "हाँ, ठीक है।" एक क्रैश सर्विस के भांति। काफी मेहनत मशक्कत के डेढ़ साल बाद हमने विशु को एक भाषा सिखाई। जैसे ही उसे संवाद करना आ गया और खुद की समझ बढ़ी तो वह जान गया... भले ही वह सुन ना पाए, लेकिन ढेर सारे दूसरे काम करने लगा। उसने पाया की कम्प्यूटर्स पर काम करना उसे भाता है। हमने उसे प्रोत्साहित किया, प्रेरित किया, और उसे अपने आईटी प्रोग्राम में डाला। वो सभी कसौटी पर खरा उतरा, आपको मालूम हो, काफी घबराई हुई थी। एक मौका आया एक दिन एक प्रसिद्ध आईटी कंपनी के बैक एन्ड में नौकरी की, और सिर्फ एक दिशा और अनुभव पाने के लिए, मैंने कहा, "विशु को भी भेजते है इस जॉब इंटरव्यू में।" विशु वहां गया और सारे तकनीकी इम्तहान में सफल रहा। तब भी मैंने कहा, "अह, मैं आशा करती हूँ वह वहां टिक सके कम-से-कम ६ माह भी। " डेढ़ साल गुजर चुके है। विशु आज भी वहां है। पर वहां वह सिर्फ एक, 'ओह, यह बेचारा लड़का श्रव्य माहौल में काम करने के लिए बाध्य', नहीं है। वह जीत रहा है ख्यातियाँ, "माह का श्रेष्ठ कर्मचारी", एक नहीं दो बार। [हर्षध्वनि] और मैं, आज, आप सभी को यह बताना चाहती हूँ, हमें मात्र डेढ़ साल एक बधिर को पढ़ाने और उसे तैयार करने में लगे ताकि वह इस दुनिया के साथ चल सके जिसे हम जानते है। ६ साल के इस छोटे अंतराल में, आज मेरे ५०० अद्भुत युवा छात्र उद्योग के कुछ शीर्ष संगठनों में कार्यरत है: ग्राफ़िक डिज़ाइन प्रोफाइल्स में, आईटी संगठनों के बैक एन्ड में, हॉस्पिटैलिटी में, बाधाओं को लांघकर सुरक्षा व्यवस्था और बैंक में, और खुदरा विक्री केन्द्रों पर भी, प्रत्यक्ष ग्राहक सेवा देते हुए। (हर्षध्वनि) सामान्य व्यक्तियों से रु-ब-रु होते, के.एफ.सी. में, कॉफी विक्री केंद्रों पर। मैं आप सभी से विदा लेती हूँ एक छोटी-सी सोच के साथ, हाँ, बदलाव संभव है। और इसकी शुरुआत हमारे दृष्टिकोण में एक छोटे बदलाव से होती है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद। (हर्षध्वनि) (करतल ध्वनि) यह सराहना है। यह अंतर्राष्ट्रीय संकेत है सराहना के लिए। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।