मैं अपनी बीवी के लिए कुछ खास करना चाहता था.
और उसी काम ने आज मुझे यहाँ ला खड़ा किया,
नाम, और पैसे भी दिलाए.
तो बात तब की है, जब मेरी नई नई शादी हुई थी.
शादी के पहले पहले दिनों में हर पति अपनी पत्नी
की नज़रों में छा जाना चाहता है. मैं भी यही चाहता था.
एकदिन मैंने पाया कि मेरी पत्नी
कोई चीज़ ऎसे, छुपा कर ले जा रही थी.
मैंने देख लिया. "ये क्या है?' उससे पूछा.
बीवी ने कहा,"तुम्हारे मतलब का कुछ नहीं."
मैंने भाग कर देखा, वो अपने पीछे एक
पोछे जैसा कपड़ा छुपा रही थी.
वैसे कपड़े से तो मैं अपना टू-व्हीलर भी साफ न करूँ!
तब मैं समझा वो क्या था- मासीक धर्म के दिनों से निपटने का
अस्वास्थ्यकर, अस्वच्छ तरीक़ा.
मैंने तुरंत पूछा, तुम ये अस्वास्थ्यकर तरीक़ा क्यों अपना रही हो?
उसने कहा,"मैं भी सैनिटरी पैड के बारे में जानती हूँ,
पर अगर मैं और मेरी बहनें उनका इस्तेमाल करने लगीं,
तो महीने के दूध का ख़र्च काटना पड़ेगा.
मुझे जैसे झटका लगा. भला दूध के ख़र्च और
सेनेटरी नैपकिन के इस्तेमाल में क्या संबंध है?
यहाँ सीधा सवाल था ख़र्चा कर पाने की क्षमता का.
मैंने अपनी बीवी को खुश करने के लिए उसे सैनेटरी पैड का पैकेट देने की ठानी.
मैं सैनेटरी पैड ख़रीदने पास के एक दुकान में गया.
दुकानदार ने दाँए-बाँए देखा,
एक अख़बार फैलाया, और पैकेट को उसमें लपेटकर
ऎसे देने लगा, जैसे कोई बहुत ग़लत चीज़ दे रहा हो.
क्यों भई? मैंने कन्डोम तो नहीं मांगा था!
मैंने एक पैड उठाया. मैं देखना चाहता था कि ये था क्या, और इसके अन्दर क्या है?
तो पहली बार, 29 साल की उमर में,
मैंने एक सैनेटरी पैड को अपने हाथ में लिया.
अब आप बताईए: यहाँ कितने आदमी हैं जिन्होंने सैनेटरी पैड हाथ में लिया है?
मुझे पता है, आप में से ऎसा यहाँ कोई नहीं, आखिर ये झमेला भी तो आपका नहीं!
फिर मैंने सोचा, हे भगवान,
ये रूई से बनी कौड़ियों के दाम की सफेद चीज़ को
ये लोग सौ, दो सौ गुना ज़्यादा महँगा बेच रहे हैं!
क्यों ना मैं अपनी नई नवेली बीवी के लिए खुद ही सैनेटरी पैड बनाऊँ?
तो शुरुवात यहीं से हुई, मगर सैनेटरी पैड बनाने के बाद,
मैं उसे परखने कहाँ ले जाता?
आखिर मैं उसकी जाँच किसी लैबोरेटरी में नहीं करवा सकता था.
मुझे किसी महिला वोलन्टियर की ज़रुरत थी. ऎसी महिला इस पूरे भारत में कहाँ मिलती?
ऎसा कोई बैंगलोर में मिलने से तो रहा.
तो समस्या का समाधान यही था: बली का एकलौता उपलब्द्ध बकरा, मेरी बीवी.
मैंने सैनेटरी पैड बनाकर शान्ती को दे दिया--मेरी पत्नी का नाम शान्ती है.
"अपनी आँखे बन्द करो. मैं तुम्हें जो देने जा रहा हूँ,
वो ना तो हीरों का हार है,
ना हीरे की अंगूठी, ना ही कोई चॉकलेट.
मैं तुम्हें रंगीन क़ागज़ में लपेटकर एक सरप्राईज़ देने जा रहा हूँ.
अपनी आँखें बन्द करो."
मैं उसे ये तोह्फा बड़े प्यार से देना चाहता था.
आखिर हमारी अरेन्ज्ड मैरेज थी, लव मैरेज नहीं.
(हँसी)
फिर एकदिन उसने मुझे सीधे कहा, "मैं इसमें तुम्हारा साथ नहीं दूँगी."
मुझे नए उपयोगकर्ता चाहिए थे, तो अब मैंने अपनी बहनों से मदद मांगी.
पर ना बहनें, ना बीवी, इस काम में मदद के लिए कोई तैयार नहीं था.
इसलिए मुझे हमेशा अपने देश के साधू-संतों से जलन होती है.
उनके आस-पास हमेशा महिला स्वेच्छासेवियों की टोली होती है.
मुझे एक भी महिला मदद करने को तैयार नहीं?
और देखिए, साधू-संतों के काम में महिलाएं बुलाने से पहले ही स्वेच्छा-सेवा के लिए जमा हो जाती हैं.
फिर मैने मेडिकल कॉलेज की लड़कियों से मदद लेने की सोची.
मगर उन्होने भी मना कर दिया. आखिरकार, मैने तय किया,
कि मैं खुद ही सैनेटरी पैड पहनकर देखूँगा.
मेरा काम चाँद में क़दम रखने वाले पहले इन्सान
आर्मस्ट्रांग, या पहले एवरेस्ट चढ़ने वाले
तेन्ज़िंग और हिलरी के ही जैसा है
मुरुगनाथन- दुनिया में सैनेटरी पैड पहनने वाला
पहला आदमी!
तो मैने सैनेटरी पैद पहना. एक फुटबॉल बॉटल में जानवर का खून भर कर
यहाँ बाँध दिया,.इससे निकलकर एक ट्युब मेरी चड्डी के अंदर जाती थी.
चलते समय, साईकल चलाते समय, मैं उसको दबाता था,
जिससे ट्युब से ख़ून निकलता था.
इस अनुभव के बाद मैं किसी भी महिला के आगे
ससम्मान सर झुकाना चाहूँगा. वो पाँच दिन मैं ज़िन्दगी भर नहीं भूल सकता--
वो तकलीफ भरे दिन, वो बेचैनी और गीलापन!
हे भगवान, सोच पाना भी मुश्किल है!
पर अब समस्या थी, एक कम्पनी रूई से
नैपकिन बना रही थी. उनका पैड सही काम कर रही थी.
पर मैं भी तो अच्छे रूई से ही सैनेटरी पैड बना रहा था. मगर मेरे बनाए पैड काम नहीं कर रहे थे.
बार बार नाकामी से परेशान होकर मैं ये सब छोड़ देना चाहता था.
पहले आपको पास पैसे होने चाहिए.
पर परेशानी सिर्फ पैसे के ही नहीं थी. चूँकि मेरा काम सैनेटरी नैपकिन जैसी चीज़ को लेकर था,
मुझे हर तरह की परेशानी का सामना करना पड़ा,
यहाँ तक कि अपनी बीवी से तलाक़ का नोटिस भी.
ऎसा क्यों? क्योंकि मैंने मेडिकल कॉलेज की लड़कियों से मदद ली थी.
बीवी को लगा मैं इस काम के बहाने
मेडिकल कॉलेज की लड़कियों से चक्कर चला रहा था.
आखिरकार मुझे पाईन की लकड़ी से बनने वाली
विशेष सेलुलोज़ का पता चला, मगर उससे पैड बनाने के लिए
करोड़ों की लागत वाली ऎसे प्लान्ट की ज़रूरत थी.
रास्ते में फिर रुकावट आ गई.
मैंने और् चार साल बिताए अपने खुद की मशीन बनाने के लिए,
ऎसी एक साधारण, आसान सी मशीन बनाई मैने.
इस मशीन से कोई भी ग्रामीण महिला
बड़े मल्टीनैशनलों के प्लान्ट में लगने वाले कच्चे माल से ही
घर बैठे विश्व स्तर की नैपकिन बना सकती है.
ये मेरी खोज है.
इसके बाद, मैने क्या किया,
किसी के पास कोई पेटेन्ट या आविष्कार होता है,
तो तुरंत वो उससे ये - पैसे- बनाना चाहता है.
मैने ऎसा नहीं किया. मैने उसे बिल्कुल ऎसे ही, छोड़ दिया,
क्योंकि अगर कोई पैसे के पीछे ही भागता रहे,
तो जीवन में कोई सुन्दरता नहीं बचेगी. ज़िन्दगी बड़ी उबाऊ होगी.
बहुत से लोग ढेर सारा पैसा बनाते हैं, करोड़ों,
अरबों रूपए जमा करते हैं.
इस सब के बाद वो आखिर में समाजसेवा करने आते हैं, क्यों?
पहले पैसों का ढेर बनाकर फिर समाजसेवा करने आने का क्या मतलब है?
क्यों ना पहले दिन से ही समाज का सोचें?
इसी लिए, मैं ये मशीन केवल ग्रामीण भारत में,
ग्रामीण महिलाओं को दे रहा हूँ, क्योंकि भारत में,
आपको जानकर आश्चर्य होगा, केवल दो प्रतिशत महिलाएं
सैनेटरी नैपकिन इस्तेमाल करती हैं. बाकी सभी, फटे-पुराने, पोछे-नुमा कपड़े,
पत्ते, भूसा, लकड़ी का बुरादा - इसी सब से काम चलाती हैं- सैनेटरी नैपकिन नहीं.
इस 21वी सदी में भी ये हाल है. इसी वजह से मैने
ये मशीन भारत भर की गरीब महिलाओं को देने की सोची है.
अब तक 23 राज्यों और 6 और देशों में
630 मशीन लग चुके हैं.
बड़े बड़े मल्टीनेशनल और विदेशी कम्पनियों के उत्पादों से जूझकर
जमकर टिके रहने का ये मेरा सातवाँ साल है - इस बात से सभी एम बी ए दंग हैं.
स्कूल की पढ़ाई भी पूरी ना कर पाने वाला कोईम्बटूर का एक साधारण आदमी, कैसे अब तक मार्केट में टिका है?
इसी बात ने मुझे सभी आई आई एम में विज़िटिंग प्रोफेसर और गेस्ट लेक्चरर बना दिया.
(तालियाँ)
विडियो वन चलाईए.
(विडियो) अरूणाचलम मुरुगनाथन: अपने बीवी के हाथ में उसे देखकर मैने पूछा, "तुम इस गन्दे कपड़े का इस्तेमाल क्यों कर रही हो?"
उसने तुरंत जवाब दिया, "मुझे नैपकिन के बारे में पता है, मगर अगर मैं
उनका इस्तेमाल करने लगी, तो हमें हमारे दूध का ख़र्च काटना पड़ेगा."
क्यों ना मैं कम क़ीमत का नैपकिन बनाऊँ?
तो मैने अब तय किया है कि इस नए मशीन को
केवल महिला स्वंय सहायता समूह (एस एच जी) को हिइ बेचूँगा.
यही मेरी सोच है.
पहले आप को नैपकिन बनाने के लिए करोड़ों निवेश करना पड़ता था,
मशीन और बाकी ताम-झाम में. अब, कोई भ्री ग्रामीण महिला आसानी से इसे बना सकती है.
वो लोग पूजा कर रहीं हैं.
(विडियो):(गीत)
ज़रा सोचिए, हारवर्ड, आक्सफोर्ड से पढ़कर आए
दिग्गजों से मुक़ाबला आसान नहीं.
मगर मैने ग्रामीण महीलाओं को इन मल्टीनेशनल से टक्कर लेने की ताक़त दी.
मैं सात साल से अपने पैर जमाए खड़ा हूँ.
अबतक 600 मशीनें लग चुकि हैं. क्या है मेरा मक़सद ?
मैं भारत को अपने जीते जी
100%-सैनेटरी-नैपकिन-इस्तेमाल करने वाला देश बनाना चाहता हूँ.
इस काम से मैं कम से कम दस लाख ग्रामीणों
को रोज़गार दिलाने जा रहा हूँ.
यही वजह है कि मैं पैसे के पीछे नहीं भाग रहा.
मैं एक महत्वपूर्ण काम कर रहा हूँ.
अगर आप किसी लड़की का पीछा करें, वो आपको भाव नहीं देगी.
मगर अगर आप अपना काम ढंग से करें, लड़की आपके पीछे-पीछे आएगी.
बिल्कुल वैसे ही, मैने कभी महालक्ष्मी (पैसे) का पीछा नहीं किया.
महालक्ष्मी ही मेरे पीछे आ रही हैं, और मैं उन्हें अपने पीछे के पॉकेट में रखता हूँ.
सामने के पॉकेट में नहीं, मैं पैसे पीछे के पॉकेट में रखने वाला इन्सान हूँ.
बस, मुझे इतना ही कहना था. स्कूली शिक्षा पूरी ना करने वाले एक आदमी ने
समाज में सैनेटरी पैड ना इस्तेमाल कर पाने की समस्या को समझा.
मैने समस्या का समाधान बनाया. मैं बहुत खुश हूँ.
मैं अपने इस प्रयास को कोई कॉरपोरेट शक्ल नहीं देना चाहता.
मैं इसे एक देसी सैनेटरी पैड आन्दोलन बनाना चाहता हूं, जो आगे
चलकर विश्व भर में फैल जाए. इसलिए मैंने इसकी सारी जानकारी
ओपेन सॉफ्टवेयर की तरह साधारण लोगों की पहुँच में रखी है.
आज 110 देश इससे जुड़ रहे हैं. क्या कहते हैं?
मैं समझता हूँ लोग तीन तरह के होते हैं:
अनपढ़, कम पढ़े लिखे, और बहुत पढ़े लिखे.
एक कम पढ़े लिखे आदमी ने ये कर दिखाया. आप सब
बहुत पढ़े लिखे लोग, आप समाज के लिए क्या कर रहे हैं?
बहुत धन्यवाद आप सभी का. चलता हूँ.
(तालियाँ)