मैं वादा करता हूँ कि मैं गाऊँगा नहीं। मैं आप का इससे बचाव करूंगा । मैं एक इतिहासकार हूँ, दर्शनशास्त्र में पृष्ठभूमि के साथ, और मेरे अनुसंधान का मुख्य क्षेत्र है दक्षिण-पूर्व एशिया का इतिहास, उन्नीसवी सदी औपनिवेशिक दक्षिण-पूर्व एशिया को मध्य नज़र रखते हुए। पिछले कुछ सालोंन से मैं उन विचारों के इतिहास को ढूँढ रहा हूँ, जो हमारे दृष्टिकोण को आकार देते हैं, जिस तरीक़े से हम दक्षिण-पूर्व एशिया में, अपने आप को देखते हैं, अपने आप को समझते हैं। अब एक ऐसी चीज़ है, जो मैं, एक इतिहासकार कि तरह समझ नहीं पाता, और यह एक ऐसी चीज़ है, जो मुझे काफ़ी लम्बे समय से तंग कर रही है। यह चीज़ है, की क्यूँ, और कैसे, कुछ विचार कभी ख़त्म नहीं होते। और मुझे नहीं पता क्यूँ, विशेष में, मैं समझना चाहता हुँ, कि उत्तर औपनिवेशिक एशिया में क्यूँ कुछ लोग, सब नहीं, पर क्यूँ कुछ लोग, अपने औपनिवेशिक भूतकाल को अच्छा मानते हैं, उसको गुलाबी नज़रों से देखते हैं जैसे की वह कोई अच्छा या सुहाना समय था, जबकि इतिहासकारों को उस समय की हिंसा और क्रूरता और अत्याचार और इस औपनिवेशिक अनुभव कि गंदी सचाइयाँ पता हैं। चलो ऐसे सोचते हैं। सोचो मैंने अपने लिए काल यंत्र बनाया। (बीप बूप) काल जहाज़ बनाया, अपने आप को मैं 1860 में भेजता हुँ, पैदा होने के एक शताब्दी पहले। अच्छा तो मैं अपने पैदा होने से सौ साल पहले चला गया। अब अगर मैं औपनिवेशिक दक्षिण-पूर्व एशिया में चला जाऊँ, उन्नीस्वी सदी में, मैं प्राध्यापक नहीं होता। इतिहासकारों को पता है ये। लेकिन, फ़िर भी, ऐसे कुछ लोग हैं जो अभी भी इस विचार को मान्ना चाहते हैं कि भूतकाल इतना गंदा नहीं था कि वहाँ एक रोमानी पक्ष था अब यहाँ, एक इतिहासकार की तरह, मैं इतिहास की सीमाओं का सामना करता हूँ। क्यूँकि मैं विचारों की निशानी ढूँढ सकता हूँ। मैं कुछ टकसाली का स्रोत ढूँढ सकता हूँ। मैं आपको बता सकता हूँ किसने सोचा, कब और कहाँ सोचा, और किस किताब में लिखा। पर एक काम है जो मैं नहीं कर सकता: मैं किसी के दिमाग में घुसके, उनका मन नहीं बदल सकता। मुझे लगता है, इस कारण, पिछले कुछ सालों से मेरी मनोविज्ञान जैसी चीज़ों की तरफ़ दिलचस्पी बढ़ गयी है; क्यूँकि इन क्षेत्रों में, विद्वान विचारों की दृढ़ता देखते हैं। क्यूँ कुछ लोगों के दिमाग़ में पूर्वधारणाएँ होती हैं? क्यूँ होती है नफ़रत, क्यूँ लगता है डर? अफ़सोस की बात है कि हम अभी भी ऐसी दुनिया में रहते हैं, जो स्त्री के ख़िलाफ़ है। जातिवाद अभी भी है, डर भी। जैसे की, इस्लामोफोबिया तो अब एक शब्द ही बन गया है। और यह विचार हमारे दिमाग में क्यूँ रह जाते हैं? काफ़ी विद्वानों का मान्ना है, कि जब हम दुनिया को देखते हैं, हम बार-बार कुछ विशिष्ट विचारों के सीमित तालाब पर जाके गिर पड़ते हैं, ऐसे बुनियादी विचारों का तालाब, जिनको कोई चुनौती नहीं देता। अब अपने आप को देखो, कैसे हम, दक्षिण-पूर्व एशिया वाले अपने आप को पूरी दुनिया के सामने दर्शाते हैं। देखिए हम कितनी बार जब अपने आप के बारे में, अपने विचारों एवं अपनी पहचान के बारे में बात करते हैं, हम बार-बार उन्ही विचारों के समूह पर जाके गिर पड़ते हैं जो इतिहास से चलते आ रहे हैं। बहुत ही सरल उदाहरण: हम दक्षिण-पूर्व एशिया में रहते हैं, जो पूरी दुनिया के पर्यटकों में काफ़ी मशहूर है। वैसे मुझे नहीं लगता है कि यह गलत है। मुझे तो अच्छा लगता है कि पर्यटक यहाँ दक्षिण-पूर्व एशिया आते हैं, क्यूँकि यह अपना दुनिया का नज़रिया बढ़ाने का और दुनिया भर की संस्कृतियों से मिलने का एक तरीक़ा है। पर एक बार देखो कैसे हम अपने आप को पर्यटक अभियानों एवं पर्यटक विज्ञापनों से दर्शाते हैं। नारियल का पेड़, केले का पेड़ और एक बंदर तो अवश्य होंगे। (हँसी) और बंदर को तो पैसे भी नहीं मिलते। (हँसी) देखो कैसे हम अपने आप को दर्शाते हैं। कैसे प्रकृति को दर्शाते हैं। कैसे ग्रामीण इलाक़ों को दर्शाते हैं। कैसे अपनी खेती-बाड़ी दर्शाते हैं। अपने टीवी शो देखिए। अपने नाटक देखिए।अपनी फ़िल्में देखिए। यह काफ़ी मामूली चीज़ है, ख़ास तौर पर दक्षिण-पूर्व एशिया में, कि जब आप ये शो देखेंगे, अगर कोई किसी ग्रामीण इलाक़े से हैं, तो वह हमेशा बदसूरत होंगे, अजीब होंगे, मूर्ख होंगे, बे पढ़े-लिखे होंगे। जैसे कि ग्रामीण इलाक़ों के पास देने के लिए कुछ नहीं है। हम प्रकृति को कैसे देखते हैं, जितनी की बात करलें, जितनी भी एशियाई दर्शन, मान एवं संस्कृति की बात करलें, जितना भी अपनी प्रकृति से अच्छे संबंधों की बात करलें, हम दक्षिण-पूर्व एशिया वाले प्रकृति के प्रति कैसा व्यवहार दिखाते हैं? हम प्रकृति को ऐसी चीज़ मानते हैं जिसको बस इस्तेमाल करके हराना है। और यही वास्तविकत्ता है। तो हम जिस तरीक़े से उत्तर औपनिवेशिक दक्षिण-पूर्व एशिया में रहते हैं, वह मेरे लिए काफ़ी तरीक़ों से ऐसे विचार, ऐसे टकसाली प्रकट करता है, जिनका अपना ख़ुदका इतिहास होता है। ग्रामीण इलाक़े सिर्फ़ प्रयोग करने योग्य हैं, एवं ग्रामीण लोग बे पढ़े-लिखे हैं, यह ऐसे विचार हैं, जिनकी बुनियाद मैं, और मेरे जैसे बाकी इतिहासकार ढूँढ सकते हैं। और यह ऐसे समय पर आए थे, जब दक्षिण-पूर्व एशिया का शासन औपनिवेशिक पूंजीवाद के माध्यम से होता था। और कितने तरीक़ों में हम अभी भी इन विचारों में मानते हैं। अब यह हमारे हिस्से बन गए हैं। लेकिन हम अपने से यह नहीं पूछते, मेरा दुनिया का नज़ारा ऐसा कैसे हुआ? मेरी प्रकृति के प्रति दृष्टि ऐसी कैसे हुई? मेरा ग्रामीण इलाकों का नज़ारा ऐसा कैसे हुआ? मैं एशिया को इतना विदेशी, इतना अनोखा क्यूँ मानता हूँ? और ख़ास तौर से हम दक्षिण-पूर्वी एशियाई को अपने आप को अनोखा दिखाने से प्यार करते हैं। हमने अपनी दक्षिण-पूर्वी एशियाई पहचान को एक फ़ैन्सी ड्रेस बना के रख दिया है। अब तो हम किसी भी दुकान जाके अपनी दक्षिण-पूर्वी एशियाई फ़ैन्सी ड्रेस ख़रीद सकते हैं और तो और, हम इस पहचान को बढ़ावा देते हैं, और अपने आप से यह नहीं पूछते, की हमारी यह पहचान कब और कैसे आई। इस पहचान का भी अपना इतिहास है। और अब मुझे लगने लगा है एक इतिहासकार कि तरह, मैं अकेले काम नहीं कर सकता, मैं अब बिलकुल भी अकेले काम नहीं कर सकता, मेरा संग्रह बनाने का, और इन सब विचारों की जड़ ढूँढने का, इनकी निशानी खींचने का, और फिर किसी किताब में छापने का कोई फ़ायदा नहीं है, जिसे बस कुछ तीन इतिहासकार पढ़ें। कोई भी फ़ायदा नहीं है। मेरी इसको इतना महत्वपूर्ण मानने की वजह है कि मुझे लगता है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में, आने वाले सालों में, अपूर्व एवं विशाल बदलाव आएँगे, ग्लोबलाइज़ेशन, दुनिया भर की राजनीतियों, चौथी औद्योगिक क्रांति और टैकनोलोजी के असर की वजह से। हम जिस दुनिया को जानते हैं, वह बदल जाएगी। पर हमें, इस परिवर्तन को अपने अनुकूल बनाने के लिए, इसके लिए तैयार रहने के लिए, अपनी सोच अलग बनानी पड़ेगी, और हम बार बार उन्हीं थके-हारे टकसाली पर वापस जाके नहीं गिर सकते। क्यूँकि अब सबको अलग सोच बनानी है, इसलिए अब हम इतिहासकार अकेले काम नहीं कर सकते। मुझे मनोविज्ञानों, चिकित्सकों समाजशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों एवं मनोविज्ञानियों के साथ मिल जुलके काम करने की ज़रूरत है। सबसे ज़्यादा कलाकारों एवं संचार के माध्यम वालों के साथ काम करने की ज़रूरत है, क्यूँकि इस ही मंच पर, विश्वविद्यालय के बाहर इन वाद-विवादों को लेने की ज़रूरत है। और इन वाद-विवादों को अभी के अभी होना चाहिए, क्यूँकि हमें समझने की ज़रूरत है कि अभी जैसा हाल है, यह कोई निश्चित लोहे की ऐतिहासिक रेल पटरी नहीं है, बल्कि ऐसे कई सारे इतिहास हैं, विचार हैं, जोकि कबके भूले जा चुके हैं। मेरे जैसे इतिहासकारों का काम ही इन भूले जा चुके वालों की खोज करना है, लेकिन अब हमें यह काम मिल जुड़के करना पड़ेगा। तो चलो उस काल यंत्र के उदाहरण पर वापस चलते हैं। तो उनीस्वी सदी है और समय औपनिवेशिक है, और कोई इंसान सोच रहा है कि, “क्या इस साम्राज्य का कभी अंत होगा? क्या इस सब का कभी अंत होगा? क्या हमें कभी स्वतंत्रता मिलेगी?” अब वही इंसान अपना काल यंत्र बनाता है — (बीप बूप) भविष्य में जाता है, और यहाँ उत्तर औपनिवेशिक दक्षिण-पूर्व एशिया में आजाता है। वह इंसान आगे-पीछे देखता है, और देखता है, की हाँ, शाही झंडे तो चले गये, शाही जहाज़ चले गये, औपनवैशिक सेना चली गयी। अब नए झंडे हैं, नए देश हैं। आख़िर कार दुनिया में स्वतंत्रता है? पर क्या सच में स्वतंत्रता है? फ़िर वह इंसान पर्यटक विज्ञापन, केले का पेड़, नारियल का पेड़ और बंदर देखता है। फ़िर वह टीवी पर देखता है कि कैसे दक्षिण-पूर्वी एशिआई, मतलब हम लोग, बार-बार दक्षिण-पूर्व एशिआई को अजीब एवं अनोखा दिखाते हैं। और फ़िर वह इंसान यही सोचेगा, कि उपनिवेशवाद तो ख़त्म हो गया, लेकिन, हम, अभी भी, कितने सारे तरीकों में, ऊनीस्वी सदी की परछाइयों में रह रहे हैं। और यही मेरा निजी लक्ष्य बन गया है। मेरी इतिहास को इतना महत्वपूर्ण की वजह है कि मुझे लगता है कि, हम सबको इतिहास के पीछे की कहानी जान्नी चाहिए, और फिरसे, सबको, अपनी पहचान, हम कौन हैं, हम क्या हैं, इस सब पर अच्छे से बात करनी चाहिए। हम बोलते हैं कि, “हाँ, तुम्हारा अलग नज़रिया हैं, और मेरा अलग है।” और यह एक हद तक सही भी हैं। लेकिन हमारा नज़रिया कभी पूरी तरह से हमारा नहीं होता। हम सब सामाजिक, ऐतिहासिक प्राणी हैं। आप, मैं, हम सब। हम सब में इतिहास के टुकड़े हैं। जो भाषा हम बोलते हैं, जो कहानियाँ हम लिखते हैं, जो फ़िल्में हम देखते हैं, हम जो छवियाँ देखते हैं, जब अपने बारे में सोचते हैं, सब इतिहास के टुकड़े हैं। हम ऐतिहासिक प्राणी हैं। हम अपने साथ इतिहास लेकर चलते हैं, और इतिहास हमें अपने साथ लेकर चलता है। पर, जबकि इतिहास हमारी ज़िंदगी निर्धारित करता है, मेरा मानना है इतिहास हमें फँसा नहीं सकता, हमें रोक नहीं सकता, और हम इतिहास के शिकार होने से बच सकते हैं। धन्यवाद। (तालियाँ)