पश्चिमी सभ्यता और लिखित भाषा के प्रारंभ से पूर्व, विज्ञान एवं आध्यात्मिकता दो अलग धाराएं नहीं थीं । महान प्राचीन परंपराओं की शिक्षाओं में ज्ञान तथा निश्चिंतता के लिए बाहरी खोज परिवर्तन के सर्पिल की नश्वर एवं अंतर्दर्शी समझ की आंतरिक अनुभूति द्वारा संतुलित थी । जैसे ही वैज्ञानिक चिंतन अधिक प्रभावी हुआ और सूचना में अत्यधिक भरमार हुई, वैसे ही हमारे ज्ञानतंत्र के अंदर विखंडन आरंभ हुआ । बढ़ती हुई विशेषज्ञता का यह अर्थ हुआ कि कम लोग अनुभूति का विशाल चित्र एवं समग्र रूप में तंत्र की अंतदर्शी एवं सौंदर्य चेतना को देखने के योग्य थे । किसी ने नहीं पूछा कि “क्या यह सब सोचना हमारे लिए अच्छा है ?“ प्राचीन ज्ञान हम लोगों के बीच में है । प्रत्यक्ष दृष्टि से ओझल। परंतु हम अपने पूर्व विचारों से भरे हैं जिसके कारण इसे पहचान नहीं पा रहे हैं। यह विस्मृत बुद्धिमत्ता ही आंतरिक एवं बाहरी के बीच संतुलन बिठाने का मार्ग है । यिन एवं यांग । परिवर्तन के सर्पिल तथा हमारे अभ्यांतर में स्थिरता के बीच । ग्रीक दंतकथा में, अपोलो चिकित्सा के देव असलेपियस का पुत्र था। चिकित्सा में उसकी बुद्धिमता एवं कुशलता का कोई सानी नहीं था और कहा जाता है कि उसने जीवन एवं मृत्यु का रहस्य खोजा । प्राचीन ग्रीस में एसक्लेपियन के चिकित्सा मंदिरों ने आदिम सर्पिल की शक्ति को मान्यता दी । जिसे एक्लेपियस की छड़ द्वारा प्रतीक के रूप में समझा जाता है, औषध के पिता हिप्पोक्रेट्स ने, जिसकी शपथ चिकित्सा पेशे की आज भी आधार संहिता है, एसीपीयन मंदिर में अपना प्रशिक्षण प्राप्त किया । आज भी हमारी विकासात्मक ऊर्जा का यह प्रतीक अमरीकन चिकित्सा एसोसिएशन तथा विश्वव्यापी अन्य चिकित्सा संगठनों के प्रतीक के रूप में है । इजिप्ट के प्रतिमा विज्ञान में, सर्प एवं पक्षी मानवीय प्रकृति की गुणवत्ता तथा ध्रुवत्व का प्रतिनिधित्व करता है । सर्प की अधोगामी दिशा, विश्व की विकासात्मक ऊर्जा का प्रत्यक्ष सर्पिल रूप है । पक्षी उर्ध्वगामी दिशा में है - सूर्य या जागृत एकमात्र के केन्द्रित संचेतनता की ओर उन्मुख ऊर्ध्वगामी बहाव; आकाश की शून्यता । फारौस तथा ईश्वर जागृत ऊर्जा से चित्रित किए जाते हैं जहां कुंडलिनी सांप मेरुदंड की ओर जाती है और नेत्रों के बीच `अज्ञान चक्र` भेदती है । इसे होरस के नेत्र के रूप में उल्लिखित किया जाता है । हिन्दू परंपरा में बिंदी तीसरे नेत्र का भी प्रतीक है; आत्मा से दिव्य संबंध । राजा टुटनखमुन का मुखावरण पुरातन उदाहरण है जिससे सर्प एवं पक्षी, दोनों के मूलभाव का पता चलता है । मयन और अजटेक परंपराएं सर्प एवं पक्षी के मूलभाव को एक ईश्वर में समन्वित करती हैं । क्यूटजलकोट्ल या कुकुल्कन । पर से सुशोभित दैवी सर्प जागृत विकासात्मक सचेतनता या जागृत कुंडलिनी का प्रतीक है । व्यक्ति का स्वयं में क्यूटजलकोट्ल को जागृत कर लेना, दिव्यता का जीवंत प्रकटीकरण है । कहा जाता है कि क्यूटजलकोट्ल या सर्पिल ऊर्जा, काल की समाप्ति पर वापस लौटेगी । सर्प तथा पक्षी के प्रतीक ईसाई धर्म में भी देखे जा सकते हैं । उनका सच्चा अर्थ अधिक गहन में हो सकता है, पर इसका अर्थ अन्य प्राचीन परंपराओं के समान ही है । ईसाई धर्म में, पक्षी या कपोत प्राय: ईसा के सिर पर देखा जा सकता है जो छठे चक्र और उससे आगे बढ़ते समय पवित्र आत्मा या कुंडलिनी शक्ति दर्शाता है। ईसाई धर्म के रहस्यवादियों ने कुंडलिनी को पवित्र आत्मा कह कर अन्य नाम से पुकारा। जान 3:12 में कहा गया है “और जैसे मोसेस ने बीहड़ में सर्प का उत्थान किया उसी तरह मनुष्य के पुत्र का भी उत्थान किया जाए“ जीसस तथा मोसेस ने अपनी कुंडलिनी ऊर्जा को जागृत करते हुए अचेतन रेंगने वाली शक्तियों को जागृत सचेतनता की ओर उन्मुख किया, जिससे मानवीय लालसा संचालित होती है । कहा जाता है कि यीशू ने निर्जन में चालीस दिन और चालीस रातें बिताईं, इस दौरान उन्हें शैतान द्वारा प्रलोभित किया गया । इसी प्रकार, बुद्ध को `मरा` द्वारा प्रलोभन दिया गया और उन्होंने बौद्धिवृक्ष या बुद्धिमत्ता वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त किया । ईसा मसीह और बुद्ध, दोनों प्रलोभन या ऐन्द्रिक आनंद व सांसारिक लोभों से दूर रहे । प्रत्येक कहानी में, दानवी वृत्ति, व्यक्ति के अपने मोह का मानवीकरण ही है । यदि हम वैदिक और मिस्र की परंपराओं के प्रकाश में आदम और हव्वा की कहानी पढ़ते हैं तो हम पाते हैं कि जीवन वृक्ष के लालच और प्रलोभन का प्रतिनिधित्व करता है । आंतरिक संसार के ज्ञान से हमारा ध्यान भंग करते हुए ज्ञान का वृक्ष हमारे भीतर है । अपने अहं के पोषण तथा बाहरी आकर्षणों के फेर में पड़कर हम अपने आंतरिक जगत की जानकारी से कट जाते हैं और आकाश तथा बुद्धिमता स्रोत से हमारा संपर्क टूटने लगता है । पर वाले सर्पों (ड्रैगन) के बारे में विश्व के कई ऐतिहासिक मिथकों को, संस्कृतियों की आंतरिक ऊर्जा के रूपकों के रूप में पढ़ा जा सकता है, जिसमें उन्हें अंत: स्थापित किया गया है। चीन में, पर वाला सर्प अभी भी पवित्र प्रतीक है जो प्रसन्नता का प्रतिनिधित्व करता है । मिस्र के फरोहा की भाँति, विकासात्मक ऊर्जा को जागृत करने वाले प्राचीन चीनी शासकों का प्रतिनिधित्व, पंख वाले सर्प या ड्रैगन द्वारा किया गया। जेड शासक या सेलेस्टियल शासक के शाही कुलचिह्न इड़ा और पिंगला के समान संतुलन दर्शाते हैं । शंकुरूप केन्द्र को जागृत करने वाले ताओवादी यिन एवं यांग या जिसे ताओवाद में उच्च डेंटियन कहा जाता है। प्रकृति विभिन्न प्रकार के अभिज्ञान और आत्म साक्षात्करण के प्रकाश से परिपूर्ण है । उदाहरण के लिए, समुद्र की जलसाही दरअसल अपने नुकीले शरीर से देख सकती है, जो एक बड़े नेत्र के रूप में कार्य करता है। जलसाही अपने रीढ़ पर आघात करने वाले प्रकाश का अभिज्ञान करती है और अपने परिवेश की चेतना अनुभव करने के लिए किरणपुंज की सघनताओं की तुलना करती है । हरी गोह तथा अन्य रेंगनेवालों जीव के सिर के ऊपर भित्तीय आंख या शंकुरूप ग्रंथि होती है जिससे वे ऊपर से परभक्षी का पता लगाते हैं। मानव शंकुरूप ग्रंथि एक लघु अंत:स्रावी ग्रंथि होती है जो चलने एवं सोने की क्रियाएं विनियमित करती है । यद्यपि यह सिर की गहराई में गड़ी होती हैं, तथापि शंकरूप ग्रंथि प्रकाश के प्रति संवेदनशील होती है । दार्शनिक डिसकार्टस ने माना कि शंकरूप ग्रंथि स्थल या तीसरी आंख, चेतनता तथा पदार्थ के बीच अंतरापृष्ठ है । प्राय: प्रत्येक वस्तु मानव शरीर में समनुरूप है । दो आंख, दो कान, दो नासिका यहां तक कि मस्तिष्क के भी दो पक्ष हैं । लेकिन मस्तिष्क का एक क्षेत्र है जो प्रतिरूप प्रस्तुत नहीं करता । यह शंकरूप ग्रंथि क्षेत्र और उसे चारों ओर से घेरने वाला ऊर्जावान केंद्र है । शारीरिक स्तर पर विशिष्ट अणु शंकरूप ग्रंथि द्वारा प्राकृतिक रूप से निर्मित होते हैं जैसे डीएमटी । डीएमटी जन्म के समय और मृत्यु के समय प्राकृतिक रूप से निर्मित होते हैं । शाब्दिक रूप से यह जीवित और मृत संसार के बीच अनन्य पुल का कार्य करते हैं । डीएमटी गहन ध्यान की स्थिति और समाधि पर एंथीयोजेनिक उपायों के माध्यम से उत्पादित होता है । उदाहरण के लिए, आयुष्का दक्षिण अमरीका में शमनिक परंपराओं में प्रयुक्त होता है ताकि आंतरिक और बाहरी संसार के बीच के परदे को दूर किया जा सके । यह पद्धति जीवन पद्धति के पुष्प के रूप में अभिज्ञात है, जो जागृत या आत्मावलोकित प्राणी को चित्रित करने वाली प्राचीन कला कार्य में सामान्य है जब देवदारु फल की छवि पवित्र कला कार्य में दिखाई देती है तो यह जागृत तीसरी आंख, विकासात्मक ऊर्जा के प्रवाह को निर्देशित करते हुए एकल बिंदु चेतना का प्रतिनिधित्व करती है । देवदारु का फल उच्चतर चक्रों के खिलने का प्रतिनिधित्व करता है जो ज्ञान चक्र और उससे आगे बढ़ने के लिए सुषुम्ना के रूप में सक्रिय होता है । ग्रीक पुराण में डॉयोनिसस के उपासकों ने देवदारु फल सहित सर्पिल वल्लरी से लपेटकर थायरसस या दैत्यों को उठाया था। दोबारा, यह मेरुदंड से शुंकरूप ग्रंथि के छठे चक्र में जाते हुए डायनेसियन ऊर्जा या कुंडलिनी शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। वैटिकन के हृदय में आप यीशु या मेरी की वृहत् प्रतिमा की आशा कर सकते हैं, लेकिन इसके स्थान पर हम वृहद् देवदारु फल की प्रतिमा पाते हैं जो सूचित करता है कि ईसाई इतिहास में चक्रों तथा कुंडलिनी के बारे में जानकारी थी, लेकिन किन्हीं कारणों से उसे जन-समूह से दूर रखा गया। शासकीय चर्च का स्पष्टीकरण है कि देवरारु का फल पुनरुत्पादन का प्रतीक है और ईसा में नए जन्म का प्रतिनिधित्व करता है। तेरहवीं शताब्दी के दार्शनिक व रहस्यावादी मीस्टर एक्खार्ट ने कहा है, “वह नेत्र जिससे मैं ईश्वर को देखता हूं और वह नेत्र जिससे ईश्वर मुझे देखता है, एक ही है ।“ किंग जेम्स बाईबल में यीशु ने कहा है “शरीर का प्रकाश नेत्र है । यदि एक भी नेत्र है तो संपूर्ण शरीर प्रकाश से परिपूर्ण होगा।” बुद्ध ने कहा “शरीर एक नेत्र है ।” समाधि की अवस्था में, दृष्टा और देखे जाने वाला दोनों एक हैं । हम स्वयं विश्वात्मा हैं । जब कुंडलिनी सक्रिय होती है, यह छठे चक्र को और शंकुरूप केन्द्र को उद्दीप्त करती है एवं यह क्षेत्र अपने कुछ विकासात्मक कार्यों को पुन: प्राप्त करना आरंभ कर देता है । गूढ़ ध्यान शंकुरूप ग्रंथि के क्षेत्र में छठे चक्र को सक्रिय करने के लिए हजारों वर्षों से प्रयुक्त होता रहा है । इस केन्द्र की सक्रियता से व्यक्ति को अपने आंतरिक प्रकाश को देखने की दृष्टि मिलती है । भले ही लोकप्रसिद्ध योगी हों या गुफ़ा के एकांत में बसे शमन, या ताओवादी हों या तिब्बती मठवासी, सभी परंपराएं उस अवधि को समाविष्ट करती हैं जिसमें व्यक्ति तम में उतरता है । शंकुरूप ग्रंथि व्यक्ति का प्रत्यक्ष रूप से सूक्ष्म ऊर्जा अनुभव करने का मार्ग है । दार्शनिक नीत्शे ने कहा है “यदि आप रसातल पर काफ़ी देर तक नज़रें गढ़ते हैं, तो अंततोगत्वा आप पाते हैं कि अगाध गर्त आपको घूर रहा है।” पुराकालिक स्मारक या प्राचीन द्वारा वाले कब्र पृथ्वी पर शेष प्राचीनतम ढांचे हैं। अधिकांश ईसा पूर्व 3000-4000 की नवप्रस्तर अवधि के और पश्चिमी यूरोप में कुछ सात हजार वर्ष पुराने हैं। पुराकालिक स्मारक का प्रयोग मानव द्वारा आंतरिक तथा बाहरी संसार के बीच सेतु निर्माण के एक उपाय के रूप में निरंतर ध्यान में प्रवेशार्थ उपयोग किया गया था। चूंकि जब कोई निरंतर अंधकार में ध्यान केंद्रित करना जारी रखता है, तो अंततोगत्वा आंतरिक ऊर्जा या प्रकाश को तीसरे नेत्र के सक्रिय होने के रूप में देखने लग जाता है। सूर्य तथा चंद्रमा माध्यमों से संचालित जीव चक्रीय लय, शरीर के कार्यों को अधिक समय तक नियमित नहीं कर सकती और नया ताल स्थापित हो जाता है। हजारों वर्षों से सातवां चक्र `ओम्` प्रतीक रूप में प्रतिनिधित्व करता रहा है। ऐसा प्रतीक जो तत्वों को प्रतिनिधित्व करने वाले संस्कृत चिह्नों से निर्मित हुआ । जब कुंडलिनी छठे चक्र से आगे उठती है तो ऊर्जा तेजोमंडल (हेलो) का सृजन आरंभ होता है । तेजोमंडल संसार के विभिन्न भागों में विभिन्न परंपराओं की धार्मिक चित्रकलाओं में अनवरत दृष्टिगोचर होती है । जागृत प्राणी के आसपास तेजोमंडल या ऊर्जा का वर्णन विश्व के सभी भागों में वास्तविक सभी धर्मों में सामान्य है । चक्रों को जागृत करने की विकासात्मक प्रक्रिया किसी एक समूह या एक धर्म की संपत्ति नहीं है बल्कि ग्रह पर प्रत्येक प्राणी मात्र का जन्मजात अधिकार है । शीर्ष चक्र दिव्यता से संबद्ध है, जो द्वैत से आगे है । नाम और रूप से आगे । अखेनातेन एक फरोआ था जिसकी पत्नी नेफरतिति थी । उसका उल्लेख सूर्य पुत्र के रूप में किया गया है । उसने एटेन या स्वयं में ईश्वर के शब्द का पुन: अनुसंधान किया, जिससे कुंडलिनी एवं चेतनता को समन्वित किया गया । इजिप्ट आईकोनोग्राफी में, एक बार फिर जागृत चेतना का ईश्वर या जागृत प्राणी के शीर्षों से ऊपर देखी गई सौर चक्रिका द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाता है । हिन्दू तथा यौगिक परंपराओं में, इस तेजोमंडल को `सहस्रार` – हजार पंखुड़ी वाला कमल कहा गया है । बुद्ध को कमल के प्रतीक से संबद्ध किया गया है । पर्णविन्यास वही पद्धति है जिसे खिलते हुए कमल में देखा जा सकता है । यह जीवन पद्धति का पुष्प है । जीवन का बीज । यह एक बुनियादी पद्धति है जिसमें सभी रूप अनुकूल हो जाते हैं । यह अंतरिक्ष का ठीक आकार है या आकाश में अंतनिर्हित गुणवत्ता है । इतिहास में किसी समय जीवन प्रतीक का पुष्प संपूर्ण पृथ्वी पर व्याप्त था। चीन के अधिकांश पवित्र स्थलों और एशिया के अन्य 55 204 00:20:05,567 --> 00:20:12,567 भागों में शेरों को जीवन-पुष्प की रक्षा करते हुए देखा जा सकता है । 1 चिंग का 64 हैक्साग्राम प्राय: यिनयांग प्रतीक को घेरे रहता है, जो जीवन पुष्प का प्रतिनिधित्व करने का एक और तरीका है । जीवन पुष्प के भीतर सभी आध्यात्मिक ठोस पदार्थों के लिए ज्यामितिक आधार है; अनिवार्य रूप से ऐसा स्वरूप, जिसका अस्तित्व हो सकता है । जीवन का प्राचीन फूल डेविड के सितारे की ज्यामिती से आरंभ होता है या त्रिकोणों का सामना करते हुए ऊर्ध्वगामी या अधोगामी होता है या 3डी में ये चतुष्फलकीय संरचनाएं हो सकती हैं । यह प्रतीक एक यंत्र है, एक प्रकार का प्रोग्राम, जो ब्रह्माण्ड के भीतर अस्त्त्वि में है, वह मशीन जो संसार में हमारे अंश जनित कर रही है । यंत्रों का हजारों वर्षों से चेतना जागृत करने के लिए उपकरणों के रूप में उपयोग किया जा रहा है । यंत्र का दृश्य रूप आध्यात्मिक अनावरण की आंतरिक प्रक्रिया का बाहरी प्रतिनिधित्व है । यह ब्रह्माण्ड के छिपे संगीत को प्रत्यक्ष करना है । ज्यामितिक रूपों एवं हस्तक्षेपीय पद्धतियों से समन्वित । प्रत्येक चक्र एक कमल, एक यंत्र, एक मनौवैज्ञानिक केन्द्र है, जिसके माध्यम से विश्व का अनुभव किया जा सकता है। एक पारंपरिक यंत्र, जिसे तिब्बती परंपरा में पाया जा सकता है, अर्थ की समृद्ध परतों से परिपूरित, जो कभी कभार पूर्ण ब्रह्माण्ड विज्ञान एवं विश्व दृष्टि को शामिल करता है । यंत्र सतत विकसित पद्धति है जो पुनरावृति की शक्ति या चक्र की अन्योन्य क्रिया के माध्यम से कार्य करता है । यंत्र की शक्ति सब कुछ है लेकिन वर्तमान संसार में समाप्त हो गई है, क्योंकि हम केवल बाहरी रूप में अर्थ ढूँढ़ते हैं और हम अपने अभीष्ट के माध्यम से अपनी आंतरिक ऊर्जा से इसे संबद्ध नहीं करते। पादरी, मठवासी, योगियों का पारंपरिक रूप से ब्रह्मचारी बने रहने के पीछे भी एक सही कारण रहा है। आज केवल बहुत कम लोग जानते हैं कि वे क्यों ब्रह्मचर्य का अभ्यास कर रहे हैं, चूंकि सच्चा प्रयोजन समाप्त हो गया है । सीधी-सी बात है कि जैसी भी स्थिति है, आपकी ऊर्जा अधिक जीवाणु या अंडों का उत्पापादन कर रही है । कुंडलिनी के और अधिक उत्कर्ष के लिए उत्तेजना नहीं है, जो उच्चतर चक्रों को सक्रिय करता है । कुंडलिनी जीवन ऊर्जा है, जो यौन ऊर्जा भी है । जब जागृति पाश्विक इच्छाओं पर कम केन्द्रित होने लगती है और उच्च चक्रों के वास्तविक प्रतिबिंबन पर आ जाती है, तो वह ऊर्जा मेरुदंड पर उन चक्रों में प्रवाहित होने लगती है । कई तांत्रिक अभ्यास करवाते हैं कि इस यौन ऊर्जा पर किस प्रकार नियंत्रण किया जाए, ताकि इसका उपयोग उच्चतर आध्यात्मिक विकास में किया जा सके । आपकी चेतना की मनोदशा आपकी ऊर्जा के लिए उचित स्थितियों का सृजन करती है ताकि इसका विकास किया जा सके । जैसा कि एक्खार्ट टोले ने कहा है “जागृति एवं उपस्थिति सदैव वर्तमान में घटित होती है।“ यदि आप कुछ घटित होने का प्रयास कर रहे हैं तो आप यथास्थिति में प्रतिरोध उत्पन्न कर रहे हैं । यह सभी तरह के प्रतिरोध को दूर करना ही है, जिससे विकासात्मक ऊर्जा अनावृत होने लगती है । प्राचीन यौगिक परंपरा में योग क्रियाओं को ध्यान के लिए शरीर को तैयार करने के लिए किया जाता है । हठयोग का उद्देश्य केवल अभ्यास पद्धति नहीं, बल्कि व्यक्ति का आंतरिक तथा बाहरी संसार से संपर्क साधना है । संस्कृत शब्द `हठ` का अर्थ `सूर्य` का `ह` तथा चंद्रमा का `ठ` है । पतंजलि के मूल योग सूत्र में योग के आठ अवयवों का प्रयोजन बुद्ध की आठ परतों के मार्ग के समान है, जिससे व्यक्ति पीड़ाओं से उबर सके । जब द्वैत विश्व की ध्रुवताएं संतुलन में हैं, तो तीसरी वस्तु, उत्पन्न होती है । हम रहस्यपूर्ण स्वर्ण कुंजी पाते हैं जो प्रकृति की विकासात्मक शक्तियों को खोलती हैं । सूर्य एवं चंन्द्रमा का यह संश्लेषण हमारी विकासात्मक ऊर्जा है । चूंकि मनुष्य अब अनन्य रूप से आंतरिक एवं बाहरी संसार तथा अपने विचारों से जाना जाता है अतएव ऐसे विरल व्यक्ति हैं जो आंतरिक तथा बाहरी शक्तियों का संतुलन प्राप्त करते हैं जिससे कुंडलिनी प्राकृतिक रूप से जागृत हो जाती है । जो केवल संयम में रहते हैं, उनके लिए कुंडलिनी हमेशा रूपक, एक विचार बनी रहती है न कि व्यक्ति की ऊर्जा और यह चेतना का प्रत्यक्ष अनुभव बन जाती है । �