1 00:00:03,003 --> 00:00:07,733 पश्चिमी सभ्यता और लिखित भाषा के प्रारंभ से पूर्व, विज्ञान एवं 2 00:00:07,733 --> 00:00:13,933 आध्यात्मिकता दो अलग धाराएं नहीं थीं । 3 00:00:13,933 --> 00:00:16,833 महान प्राचीन परंपराओं की शिक्षाओं में ज्ञान तथा 4 00:00:16,833 --> 00:00:19,767 निश्चिंतता के लिए बाहरी खोज परिवर्तन के 5 00:00:19,767 --> 00:00:21,867 सर्पिल की नश्वर एवं अंतर्दर्शी समझ की 6 00:00:21,867 --> 00:00:27,133 आंतरिक अनुभूति द्वारा संतुलित थी । 7 00:00:27,133 --> 00:00:31,005 जैसे ही वैज्ञानिक चिंतन अधिक प्रभावी हुआ और सूचना में अत्यधिक भरमार हुई, 8 00:00:31,005 --> 00:00:36,000 वैसे ही हमारे ज्ञानतंत्र के अंदर विखंडन आरंभ हुआ । 9 00:00:36,000 --> 00:00:38,233 बढ़ती हुई विशेषज्ञता का यह अर्थ हुआ कि कम लोग अनुभूति 10 00:00:38,233 --> 00:00:40,933 का विशाल चित्र एवं समग्र रूप में तंत्र की अंतदर्शी एवं 11 00:00:40,933 --> 00:00:45,433 सौंदर्य चेतना को देखने के योग्य थे । 12 00:00:45,433 --> 00:00:57,233 किसी ने नहीं पूछा कि “क्या यह सब सोचना हमारे लिए अच्छा है ?“ 13 00:00:57,233 --> 00:01:01,433 प्राचीन ज्ञान हम लोगों के बीच में है । प्रत्यक्ष दृष्टि से ओझल। 14 00:01:01,433 --> 00:01:06,833 परंतु हम अपने पूर्व विचारों से भरे हैं जिसके कारण इसे पहचान नहीं पा रहे हैं। 15 00:01:06,833 --> 00:01:10,001 यह विस्मृत बुद्धिमत्ता ही आंतरिक एवं बाहरी के 16 00:01:10,001 --> 00:01:14,533 बीच संतुलन बिठाने का मार्ग है । 17 00:01:14,533 --> 00:01:14,008 यिन एवं यांग । 18 00:01:14,008 --> 00:01:52,167 परिवर्तन के सर्पिल तथा हमारे अभ्यांतर में स्थिरता के बीच । 19 00:01:52,167 --> 00:01:59,005 ग्रीक दंतकथा में, अपोलो चिकित्सा के देव असलेपियस का पुत्र था। 20 00:01:59,005 --> 00:02:02,009 चिकित्सा में उसकी बुद्धिमता एवं कुशलता का कोई सानी नहीं था और कहा जाता है कि उसने 21 00:02:02,009 --> 00:02:10,005 जीवन एवं मृत्यु का रहस्य खोजा । 22 00:02:10,005 --> 00:02:13,003 प्राचीन ग्रीस में एसक्लेपियन के चिकित्सा मंदिरों 23 00:02:13,003 --> 00:02:16,003 ने आदिम सर्पिल की शक्ति को मान्यता दी । 24 00:02:16,003 --> 00:02:21,367 जिसे एक्लेपियस की छड़ द्वारा प्रतीक के रूप में समझा जाता है, 25 00:02:21,367 --> 00:02:26,133 औषध के पिता हिप्पोक्रेट्स ने, 26 00:02:26,133 --> 00:02:27,867 जिसकी शपथ चिकित्सा पेशे की आज 27 00:02:27,867 --> 00:02:30,005 भी आधार संहिता है, एसीपीयन मंदिर 28 00:02:30,005 --> 00:02:33,933 में अपना प्रशिक्षण प्राप्त किया । 29 00:02:33,933 --> 00:02:37,004 आज भी हमारी विकासात्मक ऊर्जा का यह प्रतीक 30 00:02:37,004 --> 00:02:40,003 अमरीकन चिकित्सा एसोसिएशन तथा विश्वव्यापी अन्य 31 00:02:40,003 --> 00:02:48,533 चिकित्सा संगठनों के प्रतीक के रूप में है । 32 00:02:48,533 --> 00:02:51,833 इजिप्ट के प्रतिमा विज्ञान में, सर्प एवं पक्षी मानवीय प्रकृति 33 00:02:51,833 --> 00:03:02,067 की गुणवत्ता तथा ध्रुवत्व का प्रतिनिधित्व करता है । 34 00:03:02,067 --> 00:03:07,033 सर्प की अधोगामी दिशा, विश्व की विकासात्मक 35 00:03:07,033 --> 00:03:13,667 ऊर्जा का प्रत्यक्ष सर्पिल रूप है । 36 00:03:13,667 --> 00:03:17,005 पक्षी उर्ध्वगामी दिशा में है - सूर्य या जागृत एकमात्र के 37 00:03:17,005 --> 00:03:21,533 केन्द्रित संचेतनता की ओर उन्मुख ऊर्ध्वगामी बहाव; 38 00:03:21,533 --> 00:03:34,000 आकाश की शून्यता । 39 00:03:34,000 --> 00:03:36,567 फारौस तथा ईश्वर जागृत ऊर्जा से चित्रित किए 40 00:03:36,567 --> 00:03:40,267 जाते हैं जहां कुंडलिनी सांप मेरुदंड की ओर जाती 41 00:03:40,267 --> 00:03:48,967 है और नेत्रों के बीच `अज्ञान चक्र` भेदती है । 42 00:03:48,967 --> 00:03:52,933 इसे होरस के नेत्र के रूप में उल्लिखित किया जाता है । 43 00:03:52,933 --> 00:03:58,002 हिन्दू परंपरा में बिंदी तीसरे नेत्र का भी प्रतीक है; 44 00:03:58,002 --> 00:04:07,933 आत्मा से दिव्य संबंध । 45 00:04:07,933 --> 00:04:10,567 राजा टुटनखमुन का मुखावरण पुरातन उदाहरण है जिससे सर्प एवं पक्षी, 46 00:04:10,567 --> 00:04:19,000 दोनों के मूलभाव का पता चलता है । 47 00:04:19,000 --> 00:04:24,533 मयन और अजटेक परंपराएं सर्प एवं पक्षी के मूलभाव को एक ईश्वर में समन्वित करती हैं । 48 00:04:24,533 --> 00:04:27,033 क्यूटजलकोट्ल या कुकुल्कन । 49 00:04:27,033 --> 00:04:30,733 पर से सुशोभित दैवी सर्प जागृत विकासात्मक 50 00:04:30,733 --> 00:04:34,633 सचेतनता या जागृत कुंडलिनी का प्रतीक है । 51 00:04:34,633 --> 00:04:37,933 व्यक्ति का स्वयं में क्यूटजलकोट्ल को जागृत कर लेना, 52 00:04:37,933 --> 00:04:41,008 दिव्यता का जीवंत प्रकटीकरण है । 53 00:04:41,008 --> 00:04:46,004 कहा जाता है कि क्यूटजलकोट्ल या सर्पिल ऊर्जा, 54 00:04:46,004 --> 00:05:01,004 काल की समाप्ति पर वापस लौटेगी । 55 00:05:01,004 --> 00:05:06,333 सर्प तथा पक्षी के प्रतीक ईसाई धर्म में भी देखे जा सकते हैं । 56 00:05:06,333 --> 00:05:08,633 उनका सच्चा अर्थ अधिक गहन में हो सकता है, 57 00:05:08,633 --> 00:05:14,003 पर इसका अर्थ अन्य प्राचीन परंपराओं के समान ही है । 58 00:05:14,003 --> 00:05:19,267 ईसाई धर्म में, पक्षी या कपोत प्राय: ईसा के सिर पर देखा जा 59 00:05:19,267 --> 00:05:23,567 सकता है जो छठे चक्र और उससे आगे बढ़ते 60 00:05:23,567 --> 00:05:29,001 समय पवित्र आत्मा या कुंडलिनी शक्ति दर्शाता है। 61 00:05:29,001 --> 00:05:38,006 ईसाई धर्म के रहस्यवादियों ने कुंडलिनी को पवित्र आत्मा कह कर अन्य नाम से पुकारा। 62 00:05:38,006 --> 00:05:45,333 जान 3:12 में कहा गया है “और जैसे मोसेस ने बीहड़ में सर्प का उत्थान 63 00:05:45,333 --> 00:05:51,133 किया उसी तरह मनुष्य के पुत्र का भी उत्थान किया जाए“ 64 00:05:51,133 --> 00:05:56,067 जीसस तथा मोसेस ने अपनी कुंडलिनी ऊर्जा को जागृत करते हुए अचेतन रेंगने वाली शक्तियों को जागृत सचेतनता की ओर उन्मुख किया, 65 00:05:56,067 --> 00:06:03,367 जिससे मानवीय लालसा संचालित होती है । 66 00:06:03,367 --> 00:06:05,009 कहा जाता है कि यीशू ने निर्जन में चालीस दिन और चालीस रातें बिताईं, 67 00:06:05,009 --> 00:06:12,533 इस दौरान उन्हें शैतान द्वारा प्रलोभित किया गया । 68 00:06:12,533 --> 00:06:18,467 इसी प्रकार, बुद्ध को `मरा` द्वारा प्रलोभन दिया गया और उन्होंने बौद्धिवृक्ष 69 00:06:18,467 --> 00:06:26,009 या बुद्धिमत्ता वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त किया । 70 00:06:26,009 --> 00:06:30,733 ईसा मसीह और बुद्ध, दोनों प्रलोभन या ऐन्द्रिक 71 00:06:30,733 --> 00:06:38,067 आनंद व सांसारिक लोभों से दूर रहे । 72 00:06:38,067 --> 00:07:01,133 प्रत्येक कहानी में, दानवी वृत्ति, व्यक्ति के अपने मोह का मानवीकरण ही है । 73 00:07:01,133 --> 00:07:06,004 यदि हम वैदिक और मिस्र की परंपराओं के प्रकाश में आदम और हव्वा की कहानी पढ़ते हैं तो हम पाते हैं कि 74 00:07:06,004 --> 00:07:11,167 जीवन वृक्ष के लालच और प्रलोभन का प्रतिनिधित्व करता है । 75 00:07:11,167 --> 00:07:16,333 आंतरिक संसार के ज्ञान से हमारा ध्यान भंग 76 00:07:16,333 --> 00:07:19,002 करते हुए ज्ञान का वृक्ष 77 00:07:19,002 --> 00:07:33,633 हमारे भीतर है । 78 00:07:33,633 --> 00:07:38,533 अपने अहं के पोषण तथा बाहरी आकर्षणों के फेर में पड़कर हम अपने आंतरिक जगत 79 00:07:38,533 --> 00:07:45,333 की जानकारी से कट जाते 80 00:07:45,333 --> 00:07:48,467 हैं और आकाश 81 00:07:48,467 --> 00:07:52,733 तथा बुद्धिमता स्रोत से 82 00:07:52,733 --> 00:08:07,067 हमारा संपर्क टूटने लगता है । 83 00:08:07,067 --> 00:08:09,767 पर वाले सर्पों (ड्रैगन) के बारे में विश्व के कई ऐतिहासिक मिथकों को, 84 00:08:09,767 --> 00:08:12,133 संस्कृतियों की आंतरिक ऊर्जा के रूपकों के रूप में पढ़ा जा सकता है, 85 00:08:12,133 --> 00:08:15,567 जिसमें उन्हें अंत: स्थापित किया गया है। 86 00:08:15,567 --> 00:08:24,002 चीन में, पर वाला सर्प अभी भी पवित्र प्रतीक है जो प्रसन्नता का प्रतिनिधित्व करता है । 87 00:08:24,002 --> 00:08:27,633 मिस्र के फरोहा की भाँति, 88 00:08:27,633 --> 00:08:30,833 विकासात्मक ऊर्जा को जागृत करने वाले प्राचीन चीनी शासकों का प्रतिनिधित्व, 89 00:08:30,833 --> 00:08:36,167 पंख वाले सर्प या ड्रैगन द्वारा किया गया। 90 00:08:36,167 --> 00:08:40,567 जेड शासक या सेलेस्टियल शासक के शाही कुलचिह्न इड़ा 91 00:08:40,567 --> 00:08:46,001 और पिंगला के समान संतुलन दर्शाते हैं । 92 00:08:46,001 --> 00:08:50,002 शंकुरूप केन्द्र को जागृत करने वाले ताओवादी यिन 93 00:08:50,002 --> 00:09:06,833 एवं यांग या जिसे ताओवाद में उच्च डेंटियन कहा जाता है। 94 00:09:06,833 --> 00:09:08,633 प्रकृति विभिन्न प्रकार के अभिज्ञान और आत्म 95 00:09:08,633 --> 00:09:11,233 साक्षात्करण के प्रकाश से परिपूर्ण है । 96 00:09:11,233 --> 00:09:15,867 उदाहरण के लिए, समुद्र की जलसाही दरअसल अपने नुकीले शरीर से देख सकती है, 97 00:09:15,867 --> 00:09:19,933 जो एक बड़े नेत्र के रूप में कार्य करता है। 98 00:09:19,933 --> 00:09:22,733 जलसाही अपने रीढ़ पर आघात करने वाले प्रकाश का अभिज्ञान करती है और 99 00:09:22,733 --> 00:09:36,933 अपने परिवेश की चेतना अनुभव करने के लिए किरणपुंज की सघनताओं की तुलना करती है । 100 00:09:36,933 --> 00:09:40,267 हरी गोह तथा अन्य रेंगनेवालों जीव के सिर के ऊपर 101 00:09:40,267 --> 00:09:44,167 भित्तीय आंख या शंकुरूप ग्रंथि होती है जिससे 102 00:09:44,167 --> 00:09:56,009 वे ऊपर से परभक्षी का पता लगाते हैं। 103 00:09:56,009 --> 00:10:00,003 मानव शंकुरूप ग्रंथि एक लघु अंत:स्रावी ग्रंथि होती है जो चलने 104 00:10:00,003 --> 00:10:04,004 एवं सोने की क्रियाएं विनियमित करती है । 105 00:10:04,004 --> 00:10:06,933 यद्यपि यह सिर की गहराई में गड़ी होती हैं, तथापि शंकरूप 106 00:10:06,933 --> 00:10:12,033 ग्रंथि प्रकाश के प्रति संवेदनशील होती है । 107 00:10:12,033 --> 00:10:15,133 दार्शनिक डिसकार्टस ने माना कि शंकरूप ग्रंथि स्थल या तीसरी आंख, 108 00:10:15,133 --> 00:10:20,633 चेतनता तथा पदार्थ के बीच अंतरापृष्ठ है । 109 00:10:20,633 --> 00:10:23,333 प्राय: प्रत्येक वस्तु मानव शरीर में समनुरूप है । 110 00:10:23,333 --> 00:10:30,006 दो आंख, दो कान, दो नासिका यहां तक कि मस्तिष्क के भी दो पक्ष हैं । 111 00:10:30,006 --> 00:10:33,967 लेकिन मस्तिष्क का एक क्षेत्र है जो प्रतिरूप प्रस्तुत नहीं करता । 112 00:10:33,967 --> 00:10:40,033 यह शंकरूप ग्रंथि क्षेत्र और उसे चारों ओर से घेरने वाला ऊर्जावान केंद्र है । 113 00:10:40,033 --> 00:10:43,167 शारीरिक स्तर पर विशिष्ट अणु शंकरूप ग्रंथि द्वारा प्राकृतिक 114 00:10:43,167 --> 00:10:46,767 रूप से निर्मित होते हैं जैसे डीएमटी । 115 00:10:46,767 --> 00:10:52,008 डीएमटी जन्म के समय और मृत्यु के समय 116 00:10:52,008 --> 00:10:58,006 प्राकृतिक रूप से निर्मित होते हैं । 117 00:10:58,006 --> 00:11:05,002 शाब्दिक रूप से यह जीवित और मृत संसार के बीच 118 00:11:05,002 --> 00:11:10,000 अनन्य पुल का कार्य करते हैं । 119 00:11:10,000 --> 00:11:14,533 डीएमटी गहन ध्यान की स्थिति और समाधि पर एंथीयोजेनिक उपायों 120 00:11:14,533 --> 00:11:23,167 के माध्यम से उत्पादित होता है । 121 00:11:23,167 --> 00:11:27,033 उदाहरण के लिए, आयुष्का दक्षिण अमरीका में शमनिक परंपराओं में प्रयुक्त होता है ताकि आंतरिक 122 00:11:27,033 --> 00:11:32,667 और बाहरी संसार के बीच के परदे को दूर किया जा सके । 123 00:11:32,667 --> 00:11:36,367 यह पद्धति जीवन पद्धति के पुष्प के रूप में अभिज्ञात है, 124 00:11:36,367 --> 00:11:41,002 जो जागृत या आत्मावलोकित प्राणी को चित्रित करने वाली प्राचीन कला कार्य में सामान्य है 125 00:11:41,002 --> 00:11:45,167 जब देवदारु फल की छवि पवित्र कला कार्य में दिखाई देती है 126 00:11:45,167 --> 00:11:49,733 तो यह जागृत तीसरी आंख, विकासात्मक ऊर्जा के प्रवाह को निर्देशित 127 00:11:49,733 --> 00:11:54,667 करते हुए एकल बिंदु चेतना का प्रतिनिधित्व करती है । 128 00:11:54,667 --> 00:11:58,006 देवदारु का फल उच्चतर चक्रों के खिलने का प्रतिनिधित्व करता है 129 00:11:58,006 --> 00:12:06,567 जो ज्ञान चक्र और उससे आगे बढ़ने के लिए सुषुम्ना के रूप में सक्रिय होता है । 130 00:12:06,567 --> 00:12:10,267 ग्रीक पुराण में डॉयोनिसस के उपासकों ने देवदारु 131 00:12:10,267 --> 00:12:16,004 फल सहित सर्पिल वल्लरी से लपेटकर थायरसस या दैत्यों को उठाया था। 132 00:12:16,004 --> 00:12:20,867 दोबारा, यह मेरुदंड से शुंकरूप ग्रंथि के छठे चक्र में जाते हुए डायनेसियन 133 00:12:20,867 --> 00:12:31,133 ऊर्जा या कुंडलिनी शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। 134 00:12:31,133 --> 00:12:33,733 वैटिकन के हृदय में आप यीशु या मेरी की वृहत् प्रतिमा की आशा कर सकते हैं, 135 00:12:33,733 --> 00:12:39,633 लेकिन इसके स्थान पर हम वृहद् देवदारु फल की प्रतिमा पाते 136 00:12:39,633 --> 00:12:42,933 हैं जो सूचित करता है कि ईसाई इतिहास में चक्रों 137 00:12:42,933 --> 00:12:46,000 तथा कुंडलिनी के बारे में जानकारी थी, लेकिन किन्हीं कारणों 138 00:12:46,000 --> 00:12:47,633 से उसे जन-समूह से दूर रखा गया। 139 00:12:47,633 --> 00:12:51,367 शासकीय चर्च का स्पष्टीकरण है कि देवरारु का फल पुनरुत्पादन का प्रतीक 140 00:12:51,367 --> 00:13:03,233 है और ईसा में नए जन्म का प्रतिनिधित्व करता है। 141 00:13:03,233 --> 00:13:14,933 तेरहवीं शताब्दी के दार्शनिक व रहस्यावादी मीस्टर एक्खार्ट ने कहा है, 142 00:13:14,933 --> 00:13:20,633 “वह नेत्र जिससे मैं ईश्वर को देखता हूं और 143 00:13:20,633 --> 00:13:25,567 वह नेत्र जिससे ईश्वर मुझे देखता है, एक ही है ।“ 144 00:13:25,567 --> 00:13:31,167 किंग जेम्स बाईबल में यीशु ने कहा है “शरीर का प्रकाश नेत्र है । 145 00:13:31,167 --> 00:13:47,233 यदि एक भी नेत्र है तो संपूर्ण शरीर प्रकाश से परिपूर्ण होगा।” 146 00:13:47,233 --> 00:13:52,001 बुद्ध ने कहा “शरीर एक नेत्र है ।” 147 00:13:52,001 --> 00:13:57,567 समाधि की अवस्था में, दृष्टा और देखे जाने वाला दोनों एक हैं । 148 00:13:57,567 --> 00:14:13,967 हम स्वयं विश्वात्मा हैं । 149 00:14:13,967 --> 00:14:18,167 जब कुंडलिनी सक्रिय होती है, यह छठे चक्र को और शंकुरूप केन्द्र 150 00:14:18,167 --> 00:14:21,467 को उद्दीप्त करती है एवं यह क्षेत्र अपने कुछ विकासात्मक कार्यों को पुन: 151 00:14:21,467 --> 00:14:26,009 प्राप्त करना आरंभ कर देता है । 152 00:14:26,009 --> 00:14:29,004 गूढ़ ध्यान शंकुरूप ग्रंथि के क्षेत्र में छठे चक्र को सक्रिय करने के लिए 153 00:14:29,004 --> 00:14:35,867 हजारों वर्षों से प्रयुक्त होता रहा है । 154 00:14:35,867 --> 00:14:41,667 इस केन्द्र की सक्रियता से व्यक्ति को अपने आंतरिक प्रकाश को देखने की दृष्टि मिलती है । 155 00:14:41,667 --> 00:14:45,567 भले ही लोकप्रसिद्ध योगी हों या गुफ़ा के एकांत में बसे शमन, 156 00:14:45,567 --> 00:14:51,533 या ताओवादी हों या तिब्बती मठवासी, सभी परंपराएं उस अवधि 157 00:14:51,533 --> 00:14:57,333 को समाविष्ट करती हैं जिसमें व्यक्ति तम में उतरता है । 158 00:14:57,333 --> 00:15:04,833 शंकुरूप ग्रंथि व्यक्ति का प्रत्यक्ष रूप से सूक्ष्म ऊर्जा अनुभव करने का मार्ग है । 159 00:15:04,833 --> 00:15:10,033 दार्शनिक नीत्शे ने कहा है “यदि आप रसातल पर काफ़ी देर तक नज़रें गढ़ते हैं, 160 00:15:10,033 --> 00:15:17,667 तो अंततोगत्वा आप पाते हैं कि अगाध गर्त आपको घूर रहा है।” 161 00:15:17,667 --> 00:15:26,002 पुराकालिक स्मारक या प्राचीन द्वारा वाले कब्र पृथ्वी पर शेष प्राचीनतम ढांचे हैं। 162 00:15:26,002 --> 00:15:32,233 अधिकांश ईसा पूर्व 3000-4000 की नवप्रस्तर अवधि के और 163 00:15:32,233 --> 00:15:35,967 पश्चिमी यूरोप में कुछ सात हजार वर्ष पुराने हैं। 164 00:15:35,967 --> 00:15:40,333 पुराकालिक स्मारक का प्रयोग मानव द्वारा आंतरिक तथा बाहरी संसार के बीच सेतु निर्माण के एक 165 00:15:40,333 --> 00:15:47,333 उपाय के रूप में निरंतर ध्यान में प्रवेशार्थ उपयोग किया गया था। 166 00:15:47,333 --> 00:15:50,967 चूंकि जब कोई निरंतर अंधकार में ध्यान केंद्रित करना जारी रखता है, 167 00:15:50,967 --> 00:15:59,833 तो अंततोगत्वा आंतरिक ऊर्जा या प्रकाश को तीसरे नेत्र के सक्रिय होने के रूप में देखने लग जाता है। 168 00:15:59,833 --> 00:16:04,002 सूर्य तथा चंद्रमा माध्यमों से संचालित जीव चक्रीय लय, शरीर के कार्यों को अधिक 169 00:16:04,002 --> 00:16:16,005 समय तक नियमित नहीं कर सकती और नया ताल स्थापित हो जाता है। 170 00:16:16,005 --> 00:16:19,001 हजारों वर्षों से सातवां चक्र `ओम्` प्रतीक 171 00:16:19,001 --> 00:16:21,933 रूप में प्रतिनिधित्व करता रहा है। 172 00:16:21,933 --> 00:16:28,467 ऐसा प्रतीक जो तत्वों को प्रतिनिधित्व करने वाले संस्कृत चिह्नों से निर्मित हुआ । 173 00:16:28,467 --> 00:16:32,333 जब कुंडलिनी छठे चक्र से आगे उठती है तो ऊर्जा तेजोमंडल (हेलो) का 174 00:16:32,333 --> 00:16:34,833 सृजन आरंभ होता है । 175 00:16:34,833 --> 00:16:37,004 तेजोमंडल संसार के विभिन्न भागों में विभिन्न परंपराओं की 176 00:16:37,004 --> 00:17:31,067 धार्मिक चित्रकलाओं में अनवरत दृष्टिगोचर होती है । 177 00:17:31,067 --> 00:17:34,001 जागृत प्राणी के आसपास तेजोमंडल या ऊर्जा 178 00:17:34,001 --> 00:17:38,433 का वर्णन विश्व के सभी भागों में वास्तविक सभी 179 00:17:38,433 --> 00:17:42,767 धर्मों में सामान्य है । 180 00:17:42,767 --> 00:17:46,004 चक्रों को जागृत करने की विकासात्मक प्रक्रिया किसी 181 00:17:46,004 --> 00:17:49,967 एक समूह या एक धर्म की संपत्ति नहीं है बल्कि 182 00:17:49,967 --> 00:18:07,767 ग्रह पर प्रत्येक प्राणी मात्र का जन्मजात अधिकार है । 183 00:18:07,767 --> 00:18:12,167 शीर्ष चक्र दिव्यता से संबद्ध है, 184 00:18:12,167 --> 00:18:15,467 जो द्वैत से आगे है । 185 00:18:15,467 --> 00:18:21,833 नाम और रूप से आगे । 186 00:18:21,833 --> 00:18:28,004 अखेनातेन एक फरोआ था जिसकी पत्नी नेफरतिति थी । 187 00:18:28,004 --> 00:18:32,033 उसका उल्लेख सूर्य पुत्र के रूप में किया गया है । 188 00:18:32,033 --> 00:18:37,333 उसने एटेन या स्वयं में ईश्वर के शब्द का पुन: अनुसंधान किया, 189 00:18:37,333 --> 00:18:47,167 जिससे कुंडलिनी एवं चेतनता को समन्वित किया गया । 190 00:18:47,167 --> 00:18:50,833 इजिप्ट आईकोनोग्राफी में, एक बार फिर जागृत 191 00:18:50,833 --> 00:18:55,067 चेतना का ईश्वर या जागृत प्राणी के शीर्षों से ऊपर देखी 192 00:18:55,067 --> 00:19:03,933 गई सौर चक्रिका द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाता है । 193 00:19:03,933 --> 00:19:06,633 हिन्दू तथा यौगिक परंपराओं में, इस तेजोमंडल को `सहस्रार` – 194 00:19:06,633 --> 00:19:17,633 हजार पंखुड़ी वाला कमल कहा गया है । 195 00:19:17,633 --> 00:19:23,433 बुद्ध को कमल के प्रतीक से संबद्ध किया गया है । 196 00:19:23,433 --> 00:19:26,733 पर्णविन्यास वही पद्धति है जिसे खिलते हुए 197 00:19:26,733 --> 00:19:29,233 कमल में देखा जा सकता है । 198 00:19:29,233 --> 00:19:31,433 यह जीवन पद्धति का पुष्प है । 199 00:19:31,433 --> 00:19:33,002 जीवन का बीज । 200 00:19:33,002 --> 00:19:36,567 यह एक बुनियादी पद्धति है जिसमें सभी रूप अनुकूल हो जाते हैं । 201 00:19:36,567 --> 00:19:54,133 यह अंतरिक्ष का ठीक आकार है या आकाश में अंतनिर्हित गुणवत्ता है । 202 00:19:54,133 --> 00:20:02,833 इतिहास में किसी समय जीवन प्रतीक का पुष्प संपूर्ण पृथ्वी पर व्याप्त था। 203 00:20:02,833 --> 00:20:16,533 चीन के अधिकांश पवित्र स्थलों और एशिया के अन्य 55 204 00:20:05,567 --> 00:20:12,567 भागों में शेरों को जीवन-पुष्प की रक्षा करते हुए देखा जा सकता है । 204 00:20:16,533 --> 00:20:22,033 1 चिंग का 64 हैक्साग्राम प्राय: यिनयांग प्रतीक को घेरे रहता है, जो जीवन पुष्प का 205 00:20:22,033 --> 00:20:27,433 प्रतिनिधित्व करने का एक और तरीका है । 206 00:20:27,433 --> 00:20:30,002 जीवन पुष्प के भीतर सभी आध्यात्मिक ठोस पदार्थों के लिए ज्यामितिक आधार है; 207 00:20:30,002 --> 00:20:32,633 अनिवार्य रूप से ऐसा स्वरूप, 208 00:20:32,633 --> 00:20:37,433 जिसका अस्तित्व हो सकता है । 209 00:20:37,433 --> 00:20:39,933 जीवन का प्राचीन फूल डेविड के सितारे की ज्यामिती से आरंभ 210 00:20:39,933 --> 00:20:45,167 होता है या त्रिकोणों का सामना करते हुए ऊर्ध्वगामी या अधोगामी होता है या 211 00:20:45,167 --> 00:20:49,467 3डी में ये चतुष्फलकीय संरचनाएं हो सकती हैं । 212 00:20:49,467 --> 00:20:55,533 यह प्रतीक एक यंत्र है, एक प्रकार का प्रोग्राम, जो ब्रह्माण्ड के भीतर अस्त्त्वि में है, 213 00:20:55,533 --> 00:21:01,433 वह मशीन जो संसार में हमारे अंश जनित कर रही है । 214 00:21:01,433 --> 00:21:04,133 यंत्रों का हजारों वर्षों से चेतना जागृत करने के लिए 215 00:21:04,133 --> 00:21:05,867 उपकरणों के रूप में उपयोग किया जा रहा है । 216 00:21:05,867 --> 00:21:10,633 यंत्र का दृश्य रूप आध्यात्मिक अनावरण की 217 00:21:10,633 --> 00:21:17,867 आंतरिक प्रक्रिया का बाहरी प्रतिनिधित्व है । 218 00:21:17,867 --> 00:21:21,767 यह ब्रह्माण्ड के छिपे संगीत को प्रत्यक्ष करना है । 219 00:21:21,767 --> 00:21:39,004 ज्यामितिक रूपों एवं हस्तक्षेपीय पद्धतियों से समन्वित । 220 00:21:39,004 --> 00:21:44,967 प्रत्येक चक्र एक कमल, एक यंत्र, एक मनौवैज्ञानिक केन्द्र है, 221 00:21:44,967 --> 00:21:54,733 जिसके माध्यम से विश्व का अनुभव किया जा सकता है। 222 00:21:54,733 --> 00:22:21,003 एक पारंपरिक यंत्र, जिसे तिब्बती परंपरा में पाया जा सकता है, 223 00:22:21,003 --> 00:22:24,667 अर्थ की समृद्ध परतों से परिपूरित, जो कभी कभार 224 00:22:24,667 --> 00:22:29,867 पूर्ण ब्रह्माण्ड विज्ञान एवं विश्व दृष्टि को शामिल करता है । 225 00:22:29,867 --> 00:22:33,000 यंत्र सतत विकसित पद्धति है जो पुनरावृति 226 00:22:33,000 --> 00:22:35,133 की शक्ति या चक्र की अन्योन्य 227 00:22:35,133 --> 00:22:37,833 क्रिया के माध्यम से कार्य करता है । 228 00:22:37,833 --> 00:22:41,733 यंत्र की शक्ति सब कुछ है लेकिन वर्तमान संसार में समाप्त हो गई है, 229 00:22:41,733 --> 00:22:44,733 क्योंकि हम केवल बाहरी रूप में अर्थ ढूँढ़ते हैं और हम अपने 230 00:22:44,733 --> 00:22:59,233 अभीष्ट के माध्यम से अपनी आंतरिक ऊर्जा से इसे संबद्ध नहीं करते। 231 00:22:59,233 --> 00:23:01,633 पादरी, मठवासी, योगियों का पारंपरिक रूप से ब्रह्मचारी 232 00:23:01,633 --> 00:23:04,005 बने रहने के पीछे भी एक सही कारण रहा है। 233 00:23:04,005 --> 00:23:08,433 आज केवल बहुत कम लोग जानते हैं कि वे क्यों ब्रह्मचर्य का अभ्यास कर रहे हैं, 234 00:23:08,433 --> 00:23:11,633 चूंकि सच्चा प्रयोजन समाप्त हो गया है । 235 00:23:11,633 --> 00:23:16,033 सीधी-सी बात है कि जैसी भी स्थिति है, 236 00:23:16,033 --> 00:23:19,433 आपकी ऊर्जा अधिक जीवाणु या 237 00:23:19,433 --> 00:23:24,267 अंडों का उत्पापादन कर रही है । कुंडलिनी के और अधिक उत्कर्ष के लिए उत्तेजना नहीं है, जो उच्चतर चक्रों को सक्रिय करता है । 238 00:23:24,267 --> 00:23:34,005 कुंडलिनी जीवन ऊर्जा है, जो यौन ऊर्जा भी है । 239 00:23:34,005 --> 00:23:37,533 जब जागृति पाश्विक इच्छाओं पर कम केन्द्रित होने लगती है 240 00:23:37,533 --> 00:23:41,008 और उच्च चक्रों के वास्तविक प्रतिबिंबन पर आ जाती है, 241 00:23:41,008 --> 00:23:49,008 तो वह ऊर्जा मेरुदंड पर उन चक्रों में प्रवाहित होने लगती है । 242 00:23:49,008 --> 00:23:54,008 कई तांत्रिक अभ्यास करवाते हैं कि इस यौन ऊर्जा पर किस प्रकार नियंत्रण किया जाए, 243 00:23:54,008 --> 00:24:07,267 ताकि इसका उपयोग उच्चतर आध्यात्मिक विकास में किया जा सके । 244 00:24:07,267 --> 00:24:09,006 आपकी चेतना की मनोदशा आपकी ऊर्जा के लिए उचित 245 00:24:09,006 --> 00:24:12,533 स्थितियों का सृजन करती है 246 00:24:12,533 --> 00:24:16,133 ताकि इसका विकास किया जा सके । 247 00:24:16,133 --> 00:24:20,009 जैसा कि एक्खार्ट टोले ने कहा है “जागृति एवं उपस्थिति सदैव वर्तमान में घटित होती है।“ 248 00:24:20,009 --> 00:24:23,867 यदि आप कुछ घटित होने का प्रयास कर रहे हैं तो आप 249 00:24:23,867 --> 00:24:28,233 यथास्थिति में प्रतिरोध उत्पन्न कर रहे हैं । 250 00:24:28,233 --> 00:24:31,000 यह सभी तरह के प्रतिरोध को दूर करना ही है, 251 00:24:31,000 --> 00:24:38,000 जिससे विकासात्मक ऊर्जा अनावृत होने लगती है । 252 00:24:38,000 --> 00:24:41,733 प्राचीन यौगिक परंपरा में योग क्रियाओं को ध्यान के लिए शरीर 253 00:24:41,733 --> 00:24:44,733 को तैयार करने के लिए किया जाता है । 254 00:24:44,733 --> 00:24:49,533 हठयोग का उद्देश्य केवल अभ्यास पद्धति नहीं, 255 00:24:49,533 --> 00:24:54,433 बल्कि व्यक्ति का आंतरिक तथा बाहरी संसार से संपर्क साधना है । 256 00:24:54,433 --> 00:25:01,967 संस्कृत शब्द `हठ` का अर्थ `सूर्य` का `ह` तथा चंद्रमा का `ठ` है । 257 00:25:01,967 --> 00:25:05,233 पतंजलि के मूल योग सूत्र में योग के आठ 258 00:25:05,233 --> 00:25:07,233 अवयवों का प्रयोजन बुद्ध की आठ परतों 259 00:25:07,233 --> 00:25:10,767 के मार्ग के समान है, जिससे 260 00:25:10,767 --> 00:25:14,767 व्यक्ति पीड़ाओं से उबर सके । 261 00:25:14,767 --> 00:25:17,767 जब द्वैत विश्व की ध्रुवताएं संतुलन में हैं, 262 00:25:17,767 --> 00:25:21,001 तो तीसरी वस्तु, उत्पन्न होती है । 263 00:25:21,001 --> 00:25:23,833 हम रहस्यपूर्ण स्वर्ण कुंजी पाते हैं जो प्रकृति की 264 00:25:23,833 --> 00:25:28,267 विकासात्मक शक्तियों को खोलती हैं । 265 00:25:28,267 --> 00:25:43,833 सूर्य एवं चंन्द्रमा का यह संश्लेषण हमारी विकासात्मक ऊर्जा है । 266 00:25:43,833 --> 00:25:46,333 चूंकि मनुष्य अब अनन्य रूप से आंतरिक एवं बाहरी 267 00:25:46,333 --> 00:25:49,167 संसार तथा अपने विचारों से जाना जाता है अतएव 268 00:25:49,167 --> 00:25:51,833 ऐसे विरल व्यक्ति हैं जो आंतरिक तथा बाहरी शक्तियों 269 00:25:51,833 --> 00:25:55,633 का संतुलन प्राप्त करते हैं जिससे कुंडलिनी 270 00:25:55,633 --> 00:25:59,633 प्राकृतिक रूप से जागृत हो जाती है । 271 00:25:59,633 --> 00:26:02,733 जो केवल संयम में रहते हैं, 272 00:26:02,733 --> 00:26:06,007 उनके लिए कुंडलिनी हमेशा रूपक, 273 00:26:06,007 --> 00:26:12,267 एक विचार बनी रहती है न कि व्यक्ति की ऊर्जा और 274 00:26:12,267 --> 99:59:59,999 यह चेतना का प्रत्यक्ष अनुभव बन जाती है । �