मैं यहाँ से शुरु करूँगा।
ये हाथ से बनाया गया एक चिन्ह है
जो एक छोटी सी बेकरी मे लगा था
कुछ साल पहले ब्रुकलिन में मेरे पडोस के इलाके में।
इस बेकरी में एक छोटी से मशीन लगी थी
जो कि शुगर-प्लेट पर छपाई कर सकती थी।
और बच्चे अपनी अपनी ड्राइंग लाते थे,
और दुकान में एक शुगर-प्लेट पर छपवा कर
अपने बर्थ-डे केक के ऊपर लगाते थे।
मगर दुर्भाग्यवश, एक चीज़ जो बच्चे ख़ूब बनाते हैं,
वो है कार्टून चरित्रों की ड्राइंग।
उन्हें मज़ा आता है लिटल मर्मेड बना कर,
स्मर्फ़ बना कर, मिकी माउस बना कर।
मगर असल में ये ग़ैर-कानूनी है
कि मिकी माउस का चित्र जो एक बच्चे ने बनाया है,
एक शुगर-प्लेट पर छापा जाये।
और ये कॉपी-राइट का हनन है।
और ऐसे कॉपी-राइट को
बच्चों के केक से बचाना
इतना उलझा हुआ काम था
कि कॉलेज बेकरी ने कहा,
"ऐसा है, हम ये काम ही बंद कर रहे हैं।
अगर आप शौकिया कलाकार हैं,
तो आप हमारी मशीन का इस्तेमाल नही कर सकते।
अगर आपको अपने बर्थ-डे केक पर छपाई चाहिये,
तो आपको हमारे पास पहले से उपलब्ध चित्रों में से एक लेना होगा --
केवल पेशेवर कलाकारों द्वारा बनाये गये चित्रों से।"
तो कांग्रेस में इस वक्त दो विधेयक पेश हो चुके हैं।
एक है सोपा (SOPA) और दूसरा है पिपा (PIPA)।
सोपा (SOPA) का अर्थ है स्टॉप ऑनलाइन पायरेसी एक्ट।
ये सेनेट से आया है।
पिपा (PIPA) लघु रूप है PROTECTIP का
जो कि स्वयं लघुरूप है
प्रिवेंटिंग रियल ऑनलाइन थ्रेट्स
टू इकॉनामिक क्रिएटिविटी
एन्ड थेफ़्ट ऑफ़ इन्टेलेक्चुअल प्रोपर्टी --
इन चीज़ों को नाम देने वाले कांग्रेस के नुमाइंदों के पास
बहुत ढेर सारा फ़ालतू समय होता है।
और सोपा और पिपा नाम की बलायें
आख़िरकार करना ये चाहती हैं।
वो इतना महँगा बना देना चाहती हैं
कॉपी-राइट के दायरे में रह कर काम करने को,
कि लोग उन काम-धंधों को छोड ही दें
जिनमें शौकिया रचना करने वाले शामिल होते हैं।
अब, ऐसा करने के लिये उनका सुझाव ये है कि
उन वेबसाइटों को पहचान लिया जाये
जो कॉपी-राइट हनन कर रहे हैं --
हालांकि ये साइट कैसे कॉपी-राइट हनन कर रहे हैं,
विधेयक इस मुद्दे पर चुप्पी साधे बैठा है --
और फ़िर वो इन साइटों को डोमेन नेम सिस्टम से बर्खास्त कर देना चाहते हैं।
वो इन्हें डोमेन नेम सिस्टम से निष्काशित कर देना चाहते हैं।
देखिये ये डोमेन नेम सिस्टम ही है
जो कि इंसानों को समझ आने वाले नामों को, जैसे कि गूगल डॉट कॉम,
उन नामों में बदलता है
जिन्हें कम्प्यूटर समझता है --
जैसे कि ७४.१२५.२२६.२१२
असल ख़राबी इस सेंसरशिप के मॉडल में,
जो कि इन साइटों को ढूँढेगा,
फ़िर उन्हें डोमेन नेम सिस्टम से हटाने की कोशिश करेगा,
ये है कि ये काम नहीं करेगा।
और आपको लग रहा होगा कि ये कानून के लिये ख़ासी बडी दिक्कत होगी
मगर कांग्रेस इस बात से ज़रा भी परेशान नही लगती है।
ये सिस्टम धवस्त इसलिये हो जायेगा क्योंकि
आप अब भी अपने ब्राउज़र में ७४.१२५.२२६.२१२ टाइप कर के
या उसका क्लिक-करने लायक लिंक बना कर
अब भी गूगल तक पहुँच पायेंगे।
तो जो सुरक्षात्मक घेरा
इस समस्या के आसपास खडा किया गया है,
वही इस एक्ट का सबसे बडा खतरा है।
कैसे कांग्रेस ने ऐसा विधेयक लिख डाला
जो कि अपने मुकरर्र लक्ष्यों को कभी पूरा नहीं करेगा,
मगर एक हज़ार नुकसानदायक साइड-एफ़ेक्ट बना डालेगा,
ये समझने के लिये आपको कहानी में गहरे पैठना होगा।
और कहानी कुछ ऐसी है:
सोपा और पिपा, ऐसे विधेयक हैं
जिनका ड्राफ़्ट मुख्यतः उन मीडिया कंपनियों ने लिखा
जो कि बीसवीं सदी में शुरु हुई थीं।
बीसवीं सदी मीडिया कंपनियों के लिये स्वर्णिम समय था
क्योंकि मीडिया कंटेट की बहुत ही ज्यादा कमी थी।
अगर आप कोई टी.वी. शो बना रहे हैं,
तो उसे बाकी सारे टी.वी शो से बेहतर नहीं होना होगा;
उसे केवल बेहतर होना होगा
बाकी दो शो से,
जो उसी समय प्रसारित होते हों --
जो कि बहुत ही हल्की शर्त है
स्पर्धा के लिहाज से।
जिसका मतलब है
कि यदि आप बिलकुल औसत कंटेंट भी बना रहे हैं,
तो फ़्री में अमरीका की एक-तिहाई पब्लिक आपकी बात सुनने को मजबूर है -
कई लाख लोग एक साथ आपको सुन रहे हैं
तब भी जब कि आपका बनाया
कुछ ख़ास नहीं है।
ये ऐसा है जैसे आपको नोट छापने का लाइसेंस मिल जाये,
और साथ ही फ़्री इंक भी।
मगर टेक्नालाजी आगे बढ गयी, जैसा कि वो हमेशा करती है।
और धीरे धीरे, बीसवीं शताब्दी के अंत तक,
कंटेट की वो कमी खत्म सी होने लगी --
और मेरा मतलब डिजिटल टेक्नालाजी से नहीं है,
साधारण एनालाग टेक्नालाजी भी ज़रिया बनी।
कैसेट टेप, विडियो कैसेट रेकार्डर,
यहाँ तक कि ज़ेराक्स मशीन भी
नये अवसर पैदा करने लगी
ऐसे क्रियाकलापों के लिये,
जिन्होनें इन मीडिया कंपनियों की हवा निकाल दी।
क्योंकि अचानक इन्हें पता लगा कि
कि हम लोग सिर्फ़ चुपचाप बैठ कर देखने वाले लोग नहीं हैं।
हम सिर्फ़ कनस्यूम करना ही नहीं चाहते।
हमें कन्स्यूम करने में मज़ा आता है,
मगर जब भी ऐसे नये अविष्कार हम तक पहुँचे,
हमने कुछ रचने की भी कोशिश की
और अपनी रचना को शेयर करने, बाँटने का प्रयास किया।
और इस बात ने मीडिया कंपनियों को घबराहट में डाल दिया --
हर बार उनकी हालत पतली ही हुई।
जैक वलेन्टी ने, जो कि मुख्य प्रचारक थे
मोशन पिक्चर एसोसिएशन ऑफ़ अमेरिका के,
एक बार घृणा योग्य विडियो कैसेट रिकार्डर की तुलना
जैक द रिपर से की थी
और गरीब, ह्ताश, बेचारे हॉलीवुड की
उस कमज़ोर औरत से जो घर पर अकेले शिकार होने को बैठी है।
इस स्तर पर चीख-पुकार मचायी गयी थी।
और इसलिये मीडिया इंडस्ट्री ने
गिडगिडा कर, ज़ोर डाल कर, ये माँग रखी
कि काँग्रेस कुछ करे।
और काँग्रेस ने किया भी।
९० के दशक के पूर्वार्ध तक, काँग्रेस ने ऐसा कानून बनाया
जिसने सब कुछ बदल दिया।
और उस कानून का नाम था 'द ऑडियो होम रेकार्डिंग एक्ट'
सन १९९२ का।
१९९२ का द ऑडियो होम रिकार्डिंग एक्ट ये कहता है कि,
देखिये, अगर लोग रेडियो प्रसारण को रिकार्ड कर रहे हैं,
और फ़िर दोस्तों के लिये खिचडी-कैसेट बना रहे हैं,
तो ये अपराध नहीं है। इसमें कोई गलत बात नहीं है।
टेप करना, रीमिक्स करना,
और दोस्तों में बाँटना गलत नहीं है।
यदि आप कई सारी उम्दा क्वालिटी की कॉपी बना कर बेच रहे हैं,
तो ये बिल्कुल भी सही नहीं है।
मगर ये छोटा मोटा टेप करना वगैरह
ठीक है, इसे चलने दो।
और उन्हें लगा कि उन्होनें मसले को हल कर दिया है,
क्योंकि उन्होंने साफ़ लकीर बना दी थी
कानूनन गलत और कानूनन सही कॉपी करने के बीच।
मगर मीडिया कंपनियों को ये नहीं चाहिये था।
वो ये चाहते थे कि काँग्रेस
किसी भी तरह की कॉपी करने पर पूर्ण रोक लगा दे।
तो जब १९९२ का ऑडियो होम रेकार्डिंग एक्ट पास हुआ,
मीडया कंपनियों ने ये विचार ही छोड दिया कि
कॉपी करना किसी स्थिति में कानूनन सही माना जा सकता है
क्योंकि ये साफ़ था
कि यदि काँग्रेस इस नज़रिये से सोचेगी तो
शायद नागरिकों को और भी अधिकार मिले
अपने मीडिया परिवेश में रचनात्मक भागीदारी करने के।
तो उन्होनें दूसरी ही योजना बनाई।
उन्हें इस योजना को बनाने में थोडा समय ज़रूर लगा।
ये योजना पूर्ण रूप से सामने आयी
सन १९९८ में --
डिजिटल मिलेनियम कॉपीराइट एक्ट के रूप में। (डी.एम.सी.ए.)
ये अत्यधिक जटिल कानून था, हजारों हिस्सों में बँटा हुआ।
मगर डी.एम.सी.ए का मुख्यतः ज़ोर ये था कि
ये कानूनन सही है कि आपको बेचा जाय
ऐसा डिजिटल कंटेट जिसे कॉपी नहीं किया जा सकता --
बस इतनी सी गल्ती हुई कि ऐसा कोई डिजिटल कंटेट नहीं हो सकता जो कॉपी न हो सके।
ये ऐसा था जैसा कि एड फ़ेल्टन ने कहा था,
"ऐसा पानी बेचना जो
गीला न हो।"
बिट्स तो कॉपी लायक होते ही हैं। यही तो कम्प्यूटर करते हैं।
ये तो उनके सामन्य काम करने के तरीका का निहित अंग है।
तो ऐसी काबलियत के नाटक के लिये
कि असल में कॉपी नहीं होने वाले बिट्स बिक सकते हैं,
डी.एम.सी.ए ने ये भी कानूनी रूप से सही करार दिया
कि आप पर ऐसे सिस्टम थोपे जायें
जो आपके यंत्रों की कॉपी करने के काबलियत खत्म कर दें।
हर डीवीडी प्लेयर और गेम प्लेयर
और टीवी, और कम्प्यूटर जो आप घर ले जाते रहे --
आप चाहे जो सोच कर उसे खरीद रहे थे --
कंटेट इंडस्ट्री द्वारा तोडा जा सकता था,
अगर वो चाहते कि इसी शर्त पर आपको कंटेंट बेचेंगे।
और ये सुनिश्चित करने के लिये कि आपको ये पता न लगे,
या फ़िर आप उस यंत्र की साधारण
कम्प्यूटर नुमा गतिविधियों को इस्तेमाल न कर पायें,
उन्होंने ये गैर-कानूनी करवा दिया
कि आप रीसेट कर सके
उनके कंटेंट को कापी होने लायक बनाने के लिये।
डी.एम.सी.ए. वो काला क्षण है
जब कि मीडिया इंडस्ट्री ने
उस कानूनी सिस्टम को ताक पर रख दिया
जो कानूनी और गैर-कानूनी कॉपी में फ़र्क करता था,
और पूरी तरह से कॉपी रोकने का प्रयास किया,
तकनीक के इस्तेमाल से भी।
डी.एम.सी.ए के कई जटिल असर होते आये हैं, और हो रहे हैं,
और इस संदर्भ में उसका असर है - शेयरिंग पर कसी गयी लगाम,
मगर वो ज्यादातर नाकामयाब ही हुये हैं।
और उनकी इस असफ़लता का मुख्य कारण रहा है ये कि
इंटरनेट ज्यादा फ़ैला है, और ज्यादा शक्तिशाली बन कर उभरा है,
किसी की भी सोच के मुकाबले।
टेप मिक्स करना, फ़ैन मग्ज़ीन वगैरह निकानला
कुछ भी नहीं है उस के मुकाबले जो आज घटित हो रहा है
इंटरनेट पर।
हम आज ऐसे विश्व के बाशिंदे हैं
जहाँ ज्यादातर अमरीकी
जो १२ वर्ष से बडे हैं,
एक दूसरे से ऑन्लाइन चीजें शेयर करते हैं।
हम लेख शेयर करते हैं, तस्वीरें साझा करते हैं,
ऑडियो, विडियो सब साझा करते हैं।
हमारी शेयर की गयी चीजों में से कुछ हमारी खुद की बनायी होती हैं।
कुछ ऐसी सामग्री होती है जो हमें मिली होती है।
और कुछ ऐसी सामग्री भी जो
हमने उस कंटेट से बनायी होती है जो हमें मिला,
और ये सब मीडिया इंडस्ट्री के होश उडाने के लिये काफ़ी है।
तो पिपा और सोपा इस युद्ध
की दूसरी कडी है।
मगर जहाँ डी.एम.सी.ए. अंदर घुस कर काम करता था --
कि हम आपके कम्प्यूटर में घुसे हैं,
आपके टीवी का हिस्सा हैं, आपके गेम मशीन में मौजूद हैं,
और उसे वो करने से रोक रहे हैं
जिसके वादे पर हमने उन्हें खरीदा था --
पिपा और सोपा तो परमाणु विस्फ़ोट जैसे हैं
और ये कह रहे हैं, कि हम दुनिया में हर जगह पहुँच कर
कंटेंट को सेंसर करना चाहते हैं।
और इसे करने की विधि, जैसे मैने पहले कहा,
ये है कि आप हर उस लिंक को हटा देंगे
जो उन आई.पी. एड्रेस तक पहुँचेंगे।
आप को उन्हें सर्च इंजिन से हटाना होगा,
आपको ऑनलाइन डारेक्ट्रियों से हटाना होगा,
आपको यूसर लिस्टों से हटाना होगा।
और क्योंकि इंटरनेट पर कंटेट के सबसे बडे रचयिता
गूगल या याहू नहीं हैं,
आप और हम हैं,
असल में निगरानी आपकी और हमारी ही होगी।
क्योंकि आखिर में,
असली खतरा
पिपा और सोपा के कानून बनने से
हमारी चीजों को शेयर करने की काबलियत को है।
तो पिपा और सोपा से खतरा ये है कि
ये सदियों पुराने कानूनी सिद्दांत को,
कि "जब तक सिद्ध नहीं, अपराधी नहीं"
उलट देंगे कि -
"जब तक सिद्ध नहीं, अपराधी" में
आप शेयर नहीं कर सकते
जब तक कि आप ये न दिखा दें
कि आप जो शेयर कर रहे हैं,
वो इनके हिसाब से ठीक है।
अचानक, कानूनी और गैर-कानूनी होने का पूरा दारोमदार
हम पर ही गिर जायेगा।
और उन सेवाओं पर जो
हमें नया नया काम करने की काबलियत देना चाहती हैं।
और अगर सिर्फ़ एक पैसा भी
एक यूज़र की निगरानी में खर्च हो,
तो कोई भी ऐसी सेवा दिवालिया हो जायेगी
जिसके सौ मिलियन यूज़र होंगे।
और यही इंटरनेट है इन के दिमाग में।
सोचिये हर जगह ऐसा ही निशान लगा हो --
और यहाँ कॉलेज बेकरी न लिखा हो,
यहाँ लिखा हो यू-ट्यूब
और फ़ेसबुक और ट्विटर।
सोचिये यहाँ लिखा हो टेड,
क्योंकि कमेंटों की तो निगरानी हो ही नहीं सकती है
किसी भी कीमत पर।
सोपा और पिपा का असल असर
बताये जा रहे असर से बहुत अलग हो रहेगा।
असल खतरा ये है कि
साबित करने का काम उलटी पार्टी का हो जायेगा,
जहाँ अचानक हम सभी को
चोरों की तरह देखा जायेगा,
हर क्षण जब भी हम रचना की स्वतंत्रता का इस्तेमाल करेंगे,
कुछ बनाने या शेयर करने के लिये।
और वो लोग जिन्होंने हमें ये काबलियत दी है --
दुनिया भर के यू-ट्यूब, फ़ेसबुक, ट्विटर और टेड -
उनका मुख्य काम
हमार निगरानी करने का हो जायेगा,
कि कहीं हमारे द्वारा शेयर की चीज़ से उन पर तो फ़ंदा नहीं कस जायेगा।
अब दो काम हैं जो आप कर सकते हैं
इसे रोकने के लिये --
एक साधारण काम है और एक जटिल काम है,
एक आसान काम है और एक कठिन है।
साधारण आसान काम ये है:
यदि आप अमरीकी हैं,
तो अपने विधायक को कॉल कीजिये।
जब आप देखेंगे
कि कौन लोग हैं जिन्होंने सोपा को बढावा दिया है,
और पिपा के लिये प्रचार किया है,
आप देखेंगे कि उन्होंने लगातार कई सालों से
दसियों लाख डॉलर
पाये हैं पारंपरिक मीडिया इंडस्ट्री से।
आपके पास दसियों लाख डॉलर नहीं हैं,
लेकिन आप अपने नेताओं को कॉल कर के
ये याद दिला सकते हैं कि आप के पास वोट है,
और आप नहीं चाहते कि आप के साथ चोरों जैसा बर्ताव हो,
और आप उन्हें सुझाव दे सकते है कि आप चाहेंगे
कि इंटरनेट की कमर न तोडी जाये।
और अगर आप अमरीकी नहीं हैं,
तो आप उन अमरीकियों से बात कीजिये जिन्हें आप जानते हैं,
और उन्हें उत्साहित कीजिये ये करने के लिये।
क्योंकि इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाया जा रहा है,
मगर ये है नहीं।
ये इंडस्ट्री सिर्फ़ इस पर नहीं रुकेगी कि
इस ने अमरीका के इंटरनेट पर कब्ज़ा कर लिया।
यदि ये सफ़ल हुए, तो दुनियी भर का इंटरनेट कब्जा लेंगी।
ये तो था आसान काम।
ये था साधारण काम।
अब कठिन काम:
तैयार हो जाइये, क्योंकि और भी हमले होने वाले हैं।
सोपा असल में कोयका (COICA) का नया रूप है,
जिसे पिछले साल पेश किया गया था, मगर वो पास नहीं हुआ।
और ये सारी कहानी ठहरती है
डी.एम.सी.ए. के असफ़ल हो जाने में,
टेक्नालाजी का इस्तेमाल कर के शेयरिंग रोक पाने में असफ़ल होने में।
और डी.एम.सी.ए. ठहरता है द ऑडियो होम रिकार्डिंग एक्ट पर,
जिसने इस इंडस्ट्री के शहंशाहों की हवा निकाल दी थी।
क्योंकि ये जटिल है कि
पहले कहा जाये कि कोई कानून तोड रहा है
और फ़िर सबूत इकट्ठे करना और सिद्ध करना,
ये काफ़ी असुविधा भरा है।
"काश इस सिद्द करने के झमेले में न पडना पडे"
कंटेंट कंपनियाँ ये सोचती हैं।
और वो इस झमेले में पडना ही नहीं चाहती कि
ये सोचना पडे कि क्या फ़र्फ़ है
कानूनी और गैर-कानूनी में।
वो तो बस सीधा सरल उपाय चाहती हैं कि शेयरिंग बंद हो जाये।
पिपा और सोपा कोई नयी बात या अलग सा आयडिया नहीं हैं,
न ही ये आज शुरु हुआ कोई खेल है।
ये तो उसी पुराने पेंच का अगला घुमाव है,
जो पिछले बीस साल से षडयंत्र कर रहा है।
और अगर हमने इसे हरा दिया, जैसा मैं आशा करता हूँ,
और हमले आयेंगे।
क्योंकि जब तक हम काँग्रेस को विश्वास नहीं दिला देते
कि कॉपीराइट हनन से निपटने का सही उपाय वो है जो कि
नैप्स्टर या यूट्यूब ने इस्तेमाल किया,
जहाँ एक सुनवाई होती है सारे सबूतों के साथ,
सारे तथ्यों पर विचार कर के, और उपायों पर विमर्ष कर के,
जैसा कि प्रजातांत्रिक समाजों में होता है।
ये ही सही तरीका है इस से निपटने का।
और इस बीच,
कठिन काम ये है कि कमर कस लीजिये।
क्योंकि यही पिपा और सोपा का असली संदेश है।
टाइम वार्नर ने बुलावा भेज दिया है
और वो हमें वापस सिर्फ़ कन्स्यूमर बनाना चाहते हैं-
काउच पोटेटो (couch potato)
हम न रचें, न हम शेयर करें --
और हमें ज़ोर से कहना चाहिये, "नहीं।"
धन्यवाद।
(तालियाँ)