WEBVTT 00:00:03.867 --> 00:00:06.867 पाइथागोरियन दार्शनिक प्लेटो ने रहस्यमय ढंग से संकेत 00:00:06.867 --> 00:00:09.008 दिया कि एक ऐसी स्वर्ण कुंजी है जिससे ब्रह्माण्ड 00:00:09.008 --> 00:00:13.007 के सभी रहस्य खोजे जा सकते हैं । 00:00:13.007 --> 00:00:17.633 यह वही स्वर्ण कुंजी है जिसके पास हम अपने 00:00:17.633 --> 00:00:21.033 अन्वेषण के दौरान बारंबार लौट आएँगे। 00:00:21.033 --> 00:00:24.467 स्वर्ण कुंजी `लोगो़` की बुद्धिमत्ता है, 00:00:24.467 --> 00:00:27.733 प्रारंभिक ओम् के स्रोत को पहचानना । 00:00:27.733 --> 00:00:33.004 कोई कह सकता है कि यह ईश्वर का स्मरण है । 00:00:33.004 --> 00:00:36.833 अपनी सीमित चेतनाओं से हम केवल आत्म-अनुरूपता की 00:00:36.833 --> 00:00:42.867 प्रच्छन्न प्रक्रिया के बाहरी प्रकटीकरण को देख रहे हैं । 00:00:42.867 --> 00:00:52.333 इस दिव्य प्रतिसाम्य का स्रोत हमारे अस्तित्व का महानतम रहस्य है । 00:00:52.333 --> 00:00:57.633 पाइथागोरस, केपलर, लियोनार्डो द विंसी तथा आईंस्टाइन जैसे इतिहास के कई 00:00:57.633 --> 00:01:05.933 अत्यंत महत्वपूर्ण चिंतक रहस्य की इस दहलीज तक पहुँचे। 00:01:05.933 --> 00:01:12.467 आईंस्टाइन ने कहा कि "अत्यधिक सुंदर वस्तु जिसे हम अनुभव कर सकते हैं वह रहस्यपूर्ण है । 00:01:12.467 --> 00:01:16.004 यह सभी सत्य कला एवं विज्ञान का स्रोत है । 00:01:16.004 --> 00:01:19.067 वह जिसके लिए यह भावना अपरिचित है, 00:01:19.067 --> 00:01:23.633 जो आश्चर्यचकित होकर ठहर नहीं जाता और विस्मय में सम्मोहित 00:01:23.633 --> 00:01:29.004 नहीं हो जाता है, वह मृतक समान है । उसके नेत्र बंद हैं ।" 00:01:29.004 --> 00:01:31.867 हमारी स्थिति उस छोटे बच्चे की है जो अनेक भाषाओं की 00:01:31.867 --> 00:01:36.008 पुस्तकों के बड़े पुस्तकालय में प्रवेश कर रहा है । 00:01:36.008 --> 00:01:40.333 बच्चा जानता है कि किसी ने इन पुस्तकों को लिखा होगा 00:01:40.333 --> 00:01:46.567 वह यह नहीं जानता कि कैसे । 23 00:01:42,433 --> 00:01:46,567 वह उन भाषाओं को भी नहीं जानता जिसमें इन्हें लिखा गया है । 00:01:46.567 --> 00:01:51.267 बच्चा पुस्तकों की व्यवस्था के रहस्यपूर्ण 00:01:51.267 --> 00:01:53.333 क्रम पर थोड़ा आशंकित होता है लेकिन जानता नहीं कि यह सब है क्या 00:01:53.333 --> 00:01:57.333 मुझे लगता है कि यही प्रवृति अत्यधिक बुद्धिमान 00:01:57.333 --> 00:02:00.001 मनुष्य को ईश्वर की ओर ले जाती है । 00:02:00.001 --> 00:02:05.567 हम देखते हैं कि यह ब्रह्माण्ड आश्चर्यजनक रूप से व्यवस्थित है और कुछेक नियमों का पालन कर रहा है । 00:02:05.567 --> 00:02:14.467 हमारे सीमित मस्तिष्क उस रहस्यपूर्ण शक्ति को समझ नहीं सकते, जो नक्षत्रों को संचालित करता है । 00:02:14.467 --> 00:02:17.267 प्रत्येक वैज्ञानिक जो गहराई से ब्रह्माण्ड को देखता है 00:02:17.267 --> 00:02:20.833 और प्रत्येक रहस्यवादी जो गहराई से स्वयं के भीतर झांकता है, 00:02:20.833 --> 00:02:26.633 अंततोगत्वा एक ही चीज के समक्ष आ खड़ा हो जाता है। 00:02:26.633 --> 00:02:41.008 आदिम सर्पिल गति । 00:02:41.008 --> 00:03:00.833 पाषाण युग में प्राचीन वेधशला के सृजन के हजारों वर्ष पूर्व 00:03:00.833 --> 00:03:07.003 सर्पिल पृथ्वी पर प्रमुख प्रतीक था । 00:03:07.003 --> 00:03:11.867 प्राचीन सर्पिल विश्व के सभी भागों में पाए जा सकते हैं । 00:03:11.867 --> 00:03:16.833 इस प्रकार के हजारों प्राचीन सर्पिल यूरोप, उत्तरी अमरीका, 00:03:16.833 --> 00:03:23.001 न्यू मैक्सिको, ऊटा, आस्ट्रेलिया, चीन, रूस में पाए जा सकते हैं । 00:03:23.001 --> 00:03:28.002 वास्तविक रूप में पृथ्वी पर प्रत्येक देशी संस्कृति में । 00:03:28.002 --> 00:03:35.167 प्राचीन सर्पिल सूर्य तथा स्वर्ग में सम्मिलित विकास, विस्तार तथा 00:03:35.167 --> 00:03:37.001 अंतरिक्षीय ऊर्जा का प्रतीक है । 00:03:37.001 --> 00:03:43.367 सर्पिल रूप खुले ब्रह्माण्ड के विश्व का प्रतिरूप प्रस्तुत कर रहे हैं । 00:03:43.367 --> 00:03:52.001 देशीय परंपराओं में, सर्पिल ऊर्जाशील स्रोत आदिम जननी थी । 00:03:52.001 --> 00:04:00.233 न्यूग्रेंगे, आयरलैंड में पांच हजार वर्ष पीछे नियोलिथिक सर्पिल । 00:04:00.233 --> 00:04:07.005 वे गिज़ा में बड़े पिरामिड से पांच सौ वर्ष पुराने हैं और 00:04:07.005 --> 00:04:14.006 वे आधुनिक प्रेक्षकों की तरह पेचीदा हैं । 00:04:14.006 --> 00:04:17.467 सर्पिल इतिहास में उस समय से हैं जब मानव, पृथ्वी से - 00:04:17.467 --> 00:04:22.133 चक्रों व प्रकृति के सर्पिल से अधिक संबद्ध था । 00:04:22.133 --> 00:04:26.004 ऐसा समय जब मानव विचारों से कम परिचित था । 00:04:26.004 --> 00:04:33.733 सर्पिल जैसा कि हम समझते हैं, ब्रह्माण्ड के गुंथे हुए रुपहले तारों की कंठी है । 00:04:33.733 --> 00:04:42.001 प्राण या सृजनात्मक शक्ति आकाश को ठोस रूपों के सातत्य में घुमाती है । 00:04:42.001 --> 00:04:45.967 सर्पिल तारामंडल से मौसम प्रणालियों तक ब्रह्माण्ड और लघु ब्रह्माण्ड 00:04:45.967 --> 00:04:47.067 के बीच सभी स्तरों पर 00:04:47.067 --> 00:04:53.167 उपलब्ध आपके स्नानागार 00:04:53.167 --> 00:04:58.367 में जल तक, 00:04:58.367 --> 00:05:01.367 आपके डीएनए तक, 00:05:01.367 --> 00:05:09.000 आपकी अपनी ऊर्जा के प्रत्यक्ष अनुभव तक जाता है । 00:05:09.000 --> 00:05:11.009 आदिम सर्पिल एक विचार नहीं, 00:05:11.009 --> 00:05:18.133 बल्कि वह जो सभी संभव स्थितियों व विचारों का निर्माण करता है । 00:05:18.133 --> 00:05:29.567 विभिन्न प्रकार के सर्पिल और सर्पिलज समग्र प्राकृतिक संसार में पाए जाते हैं । 00:05:29.567 --> 00:05:34.933 घोंघें, 00:05:34.933 --> 00:05:45.733 समुद्री मुंगे, 00:05:45.733 --> 00:05:56.005 मकड़ी के जाले, 00:05:56.005 --> 00:06:01.009 जीवाश्म । 00:06:01.009 --> 00:06:07.233 समुद्री घोड़े की पूंछ 00:06:07.233 --> 00:06:16.667 और शंख । 00:06:16.667 --> 00:06:21.004 प्रकृति में दिखाई देने वाले अनेक सर्पिल लघु गणकीय सर्पिल या वृद्धिशील सर्पिल के 00:06:21.004 --> 00:06:22.733 रूप में प्रेक्षणीय हैं । 00:06:22.733 --> 00:06:32.833 जैसे ही आप केन्द्र से बाहर आते हैं, सर्पिल खंड घातीय रूप से बड़ा हो जाता है । 00:06:32.833 --> 00:06:37.009 इन्द्र के रत्नजाल की तरह लघु 00:06:37.009 --> 00:06:42.767 गणकीय सर्पिल स्वयं के समान या स्वलिखित हो जाते हैं, 00:06:42.767 --> 00:06:45.000 जिससे प्रत्येक भाग की विशेषताएं संपूर्णता में प्रतिबिंबित होने लगती हैं । 00:06:45.000 --> 00:06:51.167 प्राचीन ग्रीस में 2400 वर्ष पूर्व, प्लेटो ने सतत ज्यामितिक 00:06:51.167 --> 00:06:56.467 समानुपात को अत्यधिक दो दुर्बोध ब्रह्मांडीय बंध होने पर विचार किया । 00:06:56.467 --> 00:07:02.233 स्वर्ण अनुपात या दिव्य समानुपात प्रकृति का महानतम रहस्य था । 00:07:02.233 --> 00:07:04.233 स्वर्ण अनुपात को ए+बी से ए के अनुपात के रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है, 00:07:04.233 --> 00:07:10.933 जो ए से बी के अनुपात के समान है । 00:07:10.933 --> 00:07:18.933 प्लेटो के अनुसार विश्व की आत्मा एक अनुकूल प्रतिध्वनि में एक साथ बांधी जा सकती है । 00:07:18.933 --> 00:07:22.833 इसी प्रकार की पंचभुजीय पद्धति जो तारामीन या भिंडी के भाग में है, 00:07:22.833 --> 00:07:26.433 उसे आठ वर्ष की अवधि में रात्रि आकाश में शुक्रग्रह 00:07:26.433 --> 00:07:39.006 के मार्ग में देखा जा सकता है । 00:07:39.006 --> 00:07:51.733 ऊपर ज्यामितिक अनुरूपता के इस सिद्धांत के माध्यम से रूपों का बोधगम्य 00:07:51.733 --> 00:08:02.067 संसार और नीचे भौतिक वस्तुओं का दृश्यात्मक संसार है । 00:08:02.067 --> 00:08:06.133 रोमेनेस्को फूलगोभी के स्व-अनुरूप सर्पिल पद्धतियों से लेकर 00:08:06.133 --> 00:08:11.033 तारामंडल तक लघुगणितीय सर्पिल सर्वव्यापी 00:08:11.033 --> 00:08:15.667 और आद्यरूप पद्धतियां हैं । 00:08:15.667 --> 00:08:20.033 हमारी अपनी आकाशगंगा तारामंडल की कई सर्पिल हैं जो 00:08:20.033 --> 00:08:23.006 लगभग 12 डिग्रियों के पिच वाली लघु गणितीय सर्पिल है । 00:08:23.006 --> 00:08:32.067 सर्पिल की पिच जितनी अधिक है, घुमाव उतना ही कड़ा है । 00:08:32.067 --> 00:08:37.001 जब आप समय-अंतराल वीडियो में बढ़ते पौधों को देखते हैं तो 00:08:37.001 --> 00:08:51.033 आप जीवंत सर्पिल नृत्य को देखते हैं । 00:08:51.033 --> 00:09:07.233 स्वर्णिम सर्पिल एक लघु गणितीय सर्पिल है जो स्वर्ण 00:09:07.233 --> 00:09:10.333 अनुपात के घटक से बाहरी ओर बढ़ता है । 00:09:10.333 --> 00:09:14.767 स्वर्ण अनुपात एक विशेष गणितीय संबंध है जो 00:09:14.767 --> 00:09:18.833 प्रकृति में अत्यधिक महत्वपूर्ण है । 00:09:18.833 --> 00:09:23.967 इस पद्धति को फाइबोनेक्की शृंखला या फाइबोनेक्की 00:09:23.967 --> 00:09:26.733 अनुक्रम कहा जाता है । 00:09:26.733 --> 00:09:33.967 फाइबोनेक्की शृंखला इस तरह खुलती है कि प्रत्येक संख्या पूर्ववर्ती दो संख्याओं का जोड़ होती है । 00:09:33.967 --> 00:09:38.003 जर्मन गणितज्ञ और खगोलज्ञ केपलर ने खोजा कि स्व-अनुरुप सर्पिल पद्धतियां उसी तरह प्रेक्षणीय हैं जैसे 00:09:38.003 --> 00:09:43.967 जर्मन गणितज्ञ और खगोलज्ञ केपलर ने खोजा कि स्व-अनुरुप सर्पिल पद्धतियां उसी तरह प्रेक्षणीय 00:09:43.967 --> 00:09:49.003 हैं जैसे पत्तों को पौधों के तनों पर व्यवस्थित किया गया है या फूलों की पुष्पक और पंखुड़ी व्यवस्थाओं में है । 00:09:49.003 --> 00:09:52.004 लियोनार्डो द विंसी ने पाया कि पत्तों का अंतराल 00:09:52.004 --> 00:09:55.067 प्राय: सर्पिल पद्धतियों में है । 00:09:55.067 --> 00:09:57.967 इन पद्धतियों को `पर्ण विन्यास` पद्धतियां 00:09:57.967 --> 00:10:02.933 या पत्ता व्यवस्था पद्धतियां कहा जाता है । 00:10:02.933 --> 00:10:08.004 पूर्ण विन्यास व्यवस्थाएं स्व संगठित 00:10:08.004 --> 00:10:16.867 डीएनए न्यूक्लोटाइड्स 00:10:16.867 --> 00:10:21.767 में देखी जा सकती हैं और संतानोत्पत्ति करने वाले 00:10:21.767 --> 00:10:23.833 नागफनी से लेकर 00:10:23.833 --> 00:10:25.003 हिमकण तक और 00:10:25.003 --> 00:10:25.967 डॉयटम जैसे सामान्य 00:10:25.967 --> 00:10:30.867 जीवों में देखे जा सकते हैं । 00:10:30.867 --> 00:10:34.007 डॉयटम अति सामान्य प्रकार के फाईटोपलेंक्टन, 00:10:34.007 --> 00:10:37.733 एक कोशीय जीवों में से एक है जो संपूर्ण खाद्य 00:10:37.733 --> 00:11:05.633 प्रणाली से अगणित जीवों को भोजन उपलब्ध करवाते हैं । 00:11:05.633 --> 00:11:15.367 सूर्यमुखी या मधुमक्खी बनने के लिए आपको गणित की कितनी ज़रूरत होगी? 00:11:15.367 --> 00:11:19.233 प्रकृति फूलगोभी उगाने के लिए भौतिक विभाग से परामर्श नहीं करती । 00:11:19.233 --> 00:11:23.000 प्रकृति में संरचना स्वत: घटित होती है । 00:11:23.000 --> 00:11:27.002 नैनोतकनीक के क्षेत्र में वैज्ञानिक डीएनए के निर्माण 00:11:27.002 --> 00:11:29.967 के आरंभिक षड्भुजाकार चरण जैसी जटिलताओं को वर्णित करने 00:11:29.967 --> 00:11:35.033 के लिए स्व-संयोजन शब्द का प्रयोग करते हैं । 00:11:35.033 --> 00:11:38.467 नैनोतकनीक इंजीनियरिंग में कार्बन नैनोटयूब एकसमान 00:11:38.467 --> 00:11:43.004 व्यवस्था में समाविष्ट किया जाता है । 00:11:43.004 --> 00:11:47.009 प्रकृति इस प्रकार की ज्यामिती को बारंबार, सहजता से करती है। 00:11:47.009 --> 00:11:51.167 स्वचालित रूप से। बिना संगणक के। 00:11:51.167 --> 00:11:54.533 प्रकृति सूक्ष्म और अत्यंत कुशल है । 00:11:54.533 --> 00:11:59.433 प्रसिद्ध वास्तुकार एवं लेखक बकमिंस्टर फुलर के अनुसार 00:11:59.433 --> 00:12:01.967 ये पद्धतियां समय अंतराल के कार्यकलाप हैं । 00:12:01.967 --> 00:12:08.006 बुलबुले के गोल होने का जो कारण है, वही कारण डीएनए और मधुमक्खी के छत्ते की आकृति से जुड़ा है । 00:12:08.006 --> 00:12:13.002 अपेक्षाकृत कम ऊर्जा वाली यह अत्यंत कुशल आकृति है । 00:12:13.002 --> 00:12:18.067 अंतरिक्ष का अपना आकार है और पदार्थ के लिए केवल कुछेक संरूपण की अनुमति 00:12:18.067 --> 00:12:23.633 है और हमेशा व्यतिक्रम से केवल सर्वाधिक कुशल ही उपलब्ध कराती है । 00:12:23.633 --> 00:12:26.006 ये प्रतिकृतियां अल्पांतरीय गुंबद जैसी वास्तु शिल्पीय 00:12:26.006 --> 00:12:41.933 ढांचों के निर्माण के लिए सुदृढ़ एवं कुशल पद्धति है । 00:12:41.933 --> 00:12:45.007 लघुगणकीय सर्पिल प्रतिकृतियां परागण हेतु पौधों को कीटों 00:12:45.007 --> 00:12:53.733 के प्रति अधिकतम अनावरण, सूर्य की रोशनी एवं वर्षा की अधिकतम 00:12:53.733 --> 00:12:59.005 पहुंच अनुमत करती हैं तथा उनकी जड़ों के लिए कुशल रूप से सर्पिल जल उपलब्ध होता है । 00:12:59.005 --> 00:13:07.133 शिकारी पक्षी अपने अगले भोजन का लुकछिप कर शिकार करने के लिए लघुगणितीय सर्पिल पद्धति अपनाते हैं । 00:13:07.133 --> 00:13:23.833 सर्पिल रूप में उड़ना शिकार का सबसे कुशल तरीका है । 00:13:23.833 --> 00:13:28.867 भौतिक रूप में सर्पिल जीवन आकाश को नृत्य करते हुए देखने की किसी की क्षमता प्रकृति में सुन्दरता 00:13:28.867 --> 00:13:36.007 एवं समनुरूपता को देखने की क्षमता से संबद्ध है । 00:13:36.007 --> 00:13:40.867 कवि विलियम ब्लेक ने कहा है, "वानस्पतिक ब्रह्माण्ड" पृथ्वी के केन्द्र 00:13:40.867 --> 00:13:44.733 से फूल की तरह खुलता है जिसमें शाश्वतत्व है । 00:13:44.733 --> 00:13:49.467 यह सितारों से ऐहिक सीप तक विस्तृत होता है और दोबारा 00:13:49.467 --> 00:14:09.033 भीतर और बाहर, दोनों जगह शाश्वतत्व से जा मिलता है । 00:14:09.033 --> 00:14:12.033 प्रकृति में प्रतिकृतियों का अध्ययन कुछ ऐसा नहीं है जिससे पश्चिम अधिक परिचित हो, 00:14:12.033 --> 00:14:19.003 लेकिन प्राचीन चीन में, यह विज्ञान `ली` के रूप में जाना जाता था । 00:14:19.003 --> 00:14:27.005 `ली` प्रकृति में गत्यात्मक क्रम एवं प्रतिकृति को प्रतिबिंबित करती है । 00:14:27.005 --> 00:14:30.367 लेकिन यह पच्चीकारी की तरह स्थिर, 00:14:30.367 --> 00:14:33.167 अवरुद्ध या अपरिवर्तित प्रतिकृति नहीं है । 00:14:33.167 --> 00:14:43.001 यह सभी जीवित वस्तुओं में निहित गतिशील प्रतिकृति है । 00:14:43.001 --> 00:14:47.333 पत्तों की धमनियां, कछुए के निशान तथा 00:14:47.333 --> 00:14:51.667 चट्टानों की धारीदार प्रतिकृतियां सभी प्रकृति की 00:14:51.667 --> 00:14:55.733 रहस्यमयी भाषा तथा कला की अभिव्यक्तियां हैं । 00:14:55.733 --> 00:14:58.867 आंतरकर्ण कई `ली` प्रतिकृतियों में एक है । 00:14:58.867 --> 00:15:03.867 यह मोरेल जैसे कुकुरमुत्ते, 00:15:03.867 --> 00:15:07.433 गोभी जैसे मूंगी ढांचे तथा 00:15:07.433 --> 00:15:10.133 मानव मस्तिष्क 00:15:10.133 --> 00:15:18.233 में पाया जाता है । 00:15:18.233 --> 00:15:23.006 कोशिकीय प्रतिकृति प्रकृति में मौजूद एक और सामान्य प्रतिकृति है । 00:15:23.006 --> 00:15:26.633 ऐसे असंख्य विभिन्न कोशिकीय ढांचे हैं लेकिन प्रयोजन एवं 00:15:26.633 --> 00:15:33.533 कार्य द्वारा परिभाषित उनका एकसमान व्यवस्था क्रम है । 00:15:33.533 --> 00:15:40.667 उनके स्वरूपों की सतत भूमिका से सम्मोहित होना आसान 00:15:40.667 --> 00:15:44.567 है लेकिन अधिक दिलचस्प यह है कि कुछेक 00:15:44.567 --> 00:15:51.008 प्रकृति की आदिम बनावट से बुने प्रतीत होते हैं । 00:15:51.008 --> 00:15:56.367 शाखन प्रतिकृति एक और `ली` प्रतिकृति या आदिम प्रतिकृति है जिसे सभी 00:15:56.367 --> 00:16:26.733 स्तरों एवं सभी अंशिक प्रतिमानों पर देखा जा सकता है । 00:16:26.733 --> 00:16:30.667 उदाहरण के लिए, “मिलेनियम रन” के रूप में अभिज्ञात सुपरकंप्यूटर अनुरूपण, 00:16:30.667 --> 00:16:32.533 वह अविश्वसनीय छवि है जो स्थानीय ब्रह्माण्ड 00:16:32.533 --> 00:16:36.433 में निष्क्रिय पदार्थ का वितरण दर्शाती है । 00:16:36.433 --> 00:16:41.367 इसका सृजन जर्मनी में मेक्स प्लेंक सोसायटी द्वारा किया गया था । 00:16:41.367 --> 00:16:49.367 निष्क्रिय पदार्थ वह है जिस पर पहले हमने रिक्त अंतरिक्ष के रूप में विचार किया था। 00:16:49.367 --> 00:17:00.267 यह अदृश्य तंत्रिका तंत्र की तरह है जो पूरे ब्रह्माण्ड में प्रसरित है । 00:17:00.267 --> 00:17:04.000 ब्रह्माण्ड शाब्दिक रूप में महामस्तिष्क की तरह है । 00:17:04.000 --> 00:17:08.767 यह निष्क्रिय या छिपी ऊर्जा का प्रयोग करते हुए लगातार सोच- 00:17:08.767 --> 00:17:14.733 विचार करता है जिसे विज्ञान अभी समझने की शुरुआत कर रहा है । 00:17:14.733 --> 00:17:19.333 इस असीम संजाल के माध्यम से, ब्रह्माण्ड के विस्तार एवं विकास 00:17:19.333 --> 00:17:42.833 को गति प्रदान करने के लिए अगाध ऊर्जा संचालित होती है । 00:17:42.833 --> 00:17:50.003 जब हम उचित परिस्थितियाँ निर्धारित करते हैं, प्रकृति स्वत: शाखन प्रतिकृतियों का सृजन करती है । 00:17:50.003 --> 00:17:55.433 प्रकृति कला प्रोद्भवन मशीन या सौंदर्य सृजनकारी इंजिन है । 00:17:55.433 --> 00:18:00.004 यहां, बिजली रजत स्फटिक शाखाओं के विकास के लिए प्रयुक्त की जा रही है । 00:18:00.004 --> 00:18:05.667 फुटमान व्यपगत समय है चूंकि यह कई घंटों में बढ़ता है । 00:18:05.667 --> 00:18:10.733 आयन के रूप में एल्यूमिनियम कैथोड पर स्फटिक आकार 00:18:10.733 --> 00:18:13.433 को सिल्वर नाइट्रेट घोल से विद्युत निक्षेप किया जाता है । 00:18:13.433 --> 00:18:15.008 निर्माण स्व-व्यस्थित है, 00:18:15.008 --> 00:18:23.267 आप प्रकृति द्वारा प्रोद्भूत कलात्मक कार्य देख रहे हैं । 00:18:23.267 --> 00:18:26.233 जोहान वुल्फगेंग वान गेटे ने कहा है 00:18:26.233 --> 00:18:31.567 "सौंदर्य गुप्त प्राकृतिक नियमों का प्रकटीकरण 00:18:31.567 --> 00:18:37.867 है जो अन्यथा हमसे हमेशा छिपा रहता है।" 00:18:37.867 --> 00:18:43.967 इस अर्थ में: प्रकृति में सब कुछ जीवित है, आत्म व्यवस्थित है । 00:18:43.967 --> 00:18:49.833 जब उच्च विद्युतीय संचालन शक्ति का प्रयोग किया जाता है तो स्वभावत: अंश यानी फ्रैक्टल शाखन और अधिक स्पष्ट हो जाता है । 00:18:49.833 --> 00:19:21.009 यह यथार्थ समय में घटित हो रहा है । 00:19:21.009 --> 00:19:26.367 मानव शरीर में, वृक्ष जैसी संरचनाएं तथा प्रतिकृतियां संपूर्ण रूप में पाई जाती हैं । 00:19:26.367 --> 00:19:29.967 निस्संदेह ऐसे तंत्रिका तंत्र हैं, 00:19:29.967 --> 00:19:32.433 जिनके बारे में पश्चिमी औषध जानते हैं । 00:19:32.433 --> 00:19:37.233 लेकिन चीनी, आयुर्वेदिक तथा तिब्बती औषधि में, 00:19:37.233 --> 00:19:41.533 ऊर्जा सर्वोतम अनिवार्य संघटक है जिससे शरीर के कार्यों को समझा जाता है । 00:19:41.533 --> 00:19:45.933 `नाड़ी` या ऊर्जा पराकाष्ठा वृक्ष जैसी संरचनाएँ रचती हैं । 00:19:45.933 --> 00:19:51.007 पोस्टमार्टम परीक्षण से चक्रों या `नाड़ी` का पता नहीं चलेगा, 00:19:51.007 --> 00:19:55.433 लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उनका अस्तित्व नहीं है । 00:19:55.433 --> 00:19:59.002 आपको अपने औजार परिष्कृत करने की आवश्यकता है, ताकि आप इन्हें ठीक से देख सकें । 00:19:59.002 --> 00:20:02.767 सबसे पहले आपको अपना मन शांत करना सीखना होगा । 00:20:02.767 --> 00:20:08.267 केवल तभी आप ये चीज़ें अपने भीतर देख पाओगे । 00:20:08.267 --> 00:20:12.001 विद्युतीय सिद्धांत में, तार में प्रतिरोध जितना कम होगा, 00:20:12.001 --> 00:20:15.333 वह उतनी आसानी से ऊर्जा संचारित करेगी । 00:20:15.333 --> 00:20:18.004 जब आप ध्यान के माध्यम से समत्व ग्रहण करते हैं, 00:20:18.004 --> 00:20:22.067 तब आपके शरीर में अप्रतिरोधी दशा उत्पन्न होती है । 00:20:22.067 --> 00:20:29.007 प्राण या ची या आंतरिक ऊर्जा साधारण रूप में आपकी जीवंतता है । 00:20:29.007 --> 00:20:33.007 आप जो अपने शरीर में चेतना का संचार होने पर अनुभव करते हैं । 00:20:33.007 --> 00:20:38.433 आपके शरीर में वे सूक्ष्म तारें जो प्राण, नाड़ियों को वहन करती हैं, वे चक्रों के माध्यम 00:20:38.433 --> 00:20:42.933 से अधिकाधिक प्राणिक ऊर्जा ग्रहण करने में सक्षम हो जाती हैं । 00:20:42.933 --> 00:20:50.533 आप तारों का जितना अधिक प्रयोग करेंगे, जितनी ऊर्जा प्रवहित होने देंगे, वे उतनी अधिक ताकतवर होंगी । 00:20:50.533 --> 00:20:55.533 जहाँ कहीं चेतना हो, ची या ऊर्जा प्रवहित होने लगती 00:20:55.533 --> 00:21:00.005 है और शारीरिक संवेग ऊर्जावान हो जाता है । 00:21:00.005 --> 00:21:03.007 मस्तिष्क तथा तंत्रिका तंत्र के भीतर, पुनरावृति द्वारा शारीरिक 00:21:03.007 --> 00:21:08.967 तार प्रणालियां स्थापित हो जाती हैं । 00:21:08.967 --> 00:21:11.567 अपना ध्यान सतत रूप से भीतर उतारने तथा संवेदनाओं 00:21:11.567 --> 00:21:15.333 के प्रतिरोध को कम करते हुए आप अपनी ऊर्जा 00:21:15.333 --> 00:21:33.933 क्षमता के विकास का अनुभव कर सकते हैं । 00:21:33.933 --> 00:21:37.833 ताओज्म में, यिन येंग प्रतीक प्रकृति की सर्पिल 00:21:37.833 --> 00:21:40.833 शक्तियों का अंतर्भेदन दर्शाता है । 00:21:40.833 --> 00:21:46.133 यिन यांग, दो नहीं हैं और एक भी नहीं । 00:21:46.133 --> 00:21:49.002 `हर` की प्राचीन अवधारणा यिन यांग 00:21:49.002 --> 00:21:52.008 या सर्पिल चक्कर से दर्शाई जाती है । 00:21:52.008 --> 00:21:57.033 यह नाभि के नीचे उदर के अंदर स्थित शक्ति केन्द्र है । 00:21:57.033 --> 00:22:02.167 `हर` का शाब्दिक अर्थ है ऊर्जा का समुद्र या महासागर । 00:22:02.167 --> 00:22:05.467 चीन में, `हर` को निम्न डेंटियन कहा जाता है । 00:22:05.467 --> 00:22:08.008 एशियन मार्शल आर्ट के कई रूपों में, 00:22:08.008 --> 00:22:15.733 सुदृढ़ `हर` वाले योद्धा को अबाधित कहा जाता है । 00:22:15.733 --> 00:22:19.933 समुराई परंपरा में विधि के अनुसार आत्महत्या या सेप्पुकु 00:22:19.933 --> 00:22:26.006 का एक रूप `हरा` किरी था, जो प्राय: `हेरी केरी` के रूप में गलत उच्चारित किया गया । 00:22:26.006 --> 00:22:30.933 इसका अर्थ है एक `हर` को छेदना जिससे व्यक्ति की ची या 00:22:30.933 --> 00:22:37.567 ऊर्जा चैनल को खत्म किया जा सके। 00:22:37.567 --> 00:22:41.233 इस केन्द्र से चलकर कई जमीनी गरिमापूर्ण संचालन सृजित हुए, 00:22:41.233 --> 00:22:52.267 जिन्हें आप न केवल सामरिक 00:22:52.267 --> 00:22:57.133 कला में देखते हैं बल्कि इन्हें महान गोल्फरों, 00:22:57.133 --> 00:23:07.933 बैले नर्तकों और 00:23:07.933 --> 00:23:09.667 घुमावदार दरवेशियों में भी देखा जा सकता है । 00:23:09.667 --> 00:23:12.967 यह एकल केन्द्र अनुशासित सचेतनता का परिष्कार है 00:23:12.967 --> 00:23:17.067 जो प्रभंजन के नेत्रों में `हर` 00:23:17.067 --> 00:23:31.000 स्थिरता का सार तत्व है । 00:23:31.000 --> 00:23:49.004 यह किसी व्यक्ति की ऊर्जा स्रोत से संबंधित मूल चेतना है । 00:23:49.004 --> 00:23:55.008 अच्छे `हर` से युक्त व्यक्ति, पृथ्वी से तथा अंतदर्शी बुद्धिमता 00:23:55.008 --> 00:24:04.367 से जुड़ जाता है और ये उसे सभी प्राणियों से जोड़ती है । 00:24:04.367 --> 00:24:08.033 अपनी तोंद से सोचना “हर दे कंगनसई” 00:24:08.033 --> 00:24:16.467 से अभिप्राय है अपनी आंतरिक बुद्धिमता से जुड़ना । 00:24:16.467 --> 00:24:20.004 प्राचीन आस्ट्रेलियन आदिवासी जाति विशेषज्ञों ने नाभि के ठीक नीचे उसी 00:24:20.004 --> 00:24:25.009 स्थान पर ध्यान संकेन्द्रित किया जहां इंद्रधनुष की रज्जु सर्पगति से कुंडलित होती है । 00:24:25.009 --> 00:24:32.533 दोबारा, मनुष्य में विकासात्मक ऊर्जा का प्रतिबिंबन होता है । 00:24:32.533 --> 00:24:43.833 यह आकस्मिक नहीं कि `हर` में नया जीवन आरंभ होता है । 00:24:43.833 --> 00:24:54.467 आभ्यांतरिक तंत्रिका तंत्र, 00:24:54.467 --> 00:24:59.133 जो कभी कभार `गट ब्रेन` के रूप में संदर्भित होता है, 00:24:59.133 --> 00:25:02.567 अपनी तंत्रिका कोशिकाओं एवं न्यूरो ट्रांसमीटर्स से सिर में मस्तिष्क के समान 00:25:02.567 --> 00:25:07.567 संपर्कों के जटिल मेट्रिक्स को बनाए रखने में सक्षम हो जाता है । 00:25:07.567 --> 00:25:12.833 यह स्वायत्त रूप से, यानी अपनी बुद्धिमत्ता से काम कर सकता है । 00:25:12.833 --> 00:25:17.333 आप कह सकते हैं कि `गट ब्रेन` सिर मस्तिष्क का अंश रूप है या 00:25:17.333 --> 00:25:22.006 कदाचित सिर मस्तिष्क `गट ब्रेन` का अंश रूप है । 00:25:22.006 --> 00:25:28.167 तंदरुस्त भालू का ताकतवर `हर` होता है । 00:25:28.167 --> 00:25:31.000 जब भालू जानता है कि कहां चारा खोजना है तो 00:25:31.000 --> 00:25:34.633 वह `हर` में या उदर में संकेंद्रित अपनी चेतनाओं के माध्यम से 00:25:34.633 --> 00:25:37.367 चि के संचालन का अनुसरण करता है। 00:25:37.367 --> 00:25:41.567 यह भालू का स्वप्न मांद से संबंध है, देशी परंपराओं में वह स्थल, 00:25:41.567 --> 00:25:51.007 जहां सारी जानकारी जीवन की सर्पिल गति से आती है । 00:25:51.007 --> 00:25:55.633 लेकिन प्राचीन लोग सर्पिल के बारे में कैसे जान पाए, 00:25:55.633 --> 00:25:59.933 जबकि आधुनिक विज्ञान ने इसके महत्व को अभी जानना आरंभ किया है ? 00:25:59.933 --> 00:26:09.767 मधुमक्खी से पूछो, क्योंकि वे प्रेम करना नहीं भूलीं । 00:26:09.767 --> 00:26:12.007 मधुमक्खियों के प्रतीकात्मक तंत्र के भाग के रूप में स्रोत से विशेष संबंध 00:26:12.007 --> 00:26:18.933 है जो सुंदरता एवं वैविध्य में इसकी सहायता करता है । 00:26:18.933 --> 00:26:23.008 वे ब्रह्माण्ड एवं लघु ब्रह्माण्ड के मध्य पुल हैं । 00:26:23.008 --> 00:26:29.000 एक ही हृदय है जो सभी को जोड़ता है, संग्रह करने वाला मस्तिष्क । 00:26:29.000 --> 00:26:32.833 खुले मस्तिष्क की तरह, संग्रह करने, अभिव्यक्त होने के लिए 00:26:32.833 --> 00:26:47.433 संसार को स्वप्न भेजता है । 00:26:47.433 --> 00:26:51.567 प्रकृति में कई जीव-जंतु जानते हैं कि किस प्रकार मैत्रीभाव रखना है, 00:26:51.567 --> 00:27:42.633 सम भावना के साथ एक दिशा में गतिशील होना है। 00:27:42.633 --> 00:27:46.367 लेकिन सभी अपने आस-पास के अन्य जीवों से लाभ नहीं उठाते हैं । 00:27:46.367 --> 00:27:50.667 उदाहरण के लिए टिड्डी अपने रास्ते में प्रत्येक वस्तु खा जाएगी । 00:27:50.667 --> 00:27:55.005 टिड्डी के पास इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं कि वह टिड्डी की भांति कार्य करे । 00:27:55.005 --> 00:28:00.133 वह पौधों से शहद या पराग उस तरीके से नहीं निकाल सकती, जिस प्रकार मधुमक्खी इस कार्य को करती है । 00:28:00.133 --> 00:28:04.133 टिड्डी का व्यवहार कठोर है लेकिन मनुष्य विशिष्ट है और हम मधुमक्खी 00:28:04.133 --> 00:28:09.433 की तरह कार्य कर सकते हैं या हम टिड्डी की तरह कार्य कर सकते हैं । 00:28:09.433 --> 00:28:12.433 हम सांसारिक व्यवहार के पैटर्न को 00:28:12.433 --> 00:28:15.033 बदलने के लिए स्वतंत्र हैं । 00:28:15.033 --> 00:28:16.867 हम सहजीवी या परजीवी के 00:28:16.867 --> 00:28:35.007 रूप में रह सकते हैं । 00:28:35.007 --> 00:28:39.533 आज मनुष्य सर्पिल को तर्कसंगत मस्तिष्क से समझने का प्रयत्न करते हैं, 00:28:39.533 --> 00:28:50.002 लेकिन इस बारे में कभी नहीं सोचा जिसने हमें इस सर्पिल जीवन से जोड़ा । 00:28:50.002 --> 00:28:57.633 हम हमेशा इससे संबद्ध रहे हैं । 00:28:57.633 --> 00:29:01.002 सोच ही एक ऐसी चीज़ रही है कि जो हमारे अपने अस्तित्व 00:29:01.002 --> 00:29:03.009 में हमें अलगाव के संभ्रम में रखती है । 00:29:03.009 --> 00:29:06.833 सोचना अलगाववाद का सृजन है । 00:29:06.833 --> 00:29:09.633 परिसीमा का अनुभव । 00:29:09.633 --> 00:29:18.003 जितना हम विचार करते हैं, उतना स्रोत से परे हो जाते हैं । 00:29:18.003 --> 00:29:21.567 प्राचीन संस्कृतियां कम विचार उन्मुख थी और उन्होंने स्वयं को आज की अपेक्षा अधिक प्रत्यक्ष 00:29:21.567 --> 00:29:26.533 एवं व्यक्तिगत तरीके से सर्पिल गति में सम्मिलित किया था । 00:29:26.533 --> 00:29:31.367 प्राचीन भारत में, कुंडलिनी व्यक्ति की आंतरिक ऊर्जा का प्रतिनिधित्व 00:29:31.367 --> 00:29:38.967 करती थी जो सांप की तरह या घोंघे की तरह रीढ़ में ऊपर उठती है । 00:29:38.967 --> 00:29:43.005 भारत की प्राचीन यौगिक परंपराओं में, तत्कालीन लोगों का 00:29:43.005 --> 00:29:48.133 आंतरिक संसार `हर` केन्द्रित संस्कृतियों से तुलनीय था । 00:29:48.133 --> 00:29:51.167 आपकी प्रत्यक्षदर्शी सचेतनता के साथ सर्पिल की शक्त्िा के संतुलन 00:29:51.167 --> 00:29:56.967 के लिए आपकी पूर्ण विकासात्मक संभावना को समनुरूप करना है। 00:29:56.967 --> 00:30:02.767 आपको उस अनन्य विशिष्ट बहु आयामी रूप में विकसित होना है, जिसके लिए आपको बनाया गया है । 00:30:02.767 --> 00:30:10.133 `इड़ा़` स्त्री सुलभ या चंद्रमा माध्यम दाएं मस्तिष्क से संबद्ध है और `पिंगला` 00:30:10.133 --> 00:30:18.267 पुरुषोचित या सूर्य माध्यम बाएं मस्तिष्क से संबद्ध है । 00:30:18.267 --> 00:30:23.008 जब ये दो माध्यम संतुलन में हों तो ऊर्जा तीसरे माध्यम सुषुम्ना 00:30:23.008 --> 00:30:28.006 में प्रवाहित होती है जो रीढ़ के केन्द्र में होती है और चक्रों को ऊर्जस्वित करती 00:30:28.006 --> 00:30:33.467 है एवं व्यक्ति की पूर्ण विकासात्मक संभावना खोलती है । 00:30:33.467 --> 00:30:42.001 `चक्र` प्राचीन संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ ऊर्जा चक्र है । 00:30:42.001 --> 00:30:45.733 कुंडलिनी आदिम सर्पिल से कम नहीं है जो आपके 00:30:45.733 --> 00:30:48.006 मानव जीवन का नर्तन अस्तित्व में लाती है । 00:30:48.006 --> 00:30:53.133 यह ऊर्जा का अलग क्रम है, जिसे हम सामान्यतया समझते हैं । 00:30:53.133 --> 00:30:57.008 एकल पदार्थ से अत्यधिक सूक्ष्म ऊर्जाओं में पुल की तरह । 00:30:57.008 --> 00:31:00.633 आप वह पुल हैं । 00:31:00.633 --> 00:31:04.733 कुण्डलिनी वह ऊर्जा नहीं जिसे इच्छा, प्रयास और घर्षण से शक्ति प्रदान की जा सके । 00:31:04.733 --> 00:31:07.333 यह पुष्प की तरह खिलती है । 00:31:07.333 --> 00:31:14.133 एक अच्छे माली की तरह मिट्टी और उचित स्थितियों से हम आधार बना सकते 00:31:14.133 --> 00:31:20.967 हैं और फिर प्रकृति अपना कार्य करती है । 00:31:20.967 --> 00:31:25.002 यदि आप पुष्प को समय से पूर्व बलपूर्वक खिलाने का प्रयास करेंगे तो आप इसे नष्ट कर देंगे । 00:31:25.002 --> 00:31:32.267 यह अपनी बुद्धिमत्ता अपनी आत्म संयोजित दिशा से खिलता है । 00:31:32.267 --> 00:31:35.006 अहंशील मन जो बाहरी संसार को निर्धारित करता है वह आपकी 00:31:35.006 --> 00:31:40.005 आंतरिक प्रकृति के उत्तेजित अनुभव से दूर करता है । 00:31:40.005 --> 00:31:45.267 जब संचेतनता आपके भीतर प्रत्यावर्तित होती है तो यह सूर्य की किरणों के फूटने तथा 00:31:45.267 --> 00:31:52.067 कमल के खिलने की तरह आपके भीतर उतर जाती है । 00:31:52.067 --> 00:31:56.267 जैसे ही कुण्डलिनी किसी व्यक्ति के भीतर जागृत होती है, 00:31:56.267 --> 00:31:59.667 त्यों ही वह सभी वस्तुओं में सर्पिल के स्वरूप को देखना आरंभ कर देता है । 00:31:59.667 --> 00:32:03.467 सभी आंतरिक प्रतिकृतियों सहित व उसके बिना । 00:32:03.467 --> 99:59:59.999 Tसर्पिल हमारे आंतरिक संसार व हमारे बाहरी संसार के बीच संपर्क सूत्र है । �