1863 की उस सुबह
लन्दन की एक ऐसी भूमिगत रेल प्रणाली ने
सारे शहर में कोलाहल मचा रखा था
जो अभी तक खुली भी नहीं थी।
शहर के नीचे सुरँग खोदना
और उसमें रेल-मार्ग बिछाना
सपने जैसा लगता था।
मयख़ानों में लोगों ने उपहास किया
और एक स्थानीय मन्त्री ने रेलवे कम्पनी पर
सत्यानाश करने की कोशिश करने का आरोप लगाया।
ज़्यादातर लोग सोचते थे कि यह परियोजना,
जिसकी लागत आज के समय के
10 करोड़ डॉलर से भी ज़्यादा थी,
कभी काम ही नहीं करेगी।
लेकिन उसने किया।
10 जनवरी 1863 को
30,000 लोगों ने भूमि के नीचे विचरण किया,
विश्व की पहली भूमिगत रेल में
एक चार मील लम्बे मार्ग पर
यात्रा करने क लिए।
तीन वर्षों के निर्माण
और कुछ असफलताओं के बाद
मेट्रोपोलिटन रेलवे
व्यापार के लिए तैयार थी।
शहर के अधिकारियों को राहत की साँस मिली।
वह सड़कों पर यातायात के
भीषण अतिप्रजन को कम करने का
तरीका ढूँढने के लिए बेकरार थे।
उस समय का सबसे बड़ा
और समृद्ध शहर लन्दन,
गत्यवरोध की स्थायी स्थिति में था,
जहाँ छकड़े,
सब्ज़ी वाले,
गाय,
और यात्री, रास्ता जाम कर देते थे।
वह एक विक्टोरिया युग के दूरदर्शी
चार्ल्स पीयर्सन थे
जिन्होंने पहली बार रेलवे को
धरती के नीचे लाने का सोचा।
उन्होंने 1840 के दशक के दौरान,
भूमिगत रेल के समर्थन में पैरवी की
लेकिन प्रतिद्वन्दियों को
यह विचार असाध्य लगा
क्योंकि उस समय रेलमार्ग में पहाड़ियों के नीचे
केवल छोटी सुरँगें होती थीं।
आखिर रेलवे एक शहर के बीच में से
कैसे निकाला जा सकता था।
इसका उत्तर एक सरल प्रणाली थी
जिसका नाम था, "काटो और भरो"।
मज़दूरों को एक बड़ी खाई खोदनी थी
ईंटों के मेहराबदार रास्ते से
एक सुरँग का निर्माण करना था
और फिर नई निर्मित सुरँग के ऊपर की सुराख़ को
फिर से भर देना था।
क्योंकि यह विध्वंसकारक था
और इसके लिए सुरँगों के ऊपर की
इमारतों का विनाश करना पड़ता
ज़्यादातर रास्ते मौजूदा सड़कों के
नीचे से निकाले गए।
बेशक, दुर्घटनाएँ हुईं।
एक बार, भारी बारिश से
पास के नाले भर गए
और खुदाई के अन्दर से फूट पड़े,
जिससे परियोजना में
कुछ माह का विलम्ब आ गया।
परन्तु जैसे ही मेट्रोपॉलिटन रेलवे खुली,
लन्दन के लोग
नई रेलों में सफ़र करने दौड़ पड़े।
जल्द ही लन्दन की यातायात प्रणाली का,
मेट्रोपॉलिटन, महत्वपूर्ण हिस्सा बन गई।
जल्द ही और रेलमार्ग निर्मित हुए
और स्टेशनों के आस-पास
नए उपनगर बढ़ने लगे।
रेलमार्ग के पास
बड़े डिपार्टमेंट स्टोर खुल गए
और रेलवे कम्पनी ने
रेल से पर्यटकों को लाने के लिए
आकर्षण स्थल भी निर्मित किये,जैसे
अर्ल्स कोर्ट में 30 मँज़िल की फेरिस व्हील।
30 वर्षों के अन्दर,
लन्दन की भूमिगत रेल प्रणाली
80 किलोमीटर तक फैल चुकी थी,
जिसमें शहर के बीच से निकलते हुए मार्ग
सुरँगों से होते हुए जाते थे
और उपनगरों की रेल, भूमि पर चलती थी,
ज़्यादातर तटबन्धों पर।
लेकिन लन्दन बढ़ता चला जा रहा था
और हर कोई इस प्रणाली से
जुड़ा रहना चाहता था।
1880 के दशक के अन्त की ओर
यह शहर इमारतों, नालों और बिजली के तारों से
इतना सघन हो चुका था
कि "काटो और भरो" की तकनीक
अब कारगर नहीं बची थी
इसलिए एक नई प्रणाली का
आविष्कार किया गया।
ग्रेटहेड शील्ड कहलाने वाली
एक मशीन का प्रयोग कर
केवल 12 मज़दूरों का समूह
लन्दन की चिकनी मिटटी में से
गहरी भूमिगत सुरँगें तराशते हुए
धरती में खुदाई कर सकता था।
यह नए, ट्यूब कहलाने वाले मार्ग
भिन्न गहराईयों पर थे
पर ज़्यादातर, "काटो और भरो" मार्गों से,
क़रीब 25 मीटर गहरे।
इसका अर्थ यह था कि इनका निर्माण
भूमि की सतह को परेशान नहीं करता था
और इमारतों के नीचे
खुदाई करना भी सम्भव था।
पहला ट्यूब मार्ग,
सिटी और साउथ लन्दन,
1890 में खुला
और इतना सफल सिद्ध हुआ
की अगले 20 वर्षों में
आधा दर्ज़न और मार्ग बनाये गए।
इस चतुर प्रौद्योगिकी का प्रयोग
लन्दन की थेम्स नदी के नीचे भी
कुछ मार्ग खोदने क लिए किया गया।
20वें दशक की शुरुआत तक,
बुदापेस्ट,
बर्लिन,
पेरिस,
और न्यू यॉर्क,
सबने अपने खुद के
भूमिगत रेलमार्ग बना लिए थे।
और आज,
जब 55 देशों के 160 से भी ज़्यादा शहर
सड़कों की भीड़ से युद्ध करने क लिए
भूमिगत रेल का प्रयोग करते हैं
तो हम चार्ल्स पियर्सन
और मेट्रोपॉलिटन रेलवे का
एक सही शुरुआत कराने के लिए
धन्यवाद कर सकते हैं।