हम अक्सर सुनते हैं कि लोगों को कोई फ़र्क नहीं पडता। कितनी बार आपको बताया गया है कि वास्तविक और ठोस बदलाव संभव ही नहीं है क्योंकि ज्यादातर लोग इतने स्वार्थी, या बेवकूक, या आलसी हैं कि अपने समाज के बारे में बिलकुल नहीं सोचते? आज मैं आपसे यह कहना चाहता हूँ कि उदासीनता को जिस रूप में हम जानते हैं, उदासीनता वैसी नहीं है, बल्कि, मैं कहता हूँ लोगों को फ़िक्र है, मगर हम ऐसी दुनिया में रहते हैं जो कि तत्परता से भागीदारी को हतोत्साहित करती है, लगातार हमारे रास्ते में रोडे-रुकावटें पैदा कर के। और मैं आपको इस का उदाहरण देता हूँ। टाउन-हाल से शुरु करते हैं। इन में से एक आपने पहले देखा ही होगा? ये एक अखबारी विज्ञापन है। ये एक नयी ऑफ़िस की इमारत बनाने के लिये क्षेत्रीकरण बदलने का नोटिस है जिस से कि आसपडोस वाले जान जायें कि क्या हो रहा है। जैसा कि आप देख रहे है, इसे पढना नामुमकिन है। आपको कम से कम आधे पन्ने तक जाना होगा सिर्फ़ ये जानने के लिये कि बात कहाँ की हो रही है, और फ़िर और नीचे, एकदम चींटीं बराबर अक्षरों में पढना होगा कि आप कैसे हिस्सेदारी निभा सकते हैं। सोचिये यदि निज़ी कंपनियों के विज्ञापन ऐसे होते -- अगर नाइकी एक जोडी जूते बेचना चाहता और अखबार में ऐसा विज्ञापन निकालता। (ठहाका) और ऐसा कभी भी नहीं होगा। आप को कभी भी ऐसा विज्ञापन देखने को नहीं मिलेगा, क्योंकि नाइकी वाकई चाहता है कि उसके जूते बिकें। लेकिन टोरंटों शहर की सरकार , ज़ाहिर तौर पर, नहीं चाहती कि आप योजना में शामिल हों, नहीं तो उनके विज्ञापन कुछ इस तरह के दिखते -- सारी जानकारी सुचारु रूप से प्रस्तुत की गयी होती। जब तक शहर की सरकार ऐसे नोटिस निकालती रहेगी लोगों से भागीदारी माँगने के लिये, तब तक लोग, बिलकुल भी, शामिल नहीं होंगे। लेकिन ये उदासीनता नहीं है; ये जानबूझ कर आपको हटाया जा रहा है। सार्वजनिक स्थान। (ठहाका) हमारे द्वारा की जाने वाली सार्वजनिक स्थानों की बेकद्री भी बहुत बडी रुकावट है, किसी भी प्रगतिवादी राजनैतिक बदलाव के रास्ते में। क्योंकि हमने असल में अभिव्यक्ति की कीमत लगा दी है। जिसके पास सबसे ज्यादा पैसा है, उस की आवाज़ सबसे ऊँची हो जाती है, और वो पूरे दृश्य और मानिसिक परिवेश पर छा जाता है। इस मॉडल के साथ समस्या ये है कि कुछ ऐसे संदेश हैं जिन्हें जनता तक पहुँचाना अनिवार्य है मगर मुनाफ़े के हिसाब से फ़ायदेमंद नहीं है। इसलिये वो संदेश कभी भी आपको होर्डिंग पर नहीं दिखेंगे। मीडिया की भारी भूमिका है राजनैतिक बदलाव से हमारी रिश्तेदारी विकसित करने में, मुख्यतः ज़रूरी राजनैतिक आंकलन को नज़रअंदाज़ कर के, स्कैंडलों और सेलिबिट्रियों के समाचारों पर केंद्रित हो कर। और जब वो बात करते भी हैं महत्वपूर्ण मुद्दों पर, तो ऐसे कि लोग हिस्सेदारी निभाने से कतराने लगें। और मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ: द नाओ मैगज़ीन पिछले हफ़्ते की -- टोरंटो की प्रगतिवादी, शहरी साप्ताहिक मैगज़ीन। ये इसकी कवर स्टोरी है। ये एक थियटर प्रस्तुति की रपट है, और ये उसके बारे में मूल जानकारी से शुरु होती है कि ये कहाँ होगी, - कि अगर आप जाना चाहें और देखना चाहें इस रपट को पढने के बाद --- कहाँ , कब, वेब्साइट। यहाँ भी वही है --- ये एक फ़िल्म की आलोचना है, एक आर्ट रपट, एक किताब पर रपट -- इसकी रीडिंग कहाँ है, यदि आप शामिल होना चाहें। एक रेस्त्रां - हो सकता आप सिर्फ़ पढना ही नही चाहते, बल्कि कभी जाना भी चाहें इस रेस्त्रां में। तो वो बताते हैं कि, कहाँ है, दाम कितने हैं, पूरा पता, फ़ोन नंबर वगैरह। अब इनके राजनैतिक लेख देखिये। ये एक बढिया लेख है जल्द ही होने वाले एक चुनावी बहस पर। ये उम्मीदवारों के बारे में बताता है - बहुत बढिया लिखा है -- मगर जानकारी गायब है, न कोई आगे की बात, कोई वेब्साइट नहीं, न ही ये कि कब है ये बहस, कहाँ इस का ऑफ़िस है। ये एक और बढिया लेख है परिवहन के निज़ीकरण के विरोध में होने वाले आंदोलन पर बिना किसी जानकारी के, कि भाग कैसे लें। मीडिया का संदेश लगता है ये है कि पाठकगण खाना तो चाहेंगे, हो सकता है किताब भी पढना चाहें, या फ़िल्म देखना, मगर समाज में हिस्सेदारी तो नहीं लेंगे। और आपको लग सकता है कि ये तो छोटी सी बात है, मगर मुझे लगता है कि ये एक पृथा को जन्म देती है, और इस खतरनाक मानसिकता को बढावा देती है कि राजनीति तो दूर से देखने की चीज़ है। नायक: हम नेतृत्व को कैसे देखते हैं? इन दस फ़िल्मों को देखिये। इनमें क्या बात एक सी है? कोई बतायेगा? इन सब के हीरों भाग्य द्वार चुने गये थे। कोई उन तक आया और कह गया, "आप तो महान हैं। आपका जन्म दुनिया को बचाने के लिये हुआ था।" और फ़िर ये जा कर विश्व का संकट हर लेते है, क्योंकि कोई उन्हें बता गया था, और साथ में एक दो लोग और होते हैं। इस से मुझे समझ आता है कि क्यों बहुत सारे लोग खुद को नेतृत्व के काबिल नहीं समझते हैं। क्योंकि ये बहुत गलत संदेश देती है कि नेतृत्व आखिर है क्या। वीरता भरा प्रयास दरअसल एक पूरे दल का प्रयास होता है, पहली बात। दूसरी बात, कि ये पूर्णतः मंझा हुआ नहीं होता; और न ही गलैमरस; और ये अचानक शुर और अंत नहीं हो जाता है। ये ताज़िंदगी लगातार चलने वाला कार्यक्रम होता है। मगर सबसे ज़रूरी, ये स्वेचछा से अपनाया गया होता है। स्वेच्छा इसमें सबसे महत्वपूर्ण होती है। जब तक हम अपने बच्चों को ये पढाते हैं कि आप तब ही नेतृत्व कर सकते हैं जब आपके माथे पर कोई आ कर निशान लगाये, या फ़िर कोई आ कर बताये कि आपको विशेष रूप से इस के लिये बनाया गया है, तब तक वो लोग नेतृत्व का मूल गुण ही नहीं सीख पायेंगे, जो कि ये है कि नेतृत्व की ललक भीतर से आती है। नेतृत्व अपने सपनों को साकरा करने के बारे में है -- बिना निमंत्रण, बिन बुलाये -- और फ़िर दूसरों के साथ मिल कर उन सपनों को साकार करना । राजनैतिक पार्टियाँ - बाप रे! राजनैतिक पार्टिया को होना चाहिये और वो हो सकती हैं एक अच्छा रास्ता लोगों के राजनीति में शामिल होने का। बजाय इसके, दुःख की बात है कि वो बन गयी है, निराशाजनक और गैर-रचनात्मक संगठन जो कि पूरी तरह पर मार्किट-रिसर्च और पॉलिंग और वोट-बैंकों पर केंद्रित हैं, और अपना सारा समय बस वही कहने में लगाती हैं, जो कि हम सुनना चाहते है पहले से, बजाय कुछ वास्तविक और चुनौती भरे सुझावों के। और लोग ये समझते है, और इस से निराशा बढती है। (अभिवादन) चैरिटी होना: कनाडा में जो दल चैरिटी घोषित हो चुके हैं, वो विज्ञापन नहीं दे सकते। ये एक भारी समस्या है, और बदलाव के रास्ते की रुकावट भी, क्योंकि इसका मतलब है कि सबसे ज्यादा समझदार और जज़्बे वाली आवाजों को बिलकुल ही खामोश कर दिया गया, खासकर चुनावों के समय। और अब आखिरी वाला, जो कि है हमारे चुनाव। आपने ध्यान दिया होगा, कनाडा में चुनाव सिर्फ़ एक मज़ाक है। हम प्राचीन बेकार प्रणालियाँ इस्तेमाल करते हैं जो कि पक्षपाती हैं और बेतरतीबी नतीज़ें देती हैं। कनाडा में आज जिस पार्टी की सरकार है, उसे ज्यादातर कनाडावासी नहीं चाहते। हम कैसे लोगों को वोट डालने के लिये उकसायें जब कि वोटों का कनाडा में कोई मतलब ही नहीं? आप ये सब एक साथ कर सोचिये तो ठीक ही लगेगा कि लोग उदासीन हैं। भागीदारी करना चट्टान में सिर मारने जैसा लगता है। देखिये, मैं नकारात्मक नहीं हूँ कि इन सब बातो को आप के सामने प्रस्तुत करने पर भी। उसका ठीक उल्टा: मै असल में मानता हूँ कि लोग रचनात्मक और बुद्धिमान हैं, और उन्हें सच में फ़र्क पढता है। मगर ये, जैसा कि मैने कहा, कि हम ऐसी दुनिया में हैं जहाँ ये सारी रुकावटे हमारे रास्ते में अडी हैं। जब तक हम ये मान कर बैठे रहेंगे कि हमारे लोग, हमारे पडोसी, खुदगर्ज़ है, बेवकूक हैं, या आलसी हैं, तो फ़िर कोई आशा बाकी नहीं रहेगी। मगर हम उन चीजों को बदल सकें जो मैने अभी कहीं। हम टाउन हाल को जनता-जनार्दन के लिये सच में खोल दें। हम अपने चुनाव की प्रक्रिया को बदलें। हम अपने सार्वजनिक स्थानों को प्रजातांत्रिक बनायें। मेरा मुख्य संदेश है कि, यदि हम उदासीनता को किसी गहरे पैठे मर्ज़ की तरह नहीं देखें, बल्कि हमारी संस्कृति और आदत में शुमार रुकावटों के रूप में लें, जो कि उदासीनता को बढावा देती हैं, और यदि हम उन्हें ढंग से पहचानें, परिभाषित करें, कि वो क्या रुकावटें है, और फ़िर यदि हम साथ मिल कर उन रुकावटों को उखाड फ़ेंके, तो कुछ भी संभव है। ध्न्यवाद। (अभिवादन)