आपने शायद सुना होगा कि क़ुरान में स्वर्ग की कल्पना में 72 हूरियाँ हैं. मैं वादा करती हूँ कि इस विषय पर मैं फिर चर्चा करुँगी. पर यहाँ, उत्तर-पश्चिम में, हम कुछ ऎसे वातावरण में रह रहे हैं जो क़ुरान में वास्तव में दिए स्वर्ग की कल्पना से बहुत मेल खाता है, जिसकी व्याख्या 36 बार मिलती है 'बहती धाराओं से सिंचित बगीचों' के रूप में. चूंकि मैं लेक युनियन में जा मिलने वाली धारा में एक हाउस-बोट पर रहती हूँ, इसलिए स्वर्ग के इस चित्रण से मैं पूरा इत्तेफ़ाक़ रखती हूँ. पर ऎसा क्यूँ है कि अधिकांश लोग इस बारे में जानते नहीं? मैं ऎसे कई नेक़नीयत अ-मुस्लीम लोगों को जानती हूँ जिन्होने क़ुरान पढ़ना शुरू तो किया, पर बीच में ही छोड़ दिया, उसके अलग चरित्र से परेशान होकर. इतिहासकार थॉमस कारलाईल मुहम्म्द को विश्व के महानतम नायकों में से मानते हैं, लेकिन उनका भी क़ुरान के बारे में कहना था, 'मेरी पढ़ी कठिनतम क़िताब, थका देने वाली, अस्पष्ट खिचड़ी.' (हँसी) मुझे लगता है कि समस्या का इक सिरा ये है हम ये समझ लेते हैं कि क़ुरान को बाकी क़िताबों की तरह पढ़ा जा सकता है -- बारिश की दोपहरी में सोए हुए पॉपकार्न का कटोरा साथ लिए, जेसे कि ईश्वर -- समूचा क़ुरान मुहम्म्द को बताई ईश्वर की कही बातें हैं -- जैसे कि ईश्वर बाकि बेस्ट-सेलिंग लेखकों जैसे ही हों! मगर इतने कम लोगों का सच-मुच में क़ुरान पढ़ना ही वजह है जिससे इतनी आसानी से इसका हवाला दे दिया जाता है -- और अक़्सर ग़लत हवाला ही दिया जाता है. मूल प्रसंग से उठाकर वाक्यांशों कों तोड़-मरोड़ कर ध्यान आकर्षण के लिए इस्तेमाल किया जाता है, ये तरीक़ा कठमुल्लों को भी बहुत सुहाता है और मुस्लिम विरोधी इस्लाम से चिढ़ने वाले लोगों को भी. तो पिछले बसंत, जब मैं तैयार हो रही थी मुहम्मद की जीवनी लिखने के लिए, मुझे एहसास हुआ कि पहले मुझे क़ुरान अच्छे से पढ़ना चाहिए -- जितने अच्छे से मुझसे संभव हो पाता. मेरा अरबी का ज्ञान अभी डिक्शनरी पर आश्रित था, इसलिए मैंने चार प्रसिद्ध अनुवाद लिए और उन्हें साथ - साथ पढ़ने का निश्चय किया, एक एक आयत अरबी शब्दों के रोमन लिप्यांतरण और सातवीं शताब्दी के मूल अरबी रूप सहित. मेरे पास एक सुविधा थी. मेरी पिछली क़िताब शिया-सुन्नी विभेद की कहानी पर थी, जिसके लिए मैंने प्राचीनतम इस्लामी इतिहास पर सघन काम किया था, इसलिए मुझे उन घटनाओं का पता था जिनका क़ुरान में बार-बार उल्लेख है, और उनका परिप्रेक्ष भी. मुझे उतना ज्ञान था, जिससे मैं क़ुरान में एक पर्यटक की भांति विचरणा कर सकती थी -- एक जानकार पर्यटक, थोड़ा अनुभवी भी, लेकिन फिर भी बाहर का आदमी, एक अविश्वासी यहूदी जो किसी दूसरे का धर्म ग्रंथ पढ़ रहा था. (हँसी) तो मैं धीरे-धीरे पढ़ने लगी. (हँसी) मैंने इस प्रोजेक्ट के लिए तीन हफ्ते का समय निर्धारित किया था, इसी को शायद घमण्ड कहते हैं. (हँसी) क्योंकि इस काम में तीन महीने लग गए. मैं इस लालच से बचती रही कि अंत के छोटे और स्पष्टतः अधिक रहस्यवादी अध्यायों पर सीधे पहुँच जाऊँ. लेकिन जब जब मुझे लगने लगता की अब मैं क़ुरान को समझने लगी हूँ -- लगता कि अब 'ये मेरी पकड़ में आ रहा है' -- तो दूसरे ही दिन ये भावना छू-मंतर हो जाती. और सुबह मैं ये सवाल लिए फिर जुट जाती कि क्या मैं किसी अजनबी दुनिया में भटक गई हूँ. मगर ये क्षेत्र था बहुत ही जाना पहचाना. क़ुरान कहता है कि वो टोरा (मुसा कि पाँच क़िताबें) और गॉस्पेल (धर्मनिर्देश) में दिए संदेशों को ही दोहराता है. तो उसका एक-तिहाई बाईबल के पात्रों की कहानियों को ही पुनः बयान करता है जैसे कि अब्राहम, मुसा, जोसेफ, मेरी, इसा. ईश्वर ख़ुद अपने पहले के यहोवा वाले रूप से परिचित थे -- इस इर्ष्या में अड़े हुए कि दूसरा ईश्वर नहीं है. ऊंटों, पहाड़ों का होना, रेगिस्तानी कुंएँ और झरने मुझे उस साल की याद दिला रहे थे जो मैंने सिनाई मरूभूमि में भटकते हुए गुज़ारा. और फिर वो भाषा, उसकी लयबद्ध मूर्च्छना, मुझे उन शामों कि याद दिला रहे थे जो मैंने बेदुविन(बद्दु) प्रौढ़ों से घंटों चलने वाली काव्यों कथाओं को सुनते हुए बिताईं जो उन्हें ज़बानी याद थे. और तब मुझे समझ आने लगा कि क्यों ये कहा जाता है कि क़ुरान को क़ुरान की तरह जानने का ज़रीया सिर्फ अरबी है. मसलन फातिहाह को लीजिए, सात आयतों का पहला अध्याय जो ईश्वर की प्रार्थना के साथ साथ इस्लाम की प्रमुख प्रार्थना भी है. अरबी में ये सिर्फ 29 शब्दों में है, पर अनुवादों में 65 से 72 तक. और जितना आप इसमें शब्द जोड़ते जाते हैं, उतना ही लगता है कि कुछ छूट गया. अरबी उच्चारणों में मंत्रमुग्ध कर देने की क्षमता है इसलिए इसका प्रभाव पढ़ने से सुनने में ज़्यादा आता है, इसे समझने से ज़्यादा महसूस करने की ज़रूरत है. इसे सस्वर उच्चारित करना होगा, ताकि इसका संगीत कानों और ज़बान को छूँ सके. तो क़ुरान अंग्रेज़ी में अपनी छाया मात्र है, या जैसा ऑर्थर आरबेरी ने अपने अनुवाद के बारे में कहा, 'एक व्याख्या'. पर अनुवाद में सब कुछ खो गया ऎसा भी नहीं है. जैसा कि क़ुरान वादा करता है, सब्र का फल मिलता है, और कुछ ताज्जुब करने वाली बातें भी हैं -- जैसे थोड़ी बहुत पर्यावरण सचेतनता और मनुष्य का ईश्वर की सृष्टि में निमित्त मात्र होने क एहसास, जिनका पर्याय बाईबल में नहीं मिलता. और जहाँ बाईबल केवल पुरूषों को ही सम्भाषित करता है, पुल्लिंग द्वितीय पुरूष और तृ्तीय पुरूष के वाचन में, वहीं क़ुरान महिलाओं को भी शामिल करता है -- जैसे क़ुरान बात करता है पुरूषों पर विश्वास और स्त्रियों पर विश्वास करने पर -- सम्माननीय पुरुष और सम्माननीय महिलाएँ. या फिर आप उस कुख्यात आयत को ही लीजिए जिसमें क़ाफिरों को मारने की बात कही गई है. हाँ, इसमें ज़रूर ऎसा कहा गया है, लेकिन बहुत ही विशेष संदर्भ में: पवित्र शहर मक़्का पर चढ़ाई से पहले, जहाँ सामान्यतः युद्ध की मनाही थी. पर ये अनुमति भी बहुत सारी शर्तों और हिदायतों के साथ दी गई. आप क़ाफ़िरों को मक़्का में नहीं मार सकते, मगर इजाज़त मिले तो ऎसा कर सकते हैं, पर सिर्फ तब जब रियायत का वक़्त ख़त्म हो गया हो और तब तक कोई दूसरा समझौता भी ना हो पाया हो और वो भी तब जब वो आपको क़ाबा जाने से रोकें, और उसमें भी तब जब पहले हमला वो करें. इस पर भी -- ईश्वर दयानिधान है, माफ कर देना सबसे बड़ी महानता है -- और इसलिए, अनिवार्य रूप से, बेहतर यही है कि आप ना मारें. (हँसी) सबसे बड़ा आश्चर्य शायद यही था -- कि क़ुरान कितना उदार है, कम से कम उनके लिए जो मूलतः रूढ़ीवादी नहीं हैं. 'इनमें से कुछ आयतों के अर्थ स्पष्ट हैं', ये कहता है, 'और कुछ के थोड़े अस्पष्ट. पंकिल हृदय वाले इन अस्पष्टताओं का इस्तेमाल अशांति फैलाने की कवायद में करेंगे, इनकी अपने स्वार्थानुसार व्याख्या करके. बस ईश्वर ही है जो सच जानता है.' ये जुमला, ' ईश्वर सूक्ष्म है ' बार बार दोहराया गया है. और सचमुच में, समूचा क़ुरान हमें जितना बताया जाता है, उससे काफी ज़्यादा सूक्ष्म है. मसलन, वो छोटा सा मुद्दा हूरियों और स्वर्ग वाला. यहाँ पूरब की सनातनी सोच का असर दिखता है. जिस शब्द को चार बार दोहराया गया है वो है 'हूरी', जिनका वर्णन काली आँखों वाली भारी वक्ष की कन्याओं के रूप में या फिर सुंदर, भारी नितंब वाली कुमारियों के रूप में किया गया है. लेकिन मूल अरबी में केवल एक शब्द है: ' हूरी.' कोई भारी वक्ष या नितंब नहीं. (हँसी) अब ये पवित्र जीवात्माओं के वर्णन का तरीक़ा हो सकता है जैसे कि देवदूत या फिर युनानी कौरो (पुल्लिंग) या कोरे (स्त्रिलिंग) जैसे, चिरयुवा. पर सच्चाई ये है कि सच क्या है कोई नहीं जानता और यही ध्यान में रखने वाली बात है. क्योंकि क़ुरान बहुत स्पष्ट है जब वो आपसे कहता है कि आप 'स्वर्ग में एक नई सृ्ष्टि बनेंगे' और आपका ' आपकी कल्पना के परे किसी रूप में पुनर्सृ्जन होगा', जो मेरे लिए कहीं ज़्यादा आकर्षणीय है किसी हूरी को पाने की तुलना में. (हँसी) और वो 72 का आंकड़ा कहीं नहीं आता. क़ुरान में कहीं भी 72 हूरियों का उल्लेख नहीं है. ये कल्पना 300 साल बाद की है, जिसे ज़्यादातर ईस्लामी बोद्धा बादलों पर बैठे पंखों वाले हार्प बजाते लोगों जैसी कल्पना ही समझते हैं. (क़ुरान में) स्वर्ग इसके बिलकुल विपरीत है. वो कौमार्य नहीं, उर्वरता है, वो प्राचूर्य है, उसमें बहती धाराओं से सिंचित बगीचे हैं. धन्यवाद. (तालियाँ)