क्या आप सच में उतने
कुशल हैं जितना आप सोचते हैं?
रुपए पैसे के मामले में आप कितने अच्छे हैं?
दूसरों की भावनाओं को समझने में?
औरों के मुक़ाबले
आपका स्वास्थ कितना अच्छा है?
क्या आपका व्याकरण आम लोगों से बेहतर है?
अपनी कुशलता के बारे में जानना
और दूसरों के मुक़ाबले ख़ुद को आँकना
सिर्फ़ स्वाभिमान या ईगो की बात नहीं है।
ये जानने से हमें अपने भविष्य के
फ़ैसले लेने में आसानी होती है
और हमें समझ आता है की
कब हमें दूसरों के सलाह चाहिए।
मगर मनोवैज्ञानिक शोध
कहता है कि हम बहुत अच्छे नहीं हैं
अपने क़ाबलियत को आँकने में
बल्कि, हम अक्सर अपने को
वास्तविकता से बेहतर गिनते हैं।
रिसर्च के लोगों ने
इस बात को एक नाम दिया है,
डनिंग-क्रूगर एफेक्ट।
ये एफेक्ट समझाता है की क्यों
सौ से अधिक प्रयोगों में
लोगों ने अपनी क़ाबलियत को
बढ़ा-चढ़ा के बताया।
हम ख़ुद को दूसरों से इतना बेहतर मानते हैं
जितना की गणित के हिसाब
से हम हो ही नहीं सकते हैं।
जब दो कंपनियो के सॉफ़्टवेयर इंजिनियरो
से ख़ुद को मापने के लिए कहा गया,
तो एक कम्पनी के 32%
और दूसरी के 42% इंजीनियरों ने
ख़ुद को 5% बेहतरीन इंजिनयरों में गिना।
दूसरे प्रयोग में, 88% अमेरिकन ड्राइवरों ने
ख़ुद की ड़्राईवरी को औसत से बेहतर बताया।
और ये हर जगह देखा गया है।
आमतौर पर, लोग ख़ुद को दूसरों से
बेहतर समझते हैं
चाहे स्वास्थ हो, या नेत्रत्व के क्षमता,
या मौलिकता या कुछ और।
मज़े की बात ये है की जो लोग
सबसे काम क़ाबिल होते हैं
वो अपने को सबसे ज़्यादा
क़ाबिल मानते हैं।
वो लोग जो हल्के जानकार होते हैं तर्क के,
व्याकरण के,
वाणिज्य के,
गणित के,
भावनाओं के,
प्रयोगशालाओं ने काम करने के,
शतरंज के,
वे सब अपने को निपुण लोगों
जितना ही क़ाबिल बताते हैं।
तो ऐसा सबसे ज़्यादा किसके साथ होता है?
दुर्भाग्यवश, हममेसे कई समूह है जो
अक्षम है
और इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं।
मगर ऐसा क्यों?
जब मनोवैज्ञानिक डनिंग और क्रूगर ने
इस एफेक्ट का पता लगाया 1999 में,
तो उन्होंने तर्क दिया कि जिन्हें
किसी क्षेत्र की जानकारी या कुशलता नहीं है,
वो दोहरी मार खाते हैं।
पहले तो वो ग़लत फ़ैसले लेते हैं
और ग़लतियाँ करते हैं।
और दूसरा, वो अपने कम जानकारी की वजह से
अपनी ग़लतियाँ पकड़ भी नहीं पाते हैं।
दूसरे शब्दों में, कम जानने वाले को
वो ज्ञान ही नहीं होता जिस से
वो ये पता लगा सके की वो कितना काम जानता है
मिसाल के तौर पर, एक प्रयोग में
कॉलेज की डिबेट टीमों में
सब से कमज़ोर प्रदर्शन करने वाली 25% टीमों ने
लगभग 5 में से 4 मैच हारे
मगर उन्हें लग रहा था कि
वो लगभग 60% जीत रहे हैं।
डिबेट के नियमो की पक्की
पकड़ के बग़ैर
उन्हें ये पता ही नहीं चलता था
की वो कब और कितनी बार
अपने तर्क में गड़बड़ कर रहे थे।
डनिंग-क्रूगर एफेक्ट ये नहीं कहता है की
अपने घमंड में अपनी कमियाँ नहीं देखते हैं।
अक्सर लोग अपने ग़लतियाँ मान लेते हैं
जब वो उन्हें देखते हैं
एक प्रयोग में, स्टूडेंट जिन्होंने तर्क
की परीक्षा में ख़राब प्रदर्शन किया था,
उन्हें जब तर्क सिखाया गया,
तो उन्होंने अपने पिछली प्रदर्शन को
बुरा कहा।
हो सकता है इसीलिए
औसत से ज़्यादा ज्ञानी लोगों
को ख़ुद की क़ाबलियत पर
उतना ज़्यादा भरोसा नहीं होता है।
उन्हें पता होता है की बहुत कुछ ऐसा है
जो उन्हें पता ही नहीं है
और साथ ही, बढ़िया जानकारो को
ये तो पता होता है कि वो ज्ञान रखते हैं
मगर वो अक्सर दूसरी ग़लती करते हैं।
वो सोचते हैं कि सबको
उनके बराबर ही ज्ञान है
नतीजा ये होता है की लोग,
चाहे कम या ज़्यादा जानकार हों,
अक्सर अपनी क़ाबलियत के बारे में
ग़लत अनुमान ही लगाते हैं।
जब वो काम क़ाबिल होते हैं,
तो अपनी ग़लती देख नहीं पाते,
और जब बहुत क़ाबिल होते हैं,
तो उन्हें अंदाज़ा नहीं होता है कि
उनके जैसे बहुत काम लोग हैं।
तो अगर हमें डनिंग-क्रूगर एफेक्ट का
पता ही नहीं चलता है,
तो हम कैसे समझें की हम असल में
कितने पानी में हैं?
पहला, दूसरों से अपने क़ाबलियत का
हिसाब लगवाएँ।
और उसे सुने, चाहे वो सुनने में
कितना ही ख़राब क्यों ना लगे।
दूसरा, और बहुत ज़रूरी, सीखते रहें।
जितना हम सीखेंगे ,
उतना ही हम अपनी कमियों
को देख सकेंगे।
शायद बात एक पुरानी कहावत पर
आती है:
वेवक़ूफ़ो से बहस करने से पहले
सोच लें कि दूसरा भी तो वही नहीं कर रहा है।