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Title:
विलियम ऊरी: 'ना' से 'हाँ' का सफ़र
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Description:
'गेटिंग टू येस' के लेखक विलियम ऊरी एक सहज और साधारण (पर आसान नहीं) सुझाव देते हैं कठिन से कठिन समय में भी मिलझुल कर सहमति बनाने का - चाहे पारिवारिक कलह हो, या फ़िर मध्य-पूर्व देशों की बडी समस्या।
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ह्म्म, कठिन मध्यस्थता का मसला
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मुझे मेरी एक पसंदीदा कहानी की याद दिलाता है,
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मध्यपूर्वी दुनिया से,
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एक ऐसे आदमी की जो अपने तीन बेटों के लिये १७ ऊँटों की विरासत छोड गया था।
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पहले बेटे के लिये उसने आधे ऊँट मुकर्रर किये थे;
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दूसरे के लिये, एक तिहाई;
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और सबसे छोटे बेटे के लिये, ऊँटों का नवाँ हिस्सा।
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तीनों बेटे ऊँटों का फ़ैसला करने बैठे।
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१७ न तो दो से भाग खाता है।
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न ही उसे तीन भागों में बाँटा जा सकता है।
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और ९ से भी उसे भाग नहीं दिया जा सकता।
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अब भाइयों में अन-बन शुरु हो गयी।
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और अंत में, मरता क्या न करता,
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वो एक बुद्धिमान बुढिया के पास सलाह के लिये पहुँचे।
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बुद्धिमान बुढिया ने उनकी समस्या पर देर तक विचार किया,
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और फ़िर उसने वापस आ कर कहा,
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"देखो, मुझे नहीं पता कि मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूँ या नहीं,
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लेकिन अगर तुम्हें चाहिये, तो तुम मेरा ऊँट ले जा सकते हो।"
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तो अब उनके पास १८ ऊँट हो गये।
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पहले बेटे ने अपना आधा हिस्सा ले लिया - १८ का आधा ९ होता है।
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मंझले बेटे ने एक-तिहाई ले लिया - १८ का तिहाई ६ होता है।
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और सबसे छोटे बेटे ने नवाँ हिस्सा लिया --
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१८ का नवाँ हिस्सा दो होता है।
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९, ६, और २ मिला कर कुल १७ होते हैं।
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तो उनके पास एक ऊँट बच गया।
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और उसे उन्होंने उस बुढिया को वापस कर दिया।
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अब अगर आप इस कहानी पर गौर करें,
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तो ये काफ़ी करीब है
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उन स्थितियों के, जो हमें समझौते करते समय झेलनी होती हैं।
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वो इसी १७ ऊँटों वाली स्थिति से शुरु होती है - जिनका निपटान असंभव लगता है।
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कैसे भी हो, हमें करना ये होता है कि
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हम उन स्थितियों से बाहर निकल कर देखें, बिलकुल उस बुद्धिमान बुढिया की तरह,
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और एक नये नज़रिये से स्थितियों पर गौर करें
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और कहीं से उस अट्ठारहवें ऊँट को प्रकट करें।
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दुनिया के कठिन मसलों में इस अट्ठारहवें ऊँट की खोज़ ही
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मेरे जीवन की साधना रही है।
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मुझे मानव-जाति इन तीन भाइयों जैसी ही लगती है;
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हम सब एक परिवार हैं।
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और ये तो वैज्ञानिक तौर पर भी साबित हो चुका है,
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और सूचना क्रान्ति के चलते,
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इस ग्रह के सारे कबीले, लगभग १५,००० कबीले,
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एक दूसरे से संपर्क में आ गये हैं।
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और ये बहुत बडा पारिवारिक सम्मेलन है।
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और बिलकुल पारिवारिक सम्मेलनों की तरह,
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इसमें सब कुछ केवल शांति से, मज़े से नहीं होता है।
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बहुत विवाद भी उत्पन्न होते हैं।
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और असली प्रश्न तो ये है, कि
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हम इन विवादों से कैसे निपतें?
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हम अपने गहरे पैठे हुए मतभेदों से कैसे निपटें,
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जब कि हम लोग हरदम लडने को तैयार रहते हैं
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और मानव महान ज्ञाता हो गया है
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हाहाकार मचा सकने वाले हथियारों का।
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प्रश्न असल में ये है।
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जैसा कि मैने लगभग पिछले तीस साल --
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या शायद चालीस --
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दुनिया भर में सफ़र करते हुए बिताये हैं,
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अपना काम करते हुए, विवादों का हिस्सा बनते हुए
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युगोस्लाविया से ले कर मध्य-पूर्व तक,
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चेचेन्या से ले कर वेनेज़ुअला तक,
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हमारी दुनिया के कुछ सबसे बडे और कठिन विवादों के दरम्यान,
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और मै स्वयं से हमेशा यही प्रश्न पूछता आया हूँ।
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और शायद कुछ हद तक मुझे ये पता लग गया है,
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कि शान्ति का राज़ क्या है।
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ये असल में आशचर्यजनिक रूप से साधारण है।
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आसान नहीं है, मगर साधारण है।
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और तो और, ये नया भी नहीं है।
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हो सकता है कि ये हमारी प्राचीन मानव-संस्कृति का अहम हिस्सा रहा हो।
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और शान्ति का राज हम खुद हैं।
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ये हम सब ही हैं
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जो कि समाज के रूप में
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विवादों के आसपास मौजूद हो कर
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एक सकारात्मक भागीदारी निभा सकते हैं।
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मैं उदाहरण के रूप में एक किस्सा सुनाता हूँ।
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करीब २० साल पहले, मैं दक्षिणी अफ़्रीका में था,
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वहाँ के विवाद में शामिल गुटों के साथ काम करते हुए,
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और मेरे पास एक महीन का अतिरिक्त समय था,
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तो मैने वो समय
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सैन बुश्मैन आदिवासियों के साथ बिताया।
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मैं उनके बारे में जानने में उत्सुक था, खासकर कि वो अपने विवाद कैसे हल करते हैं।
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क्योंकि, जितना मुझे पता था,
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वो सब शिकारी या संग्रहजीवी थे,
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काफ़ी हद तक आदिमानवों सरीका जीवन व्यतीत करने वाले,
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जैसा कि मानवों ने अपने ९९ प्रतिशत इतिहास में बिताया है।
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और इनके पास जहर-बुझे तीर होते हैं जिन्हें ये शिकार के लिये इस्तेमाल करते हैं--
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एकदम मारक तीर।
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तो ये कैसे अपने विवादों का हल ढूँढते हैं?
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और पता है, मैनें क्या पाया --
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कि जब भी उनके दलों में लोगों को गुस्सा आता है,
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कोई जाकर पहले वो ज़हर-बुझे तीर झाडियों में छुपा देता है,
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फ़िर सब लोग एक गोला बना कर ऐसे बैठ जाते हैं,
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और फ़िर वो बातचीत करते जाते है, करते जाते हैं, करते जाते हैं।
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इसमें उन्हें दो दिन, तीन, या फ़िर चार दिन भी लग सकते हैं,
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मगर वो तब तक नहीं रुकते
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जब तक कि उन्हें कोई हल न मिल जाये,
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या फ़िर, विवाद करने वाले सुलह न कर लें।
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और यदि तब भी गुस्सा शांत न हो,
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तो वो किसी को अपने रिश्तेदारों से मिलने भेज देते हैं
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शांत होने के लिये।
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और मेरे ख्याल से इसी व्यवस्था
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के चलते, हम सब आज तक जीवित बचे है,
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हमारी लडाकू पॄवत्तियों के मद्देनज़र।
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इस व्यवस्था को मैं तीसरा-पक्ष कहता हूँ।
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क्योंकि यदि आप ध्यान दें,
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अक्सर जब भी हम विवाद के बारे में सोचते हैं, या बताते हैं,
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तो उस में हमेशा दो पक्ष निहित होते हैं।
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अरब बनाम इस्राइली, मज़दूर बनाम प्रबंधन,
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पति बनाम पत्नी, रिपब्लिकन बनाम डेमोक्रेट,
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मगर अक्सर जो हम नज़रअंदाज़ कर देते हैं,
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वो ये है कि हमेशा एक तीसरा पक्ष होता है।
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और वो तीसरा पक्ष है आप और मैं,
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आसपास का समाज,
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दोस्त, और सहयोगी,
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परिवार के सदस्य, पडोसी।
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और हम सब उसमें अभूतपूर्व सकारात्मक भूमिका निभा सकते हैं।
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शायद सबसे मौलिक तरीका
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जिस से कि तीसरा पक्ष मदद कर सकता है,
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ये है कि विवादी जुटों को बतायें कि दाँव पर क्या लगा है।
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बच्चों के लिये, परिवार के लिये,
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समाज के लिये, और भविष्य के लिये,
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हमें लडना छोड कर, बातचीत शुरु करनी होगी।
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क्योंकि, मुद्दा ये है,
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कि जब हम लडाई का हिस्सा होते हैं,
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तो अपना आपा खोना बहुत आसान होता है।
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तुरंत भडक उठना भी बहुत आसान होता है।
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और मानव-जाति तो जैसे प्रतिक्रिया की मशीन है।
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जैसा कि कहा जाता है,
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जब आप गुस्सा हैं, तो आप वो बहतरीन भाषण देंगे
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जिसका आपको हमेशा पछतावा रहेगा।
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और इसलिये तीसरा पक्ष हमेशा हमें ये याद दिलाता रह सकता है।
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ये तीसरा पक्ष हमें बालकनी में जाने में मदद करता है,
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जो कि सोच-विचार की जगह का रूपक है
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जहाँ हम सोच सकें कि हमें असल में चाहिये क्या।
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मैं आपको अपने खुद के मध्यस्तता के अनुभव से एक किस्सा सुनाता हूँ।
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कुछ साल पहले, मैं एक मध्यस्त के रूप में
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एक बहुत कठिन वार्ता में शामिल था
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रूस के नेताओं
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और चेचेन्या के नेताओं के बीच।
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और जैसा कि आपको पता ही है, उस समय एक युद्ध चल रहा था।
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और हम हेग्य में मिले,
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शांति महल में (पीस पैलेस),
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उसी कमरे में जहाँ युगोस्लावी युद्ध अपराधों की कचहरी
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चल रही थी।
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और हमारी बातचीत शुरुवात में ही हिचकोले खाने लगी
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जब चेचेन्या के उप-राष्ट्रपति ने
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रूसियों की तरफ़ उँगली उठा कर कहा,
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"आपको यहीं बैठे रहना चाहिये,
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क्योंकि हो सकता है आप पर भी युद्ध-अपराधों का मुकदमा चले।"
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और फ़िर वो मेरी ओर मुखातिब हो कर बोले,
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"तुम तो अमरीकी हो।
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देखो तुम अमरीकियों ने प्यूर्टो रिको में क्या किया है।"
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और मेरे दिमाग ने तुरंत सोचना शुरु किया, "प्यूर्टो रिको? इसकी बात का मैं क्या जवाब दूँ?"
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मैने प्रतिक्रिया करनी शुरु कर दी थी,
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मगर तभी मुझे बालकनी मे जाने वाली बात याद आ गयी।
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और जब उन्होंने बोलना बंद किया,
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और सभी ने मेरी ओर जवाबी प्रतिक्रिया के लिये देखा,
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बालकनी वाली सोच के चलते, मैं उनक उल्टा धन्यवाद देने में सक्षम हो सका,
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और मैने कहा, "मैं अपने देश के प्रति आपकी आलोचना का सम्मान करता हूँ,
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और इसे मित्रवत व्यवहार का लक्षण मानता हूँ कि
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कम से कम हम खुल कर मन की बात बोल तो रहे हैं।
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और आज हम यहाँ प्यूर्टो रिको या किसी और बात के लिये नहीं मिल रहे हैं।
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हम यहाँ इसलिये हैं कि हम एक हल ढूँढ सकें जिस से कि
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चेचेन्या में हो रह दुख और खून-खराबा बंद हो सके।"
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बातचीत फ़िर से राह पर आ गयी।
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तीसरे पक्ष का यही काम होता है,
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कि वो विवाद में फ़ंसे पक्षों को बालकनी तक जाने में मदद करें।
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चलिये मैं आपको ले चलता हूँ
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विश्व के सबसे कठिन माने जाने वाली बहस के,
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या शायद वास्तव में सबसे कठिन बहस के, ठीक बीच
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मध्य-पूर्व में।
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प्रश्न है: यहाँ तीसरा पक्ष कहाँ है?
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यहाँ हम बालकनी में जाने की बात कैसे सोच सकेंगे?
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अब मैं ये नाटक नहीं करूँगा कि
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मेरे पास मध्य-पूर्व समस्या का समाधान है,
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पर मेरे ख्याल से मेरे पास समाधान की ओर जाने का पहला कदम है,
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वस्तुतः पहला कदम,
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ऐसा कुछ जो हम सब तीसरे पक्ष के रूप में कर सकते हैं।
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चलिये आप से पहले एक प्रश्न पूछता हूँ।
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आप में कितनों ने
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पिछले सालों में
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स्वयं को पाया है मध्य-पूर्व की चिंता करते और
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ये सोचते कि कोई क्या कर सकता है?
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उत्सुक्तावश, कितने आप में से?
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ठीक, तो हम में ज्यादातर लोगों ने।
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और ये हम से इतना दूर है।
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हम आखिर इस विवाद पर इतना ध्यान क्यों देते हैं?
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क्या ये अत्यधिक लोगों की मृत्यु के चलते है?
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इस के कई सौ गुना लोग मरते हैं
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अफ़्रीका के विवादों में।
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नहीं, ये इस से जुडी कहानी की वजह से है,
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कि हम सब व्यक्तिगत तौर पर जुडे महसूस करते हैं
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इस कहानी से।
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चाहे हम ईसाई हों, मुसलमान हों, या फ़िर यहूदी,
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और आस्तिक हों या नास्तिक,
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हमें लगता है कि हमारा कुछ हिस्सा इसमें शामिल है।
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कहानियों की अपनी महत्ता होती है। एक मानव-विज्ञानी होने के नाते मैं जानता हूँ।
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हम कहानियों के ज़रिये अपने ज्ञान को आगे देते हैं।
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उनसे हमारे जीवन को अर्थ मिलता है।
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इसलिये ही हम सब यहाँ टेड में हैं, कहानियाँ सुनाने।
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कहानियाँ सबसे महत्वपूर्ण हैं।
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और मेरा प्रश्न है,
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हाँ, चलिये कोशिश करके सुलझाते हैं राजनीतिक उलझन
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जो मध्य-पूर्व में है,
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लेकिन एक नज़र उस कहानी पर भी डालते हैं।
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चलिये मसले की जड तक पहुँचने की कोशिश करते हैं।
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चलिये देखते हैं कि क्या इस पर तीसरा पक्ष लागू होगा।
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इसका क्या मतलब हुआ? यहाँ कहानी क्या है?
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मानव विज्ञानी होने के नाते, हमें पता है कि
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हर संस्कृति के उद्गम की एक कहानी होती है।
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मध्य-पूर्व के उद्गम की कहानी क्या है?
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सीधे सीधे, कहानी ये है:
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४००० साल पहले, एक आदमी और उसके परिवार
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ने मध्य-पूर्व के आरपार पद-यात्रा की
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और दुनिया हमेशा हमेशा के बदल गयी।
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और वो आदमी, जैसा कि सर्वविदित है,
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अब्राहम था।
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और वो एकता का पुजारी थी,
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उसके परिवार की एकता।
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वो हम सब का पिता था।
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मगर मसला सिर्फ़ ये नहीं कि वो क्या पूजता था, बल्कि ये कि उसका संदेश क्या था।
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उसका मूल संदेश भी एकता का ही था,
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सबके आपस में जुडे होने का, और सबके बीच एकता का।
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और उसका मौलिक मूल्य था सम्मान,
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और अन्जान लोगों के प्रति दया का भाव।
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वो इसिलिये जाना जाता है, अपनी सत्कार भावना के लिये।
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तो इस लिहाज से,
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वो तीसरे पक्ष का प्रतीक है
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मध्य-पूर्व के लिये।
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वो हमें ये याद दिलाता है कि
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हम सब एक बडी परिकल्पना के हिस्से मात्र हैं।
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तो आप कैसे --
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थोडा रुक कर सोचिये।
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आज हम आतंकवाद का बोझा ढो रहे हैं।
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आतंकवाद आखिर है क्या?
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आतंकवाद है कि एक मासूम अजनबी को पकडिये,
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और उसे उस दुश्मन के माफ़िक मानिये जिसे आप मार देंगे
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डर पैदा करने के लिये।
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और आतंकवाद का विपरीत क्या है?
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ये कि आप एक मासूम अजनबी से मिले,
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और उससे उस दोस्त के माफ़िक बर्ताव किया,
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जिसे आप अपने घर बुलायेंगे
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उस के साथ दख-सुख बाँटेंगे, और समझ बढायेंगे,
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सम्मान देंगे, प्यार देंगे।
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आप अब्राहम की कहानी उठायें,
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जो कि तीसरे पक्ष की कहानी है,
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और अगर उसे ऐसा कर दें --
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क्योंकि अब्राहम सत्कार भावना का प्रतीक है --
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क्या हो अगर ये आतंकवाद के खिलाफ़ एक दवाई हो जाये?
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क्या हो अगर ये कहानी टीका बन जाये
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मजहबी असहिष्णुता के खिलाफ़?
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आप उस कहानी में जीवन कैसे फ़ूँक सकेंगे?
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देखिये सिर्फ़ कहानी सुना भर देना काफ़ी नहीं है --
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वो काफ़ी शक्तिशाली है --
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मगर लोगों को कहानी को अनुभव कर पाना ज़रूरी है।
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उन्हें उस कहानी को जी पाना ज़रूरी है। वो आप कैसे करेंगे?
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और ये मेरी सोच थी कि ऐसा कैसे होगा।
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और यहीं से पहले कदम की शुरुवात है।
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क्योंकि एक साधारण तरीका ये कर पाने का है कि
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आप पद-यात्रा के लिये निकल पडें।
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आप अब्राहम के पदचापों का अनुसरण करते हुये पदयात्रा पर निकलें
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आप अब्राहम के रास्ते चलें।
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क्योंकि पदयात्रा में बडी ताकत होती है।
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मैं, एक मानव-विज्ञानी होने के नाते, जानता हूँ कि पद-यात्राओं ने ही हमें मनुष्य बनाया है।
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ये गजब है कि जब आप चलते हैं,
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तो आप अगल-बगल चलते हैं
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एक ही दिशा में।
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और अगर मै आपके सामने से आऊँ
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और इतना करीब आ जाऊँ,
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तो आपको भय महसूस होगा।
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लेकिन अगर मैं आपके कंधे से कंधा मिला कर चलूँ,
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चाहे आपको बिल्कुल छूते हुये भी,
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तो कोई समस्या नहीं है।
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अगल बगल चलते समय आखिर कौन लडता है?
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इसिलिये, जब मसले हल करते समय, स्थिति कठिन हो जाती है,
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लोग जंगलों में पद-यात्रा के लिये निकल जाते हैं।
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तो मुझे ये विचार आया कि
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क्यों न मैं प्रेरित करूँ
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ऐसा रास्ता --
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सिल्क रूट जैसा, या अप्लेशियन रास्ते के जैसा --
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जो कि ठीक वो ही हो
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जो अब्राहम ने लिया था।
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लोगों ने कहा, "ये पागलपन है। नहीं हो सकता।
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तुम अब्राहम के रास्ते पर नहीं चल सकते। ये बहुत खतरनाक है।
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आपको तमाम सारी सीमाओं को पार करना होगा।
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ये मध्य-पूर्व के करीब दस अलग अलग देशों से गुज़रता है,
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क्योंकि ये उन सब को जोडता है।"
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तो हमने हार्वार्ड में इस विचार पर अध्ययन किया।
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बारीकी से इसे समझा।
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और फ़िर कुछ साल पहले, हम ने एक दल बना कर,
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करीब १० देशों के २५ लोगों का,
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ये देखने का फ़ैसला किया कि क्या हम अब्राहम के रास्ते पर चल पायेंगे,
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उनके जन्मस्थान उर्फ़ा शहर से शुरु कर,
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जो दक्षिणी तुर्की, उत्तरी मेसोपोटामिया में है।
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तो हमने एक बस ली और थोडी पैदल यात्रा के उपरांत
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हम हर्रान पहुँचे,
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जहाँ से, बाइबिल के अनुसार, उन्होंने अपनी यात्रा शुरु की थी।
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फ़िर हमने सीमा पार की और सीरिया गये, फ़िर अलेप्पो,
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जिसका नाम अब्राहम पर ही पडा है।
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हम दमसकस गये,
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जिसका इतिहास अब्राहम से जुडा है।
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फ़िर हम उत्तरी जोर्डन गये,
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येरुसलम गये,
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जो कि पूरी तरह से अब्राहम से बारे में है, फ़िर बेतलेहम,
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और फ़िर आखिर में वहाँ जहाँ वो दफ़न हैं,
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हब्रोन में।
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तो हम लगभग गर्भाशय से कब्र तक गये।
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हमने ये दिखाया कि ऐसा हो सकता है। ये बहुत ही गजब की यात्रा थी।
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आपसे एक प्रश्न पूछता हूँ।
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आप में से कितनों को ऐसा अनुभव हुआ है
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कि किसी अजनबी जगह में,
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या अजनबी देश में,
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पूरी तरह से, सौ प्रतिशत अनजान व्यक्ति,
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आप तक आये और आपसे प्यार की दो बात करे,
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आपको अपने घर बुलाये, कुछ खातिरदारी करे,
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कॉफ़ी पिलाये, या फ़िर खाने का निमंत्रण दे?
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आप में से कितनों के साथ ऐसा हुआ है?
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देखिये यही है मुद्दे की बात,
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जो अब्राहम-पथ में निहित है।
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क्योंकि आप यही होता पाते है, जब आप मध्य-पूर्व के इन गाँवों मे जाते हैं
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जहाँ आप बुरे बर्ताव की आशा रखते हैं,
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और आपको आश्चर्यजनक स्वागत मिलता है,
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और सब अब्राहम से जुडे होने से।
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अब्राहम के नाम पर,
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"आइये मैं आपको कुछ खाने को देता हूँ।"
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तो हमें ये पता लगा कि
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अब्राहम महज एक किताबी किरदार नहीं है इन लोगों के लिये,
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वो जीवित है, उनके बीच रोज़ाना।
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तो पिछले कुछ सालों में,
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हज़ारों लोगों ने
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अब्राहम-पथ के कुछ भागों पर
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मध्य-पूर्व में चलना शुरु कर दिया है,
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वहाँ के लोगों का स्वागत-सत्कार स्वीकार करते हुए।
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उन्होने चलना शुरु किया है
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इज़रायल और फ़िलिस्तीन में,
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जोर्डन में, तुर्की में, सीरिया में।
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ये बेहद अलग अनुभव है।
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आदमी, औरत, युवा, वृद्ध --
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आदमियों से ज्यादा औरतें, सच में।
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और जो चल नहीं सकते,
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जो वहाँ अभी तक नहीं जा सकते,
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उन लोगों ने पद-यात्राएँ आयोजित करना शुरु कर दिया है
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अपने शहरों, और अपने ही देशों मे।
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सिनसिनाती में, उदाहरण के लिये, एक पद-यात्रा आयोजित होती है
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एक चर्च से एक मस्जिद से होते हुए, एक यहूदी मंदिर तक
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और फ़िर सब साथ में अब्राहम-भोज करते है।
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उसे अब्राहम पथ दिवस कहा जाता है।
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साओ पालो, ब्राज़ील में तो ये वार्षिक उत्सव बन चुका है,
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हज़ारों लोगों के दौडने के लिये,
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एक कल्पित अब्राहम पथ पर,
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अलग अलग समुदायों को जोडने के लिये।
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मीडिया भी इस पर खूब लिखती है, उन्हें ये बेहद पसंद है।
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वो अपना ध्यान इस पर लुटाते है
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क्योंकि ये देखने में बेहतरीन है,
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और इस विचार को आगे बढाता है,
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कि अब्राहम की तरह ही स्वागत
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और दया की भावना अजनबियों के प्रति रखी जाये।
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और अभी कुछ हफ़्ते पहले ही,
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एन.पी.आर ने इस पर कहानी लिखी थी।
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पिछले महीने,
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इस पर गार्डियन अखबार ने लिखा था,
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मैनचेस्टर से निकलने वाले गार्डियन ने --
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पूरे दो पन्नों की रपट।
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और उन्होंने एक ग्रामीण का संदेश भी शामिल किया था
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जिसने कहा, "ये पद-यात्रा हमें दुनिया से जोडती है।"
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उसने कहा कि ये एक रोशनी की तरह है जो हमारे जीवन में उजाला करती है
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हमें आशा दे कर।
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और देखिये इसी सब पर ये आधारित है।
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मगर ये सिर्फ़ मनोवैज्ञानिक नहीं है,
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ये आर्थिक भी है,
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क्योंकि जब लोग चलते है, तो वो पैसे भी खर्च करते हैं।
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और उम अहमद नाम की इस महिला,
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जो कि उत्तरी जोर्डन में इस रास्ते पर ही रहती है।
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ये बेहद गरीब है।
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काफ़ी हद तक दृष्टि-विहीन है, उसका पति काम नहीं कर सकता है,
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और उस के सात बच्चे हैं।
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मगर वो एक काम कर सकती है - खाना पकाना।
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तो उसने पद-यात्रियों के दलों के लिये खाना पकाना शुरु कर दिया है,
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जो उसके गाँव से निकलते है, और उसके घर में खाना खाते हैं।
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वो ज़मीन पर बैठते है।
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उस के पास मेज़ ढकने का कपडा तक नहीं है।
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और वो बहुत ही स्वादिष्ट खाना पकाती है
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जो कि आसपास के खेतों में उगने वाले मसालों से बना होता है।
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और इस वजह से और भी पद-यात्री वहाँ आते हैं।
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और अब तो उसने पैसे कमाने भी शुरु कर दिये है,
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अपने परिवार के सहारे के लिये।
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और उसने वहाँ हमारी टीम को बताया,
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"आपने मुझे उस गाँव में इज़्ज़्त दिलायी है
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जहाँ एक समय पर लोग
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मेरी तरफ़ देखने में भी झिझकते थे।"
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ये है अब्राहम-पथ की शक्ति।
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और ऐसे कई सौ समुदाय है
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पूरे मध्य-पूर्व में , इस रास्ते के आसपास।
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देखिये इसमें संभावना है पूरा मुद्दा बदल देने की
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और मुद्दा बदलने के लिये आपको माहौल बदलना होगा,
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जिस तरह हम देखते हैं--
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माहौल बदलना होगा
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दुश्मनी से दोस्ती में
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आतंकवाद से पर्यटन में।
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और उस हिसाब से, अब्राहम पथ
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मुद्दा बदलने की संभावना से ओत-प्रोत है।
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चलिये मैं आपको कुछ दिखाता हूँ।
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मेरे पास एक छोटा सा बाँजफ़ल है
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जो मैनें ऐसे ही रास्ते पर चलते हुए उठा लिया था
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इस साल की शुरुवात में।
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अब ये फ़ल बलूत के पेड से जुडा है, बिलकुल --
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क्योंके ये उस पर उगता है,
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जो कि अब्राहम से जुडा है।
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ये पथ आज इस फ़ल की तरह है;
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अपने शुरुवाती दौर में।
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और बलूत का पूरा पेड कैसा दिखेगा?
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जब मैं अपने बचपन के बारे में सोचता हूँ,
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जिसका काफ़ी बडा हिस्सा मैने, शिकागो में पैदा होने के बावजूद,
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यूरोप में गुज़ारा।
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अगर आप
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मान लीजिये, कि लंदन के खंडहरों
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में १९४५ मे, या फ़िर बर्लिन मे, गये होते,
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तो आपने कहा होता,
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आज से साठ साल बाद,
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ये धरती का सबसे शांत, सबसे धनी इलाका होगा,"
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तो लोग सोचते कि
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आप निश्चय ही पागल हैं।
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मगर ऐसा हुआ - यूरोप की एक साझी पहचान के चलते,
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और एक साझी अर्थव्यवस्था के चलते।
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तो मेरा प्रश्न है, कि यदि ये यूरोप में किया जा सकता है,
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तो मध्य-पूर्व में क्यों नहीं?
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क्यों नहीं, जबकि वहाँ भी एक साझी पहचान है --
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जो कि अब्राहम की कहानी से आती है --
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और ऐसी साझी अर्थव्यवस्था से
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जो कि पर्यटन पर टिकी हो?
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मैं अंत में यही कहूँगा कि
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पिछले ३५ सालों में,
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मैने काम किया है
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कुछ बहुत ही खतरनाक, कठिन और उलझे हुए विवादों
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- पूरे विश्व में,
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और आज तक मैं ऐसे विवाद को नहीं देख सका
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जिसे देख कर मुझे लगा हो कि ये हल नहीं हो पायेगा।
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बिलकुल, ये आसान नहीं है,
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लेकिन ये संभव है।
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ऐसा दक्षिणी अफ़्रीका में किया गया है।
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उत्तरी आयरलैण्ड में भी किया गया है।
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और ऐसा कहीं भी किया जा सकता है।
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सब कुछ हम पर ही निर्भर करता है।
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हमारा ही कर्तव्य है कि हम तीसरा पक्ष बनें।
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तो मैं आप को आमंत्रित करता हूँ कि
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तीसरे पक्ष की भूमिका निभाने को
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एक छोटी शुरुवात के रूप में देखें।
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थोडी ही देर में हम एक छोटा सा मध्यांतर लेंगे।
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उस में किसी ऐसे से मिलिये
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जो दूसरी संस्कृति, दूसरे देश से हो,
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अलग जाति से हो, कुछ अलग हो,
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और उनके साथ बातचीत कीजिये; उन्हें ध्यान से सुनिये।
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यही तीसरे पक्ष का कार्य है।
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यही अब्राहम के नक्श-ए-कदम पर चलना है।
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टेडवार्ता की बाद,
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क्यों न एक टेडयात्रा भी करें?
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तीन संदेश दे कर जाऊँगा।
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एक, ये कि शांति का राज़ है
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तीसरा पक्ष।
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और तीसरा पक्ष मै आप,
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हम में हर एक है,
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और एक छोटे से कदम से ही,
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हम दुनिया को बदल सकते है, उसे
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शांति के और करीब ला सकते हैं।
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एक पुरानी अफ़्रीकन कहावत है:
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"अगर मकडियों के जाले एकजुट हो जायें,
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तो वो शेर को भी रोक सकते हैं।"
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अगर हम सब एकत्र कर सकें,
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अपने तीसरे पक्ष के जाले,
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तो हम युद्ध के शेर को भी रोक सकते हैं।
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