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कैसे किसी को खोना एक आर्टिस्ट को ख़ूबसूरती की खोज पर ले गया।

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    मैं एक पेंटर हूँ।
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    मैं बड़े साइज़ में
    फ़िगरेटिव पेंटिंग करती हूँ,
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    लोगों की तस्वीरें बनाना
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    कुछ इस तरह की।
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    पर आज मैं आपके साथ
    कुछ पर्सनल बातें साझा करूँगी
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    जिन्होंने मेरे काम और
    दृष्टिकोण को बदल दिया।
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    ये ऐसा कुछ है जो हम
    सब झेलते है
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    और मेरी आशा है की मेरे अनुभव
    किसी के काम आ सकेंगे।
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    मैं अपने बारे में कुछ बताती हूँ,
    मैं आठ बहन भाइयों में सबसे छोटी हूँ।
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    जी हाँ, मेरे परिवार में
    आठ बच्चे थे।
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    छः बड़े भाई और एक बहन।
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    और बस यूँ समझ लीजिए कि
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    जब हम छुट्टी में जाते थे,
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    तो बस लेनी पड़ती थी।
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    (ठहाका)
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    मेरी सुपर मम्मी हमें शहर भर में
    हमारी ड्राइवरी करती थीं।
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    स्कूल के बाद के तमाम
    कोर्स वग़ैरह के लिए
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    , बस में नहीं।
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    हमारी एक नोर्मल कार भी थी।
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    वो मुझे आर्ट क्लास ले जाती थी,
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    और सिर्फ़ एक और दो क्लास नहीं।
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    जितनी भी आर्ट क्लासें थीं , सब जगह,
    मेरे 8 से 16 साल तक की उम्र में,
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    क्योंकि मैं बस आर्ट ही करती थी।
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    माँ ने न्यू यॉर्क की एक क्लास
    मेरे साथ ज्वाइन कर ली थी।
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    और आठ में सबसे छोटा होने का मतलब
    मुझे कुछ हथकंडे सीखने पड़े।
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    पहला रूल:
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    कभी बड़े भाई को अपनी
    बेवक़ूफ़ी पकड़ने मत दो।
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    तो मैंने चुप और साफ़ रहना सीख लिया
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    और नियम के हिसाब से चलना
    और गड़बड़ नहीं करना।
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    मगर जब पेंटिंग की बात आती,
    तो अपने रूल मैं ख़ुद बनाती थी।
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    वो मेरी अपनी निजी दुनिया थी।
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    14 की उम्र तक मुझे पता लग गया था कि
    मुझे आर्टिस्ट बनना है।
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    मैं सोचती थी की वेटर बन कर कमा लूँगी
    और पेंटिंग करूँगी
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    तो मैं अपनी पेनिंग पर काम करती रही।
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    मैंने एम एफ ए की डिग्री ले ली,
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    और मेरे पहले सोलो शो में,
    मेरे भाई ने पूछा,
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    "ये पेंटिंग के बग़ल में लाल लाल
    बिंदियाँ क्या हैं?"
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    और मैं सबसे ज़्यादा हैरान थी।
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    लाल बिंदु का मतलब था कि
    पेंटिंग बिक गयी थी
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    और मैं अपना ख़र्चा चला सकती थी
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    पेनिंग कर के।
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    मेरे फ़्लैट में बिजली के चार प्लग थे,
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    और मैं अपना माइक्रोवेव और टोस्टर
    एक साथ नहीं लगा सकती थी,
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    मगर फिर भी, मैं किराया
    देने जितना कमा रही थी।
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    तो मैं काफ़ी ख़ुश थी।
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    ये एक पेंटिंग है जो मैंने उस समय बनाई थी।
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    मैं इसे बिलकुल असली बनाना चाहती थी।
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    एकदम सटीक और जीवंत।
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    ये काम मुझे एकांत देता था और
    पूरी तरह मेरे वश में था।
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    तब से, लोगों की पानी में तस्वीरें
    बनाने को मैंने अपना करियर बना लिया।
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    बाथटब और फ़व्वारे बिलकुल परिभाषित
    माहौल देते हैं।
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    एकांत और निजी,
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    और पानी पेंट करना ऐसी जटिल चुनौती
    थी जिस में मैं एक दशक डूबी रही।
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    मैंने क़रीब दो सौ ऐसी पेंटिंग बनाईं,
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    कुछ तो 6 से 8 फ़ीट लम्बी,
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    जैसे की ये।
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    इस पेंटिंग के लिए मैंने पानी में आटा
    घोल कर उसे धुँधला बनाया
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    और फिर इस के सतह पर तेल मल कर
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    उस में इस लड़की को लगा दिया,
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    और जब मैंने उस पर रोशनी डाली,
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    तो वो इतना ख़ूबसूरत था की
    उसे पेंट किए बिना रहा नहीं गया।
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    मैं इस तरह की बेचैन सी
    जिज्ञासा से भारी थी,
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    हमेशा कुछ नया जोड़ने की कोशिश करती हुई:
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    विनाइल, भाप, शीशा।
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    एक बार मैंने अपने पूरे सर और
    बालों में वैसलीन लगा ली
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    बस जानने के लिए की कैसा दिखेगा।
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    आप मत करिएगा।
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    (ठहाका)
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    तो सब सही चल रहा था।
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    मैं अपने रास्ते खोज रही थे।
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    मैं उत्सुक थी, उत्साहित थी।
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    और आर्टिस्ट लोगों से घिरी हुई थी,
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    हमेशा नए इवेंट और ओपनिंग में मौजूद।
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    थोड़ी सफलता और शोहरत भी मिलने लगी थी।
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    और मेरे नए घर में चार से ज़्यादा
    बिजली के प्लग भी थे।
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    मेरी माँ और में देर रात तक जाग कर
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    अपने नए प्रयोगों पर एक दूसरे
    को बढ़ावा देते रहते थे।
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    वो मिट्टी के बर्तन बनाती थीं ।
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    मेरे दोस्त बो ने ये पेंटिंग बनायी थी
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    अपनी पत्नी और मेरे समंदर किनारे नाचते हुए,
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    और वो इसे कहता था "द लाइट इयर्स"।
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    मैंने पूछा की इस का क्या अर्थ हुआ,
    और उस ने कहा,
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    "देखो, जब हम बड़े होते हैं,
    तो बचपन पीछे छूट जाता है,
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    मगर तुम ने अपनी ज़िम्मेदारियों
    के बीच भी उसे जीवित रखा है।"
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    बस, यही मतलब था द लाइट इयर्स का।
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    8 अक्टूबर 2011 को,
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    द लाइट इयर्स का अंत हो गया।
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    मेरे माँ को फेफड़े का कैंसर निकला।
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    वो उनकी हड्डियों और दिमाग़ तक फैल चुका था।
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    जब उन्होंने मुझे बताया,
    तो मैं गिर गयी।
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    मेरी दुनिया ख़त्म हो गयी।
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    और जब मैं संभली और उन्हें देखा,
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    तो लगा की मेरा दुःख बहुत छोटा था।
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    यहाँ मुद्दा माँ के मदद करने का था।
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    मेरे पिता डॉक्टर हैं,
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    और उनकी वजह से हमें बहुत सहारा मिला,
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    और उन्होंने बड़े बहतरीन तरीक़े से
    माँ का ख़याल रखा।
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    पर मैं भी जो बन पड़े,
    करना चाहती थी,
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    तो मैंने सब कुछ करने लगी।
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    हम सब करने लगे।
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    वैकल्पिक दवाई रिसर्च करी,
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    खानपान, ऐक्यूपंक्चर।
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    आख़िर मैंने उन से पूछा,
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    "तुम चाहती हो कि
    मैं ये करूँ?"
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    और उन्होंने कहा, "न।"
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    उन्होंने कहा, "अपनी ताक़त बचा के रखो।
    आगे ज़रूरत होगी।"
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    उन्हें पता था की क्या हो रहा है
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    उन्हें वो पता था जो डाक्टरों
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    और विशेषज्ञों और इंटर्नेट
    को भी नहीं पता था:
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    की वो इस से कैसे गुज़रना चाहती थी।
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    बस उनसे पूछने
    भर की देर थी
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    और मुझे समझ आया कि
    सब ठीक करने में
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    तो मैं ये चूक जाऊँगी।
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    तो मैंने बस उनके साथ समय बिताना
    शुरू किया,
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    चाहे जैसे भी हो,
    चाहे जैसी भी स्थिति आए,
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    बस उनकी बात सुनना शुरू किया।
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    जहाँ मैं पहले बहस में लगी थी,
    अब बस समर्पण कर चुकी थी,
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    होनी को बदलने की जद्दोजहद
    को छोड़ कर
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    बस उनके साथ रहने को तैयार हो कर।
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    जैसे समय की गति ही धीमी हो गयी थी,
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    दिन, तारीख सब बेमानी हो गए थे।
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    हमने एक दिनचर्या बना ली थी।
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    हर सुबह मैं उनके बिस्तर में घुस
    कर चिपक कर सो जाती थी।
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    मेरा भाई नाश्ते के लिए आ जाता था
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    और हमें उसके कार की आवाज़ सुन कर
    बहुत अच्छा लगता था।
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    और में उन्हें उठा कर, उनके दोनो हाथ थाम कर
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    उन्हें रसोई तक ले जाती थी।
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    उन्हें ख़ुद के बनाए बड़े से मग में
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    कॉफ़ी पीना बड़ा अच्छा लगता था,
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    और आइरिश सोडा ब्रेड उन्हें
    पसंद थी।
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    फिर वो स्नान करती थीं,
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    उन्हें बहुत अच्छा लगता था।
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    उन्हें गरम पानी पसंद था,
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    और में इसे जितना अच्छा हो सके, कर देती थी,
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    एक स्पा जैसा।
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    कभी कभी मेरी बहन भी मदद
    करती थी।
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    हम गरम किए तौलिए
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    और चप्पलें तैयार रखते थे
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    जिस से एक सेकेंड भी उन्हें ठंड न लगे।
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    हम उनके बाल सुखाते थे।
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    मेरे भाई शाम को अपने बच्चों के साथ
    आ जाते थे,
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    और वो दिन का सबसे ख़ास हिस्सा होता था।
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    धीरे धीरे, वहील चेअर का
    इस्तेमाल होने लगा,
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    और उनकी भूख मिट गयी,
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    तो बहुत ही छोटे छोटे कपों
    में काफ़ी पीने लगीं।
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    और अब मैं उनका ध्यान नहीं रख पाती थी,
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    तो हमने नहाने में मदद
    करने के लिए किसी को रखा।
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    ये दिनचर्या हमारे लिए
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    ज़रूरी पूजा जैसी हो गयी,
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    और हम दिन पर दिन इसे करते रहे
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    जैसे जैसे कैन्सर बढ़ा।
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    ये बहुत कठिन और नम्र कर देने
    वाला अनुभव था,
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    और बिलकुल वैसा था जैसा हम चाहते थे।
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    हम इसे "सुंदर कठिनाई" कहते थे।
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    वो अक्टूबर 26 2012 को चल बसीं।
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    कैन्सर पता लगने के 1 साल और 3 हफ़्ते बाद।
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    वो बस चली गयीं।
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    मेरे भाई, बहन, पिता और मैं
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    एक दूसरे को सहारा देने के लिए साथ आए।
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    मानो हमारे पुराने रिश्ते
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    और रोल हवा हो गए
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    और हम बस इस अनजान जगह
    साथ थे,
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    एक सी चीज़ को महसूस करते
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    और एक दूसरे का ख़याल रखते।
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    मैं उनकी बहुत शुक्रगुज़ार हूँ।
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    मैं अकेले स्टूडीओ में काम करते हुए
    अपना समय बिताती हूँ,
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    मुझे अंदाज़ा ही नहीं था की ऐसे
    जुड़ना
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    इतना ज़रूरी और इतना सहारा दे सकता है।
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    ये सब से महत्वपूर्ण बात थी।
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    मैंने हमेशा यही तो चाहा था।
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    तो अंत्येष्टि के बाद, मुझे वापस
    अपने स्टूडीओ जाना था।
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    मैंने अपना समान कार में भरा
    और ब्रुकलिन चली गयी,
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    क्यूँकि मैं पेंटिंग ही जानती थी,
    मैं उसमें जुट गयी।
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    और फिर कुछ अलग ही हुआ।
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    जैसे अपने भीतर भारी चीज़ों
    को आज़ादी मिल गयी हो।
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    वो सुरक्षित, सम्हाल के सब करने वाला तारिक
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    जिस से मैं अपना सारा काम करती थी,
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    वो सब झूठ था,
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    वो काम ही नहीं आया।
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    और मुझे डर गयी - अब मेरा पेंट
    करने का मन ही नहीं करता था।
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    तो मैं जंगलों में चली गयी।
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    मैंने सोचा, बाहर निकालने
    की कोशिश करते हैं,
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    मैंने अपने पेंट लिए,
    और मैं प्रकृति चित्र नहीं बनाती थी,
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    और किसी ख़ास विधा में तो बिलकुल
    नहीं बनाती थी,
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    तो ना कोई लगाव था, ना कोई आशा,
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    और मैं खुल कर पेंट करने लगी।
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    मैंने एक पानी वाली पेंटिंग को
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    रात भर बाहर छोड़ दिया।
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    जंगल में एक रोशनी के बग़ल में।
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    सुबह तक इसमें तमाम कीड़े चिपक गए थे।
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    मगर मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ा।
    किसी बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा।
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    उन सब पेंटिंग को स्टूडीओ ले जा के,
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    उन्हें घिसा, उनमे छेद किए,
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    उनपे थिनर उँडेल दिया,
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    और पेंट लगाया, उनके ऊपर और बनाया,
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    कही कोई प्लान नहीं था,
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    मगर मैं देख रही थी की कुछ हो रहा था।
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    ये वो कीड़े वाली पेंटिंग है।
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    मैं कोई असल जगह बनाने की
    कोशिश में नहीं थी।
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    इनकी उथलपथल और गड़बड़ियाँ
    मुझे आकर्षित करते थे,
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    और कुछ नया सा घटना शुरू हुआ गया।
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    मैं फिर से जिज्ञासु हो उठी।
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    ये जंगलों में बनायी एक और पेंटिंग है।
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    बस एक कमी थी,
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    की मेरे रंग अब मेरे बस में नहीं रह गए थे।
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    बस अपने आप सब होता चलता था,
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    ना समझना ना बताना।
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    और वही अस्तव्यस्त उबाल भरी हलचल
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    एक कहानी कह रही थी।
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    मैं अपने विद्यार्थी जीवन जितनी
    उत्सुक और जिज्ञासु हो गयी थी।
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    और फिर में इन पेंटिंगो में लोगों
    को डालने लगी,
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    और मुझे ये नया परिवेश बहुत अच्छा लगा
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    मैं लोगों को और इस परिवेश दोनो को
    मिलना चाहती थी।
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    जब मुझे समझ आया की ये कैसे करना है,
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    तो मैं बिलकुल पसर से गयी,
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    शायद अड्रेनलिन के वजह से,
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    मगर मेरे लिए वो बढ़िया लक्षण था।
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    तो अब मैं आपको दिखाना चाहती हूँ
    की मैं क्या करती रही हूँ।
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    अभी तक इसे किसी ने नहीं देखा है,
    समझ लीजिए, ख़ास झलक है,
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    मेरे अगले शो की,
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    अब तक इतना
    हो चुका है।
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    विशाल जगह
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    अलग थलग बाथटब की जगह।
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    बाहर की ओर जाना, अंदर बंद होने के बजाय।
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    कंट्रोल छोड़ना,
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    गड़बड़ को एकाकार करना,
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    इजाज़त देना --
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    कि खोट होती है तो हो जाए।
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    और उन्हीं त्रुटियों में,
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    एक नाज़ुकपन का एहसास निकालना।
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    मैं अपने अंदर की गहरी भावनाओं तक
    पहुँच सकी,
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    उस इंसानी जुड़ाव तक
  • 11:28 - 11:32
    जो तब ही हो सकता है जब
    पूरी तरह से आज़ाद हो कर जुड़ा जाए।
  • 11:34 - 11:35
    अपनी पेंटिंग में वही लाना चाहती हूँ।
  • 11:38 - 11:40
    तो मैंने ये सीखा कि ---
  • 11:41 - 11:44
    हम अब अपने जीवन में
    बड़ी त्रासदियों से गुज़रेंगे,
  • 11:45 - 11:47
    शायद नौकरी, करियर,
  • 11:47 - 11:50
    रिश्ते, प्यार, जवानी से जुड़े।
  • 11:52 - 11:54
    हम बीमार हो जाएँगे,
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    हम अपनो को खो देंगे।
  • 11:56 - 11:59
    इस तरह के नुक़सान हमारे
    वश के बाहर हैं।
  • 11:59 - 12:00
    ये कभी भी हो सकते हैं,
  • 12:01 - 12:02
    और ये हमें तोड़ डालते हैं।
  • 12:04 - 12:06
    तो मैं कहती हूँ , तोड़ने दो।
  • 12:07 - 12:09
    गिर जाओ। अपनी क्षणभंगुरता का सामना करो।
  • 12:11 - 12:13
    उसे रोकने की नाकाम कोशिश से आगे जाओ
  • 12:13 - 12:15
    उसे बदलने में मत उलझो।
  • 12:15 - 12:17
    ऐसा बस होता है।
  • 12:19 - 12:21
    और तब वो जगह मिलेगी,
  • 12:21 - 12:24
    और उस जगह में अपनी कमज़ोरी से सामना होगा,
  • 12:24 - 12:26
    वो मिलेगा जो आपके लिए सबसे ज़रूरी होगा,
  • 12:26 - 12:27
    आपका सबसे गहरा ध्येय।
  • 12:29 - 12:30
    और उस से जुड़ने के लिए उत्सुक
  • 12:32 - 12:35
    जो वहाँ है,
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    जागता और जीता।
  • 12:38 - 12:39
    हम सब वही खोज रहे हैं।
  • 12:41 - 12:44
    आइए कुछ ख़ूबसूरत सा ढूँढे
  • 12:45 - 12:48
    इस दुनिया में - जो अनजान, अप्रत्याशित,
  • 12:49 - 12:50
    बल्कि बदसूरत भी है।
  • 12:51 - 12:53
    धन्यवाद।
  • 12:53 - 12:56
    (तालियाँ)
Title:
कैसे किसी को खोना एक आर्टिस्ट को ख़ूबसूरती की खोज पर ले गया।
Speaker:
अलीसा मंक्स
Description:

पेंटर अलीसा मंक्स अप्रत्याशित और अनजान दुनिया में ख़ूबसूरती और प्रेरणा पाती हैं। एक काव्यात्मक और दोस्ती भरी बातचीत में, वो अपने जीवन, रंगों, कैनवस के अनुभव साझा करती हैं, एक आर्टिस्ट और एक इंसान के तौर पर अपनी यात्रा से हमें गुज़ारती हैं।

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Video Language:
English
Team:
closed TED
Project:
TEDTalks
Duration:
13:08

Hindi subtitles

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