ह्म्म, कठिन मध्यस्थता का मसला
मुझे मेरी एक पसंदीदा कहानी की याद दिलाता है,
मध्यपूर्वी दुनिया से,
एक ऐसे आदमी की जो अपने तीन बेटों के लिये १७ ऊँटों की विरासत छोड गया था।
पहले बेटे के लिये उसने आधे ऊँट मुकर्रर किये थे;
दूसरे के लिये, एक तिहाई;
और सबसे छोटे बेटे के लिये, ऊँटों का नवाँ हिस्सा।
तीनों बेटे ऊँटों का फ़ैसला करने बैठे।
१७ न तो दो से भाग खाता है।
न ही उसे तीन भागों में बाँटा जा सकता है।
और ९ से भी उसे भाग नहीं दिया जा सकता।
अब भाइयों में अन-बन शुरु हो गयी।
और अंत में, मरता क्या न करता,
वो एक बुद्धिमान बुढिया के पास सलाह के लिये पहुँचे।
बुद्धिमान बुढिया ने उनकी समस्या पर देर तक विचार किया,
और फ़िर उसने वापस आ कर कहा,
"देखो, मुझे नहीं पता कि मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूँ या नहीं,
लेकिन अगर तुम्हें चाहिये, तो तुम मेरा ऊँट ले जा सकते हो।"
तो अब उनके पास १८ ऊँट हो गये।
पहले बेटे ने अपना आधा हिस्सा ले लिया - १८ का आधा ९ होता है।
मंझले बेटे ने एक-तिहाई ले लिया - १८ का तिहाई ६ होता है।
और सबसे छोटे बेटे ने नवाँ हिस्सा लिया --
१८ का नवाँ हिस्सा दो होता है।
९, ६, और २ मिला कर कुल १७ होते हैं।
तो उनके पास एक ऊँट बच गया।
और उसे उन्होंने उस बुढिया को वापस कर दिया।
(हँसी)
अब अगर आप इस कहानी पर गौर करें,
तो ये काफ़ी करीब है
उन स्थितियों के, जो हमें समझौते करते समय झेलनी होती हैं।
वो इसी १७ ऊँटों वाली स्थिति से शुरु होती है - जिनका निपटान असंभव लगता है।
कैसे भी हो, हमें करना ये होता है कि
हम उन स्थितियों से बाहर निकल कर देखें, बिलकुल उस बुद्धिमान बुढिया की तरह,
और एक नये नज़रिये से स्थितियों पर गौर करें
और कहीं से उस अट्ठारहवें ऊँट को प्रकट करें।
दुनिया के कठिन मसलों में इस अट्ठारहवें ऊँट की खोज़ ही
मेरे जीवन की साधना रही है।
मुझे मानव-जाति इन तीन भाइयों जैसी ही लगती है;
हम सब एक परिवार हैं।
और ये तो वैज्ञानिक तौर पर भी साबित हो चुका है,
और सूचना क्रान्ति के चलते,
इस ग्रह के सारे कबीले, लगभग १५,००० कबीले,
एक दूसरे से संपर्क में आ गये हैं।
और ये बहुत बडा पारिवारिक सम्मेलन है।
और बिलकुल पारिवारिक सम्मेलनों की तरह,
इसमें सब कुछ केवल शांति से, मज़े से नहीं होता है।
बहुत विवाद भी उत्पन्न होते हैं।
और असली प्रश्न तो ये है, कि
हम इन विवादों से कैसे निपतें?
हम अपने गहरे पैठे हुए मतभेदों से कैसे निपटें,
जब कि हम लोग हरदम लडने को तैयार रहते हैं
और मानव महान ज्ञाता हो गया है
हाहाकार मचा सकने वाले हथियारों का।
प्रश्न असल में ये है।
जैसा कि मैने लगभग पिछले तीस साल --
या शायद चालीस --
दुनिया भर में सफ़र करते हुए बिताये हैं,
अपना काम करते हुए, विवादों का हिस्सा बनते हुए
युगोस्लाविया से ले कर मध्य-पूर्व तक,
चेचेन्या से ले कर वेनेज़ुअला तक,
हमारी दुनिया के कुछ सबसे बडे और कठिन विवादों के दरम्यान,
और मै स्वयं से हमेशा यही प्रश्न पूछता आया हूँ।
और शायद कुछ हद तक मुझे ये पता लग गया है,
कि शान्ति का राज़ क्या है।
ये असल में आशचर्यजनिक रूप से साधारण है।
आसान नहीं है, मगर साधारण है।
और तो और, ये नया भी नहीं है।
हो सकता है कि ये हमारी प्राचीन मानव-संस्कृति का अहम हिस्सा रहा हो।
और शान्ति का राज हम खुद हैं।
ये हम सब ही हैं
जो कि समाज के रूप में
विवादों के आसपास मौजूद हो कर
एक सकारात्मक भागीदारी निभा सकते हैं।
मैं उदाहरण के रूप में एक किस्सा सुनाता हूँ।
करीब २० साल पहले, मैं दक्षिणी अफ़्रीका में था,
वहाँ के विवाद में शामिल गुटों के साथ काम करते हुए,
और मेरे पास एक महीन का अतिरिक्त समय था,
तो मैने वो समय
सैन बुश्मैन आदिवासियों के साथ बिताया।
मैं उनके बारे में जानने में उत्सुक था, खासकर कि वो अपने विवाद कैसे हल करते हैं।
क्योंकि, जितना मुझे पता था,
वो सब शिकारी या संग्रहजीवी थे,
काफ़ी हद तक आदिमानवों सरीका जीवन व्यतीत करने वाले,
जैसा कि मानवों ने अपने ९९ प्रतिशत इतिहास में बिताया है।
और इनके पास जहर-बुझे तीर होते हैं जिन्हें ये शिकार के लिये इस्तेमाल करते हैं--
एकदम मारक तीर।
तो ये कैसे अपने विवादों का हल ढूँढते हैं?
और पता है, मैनें क्या पाया --
कि जब भी उनके दलों में लोगों को गुस्सा आता है,
कोई जाकर पहले वो ज़हर-बुझे तीर झाडियों में छुपा देता है,
फ़िर सब लोग एक गोला बना कर ऐसे बैठ जाते हैं,
और फ़िर वो बातचीत करते जाते है, करते जाते हैं, करते जाते हैं।
इसमें उन्हें दो दिन, तीन, या फ़िर चार दिन भी लग सकते हैं,
मगर वो तब तक नहीं रुकते
जब तक कि उन्हें कोई हल न मिल जाये,
या फ़िर, विवाद करने वाले सुलह न कर लें।
और यदि तब भी गुस्सा शांत न हो,
तो वो किसी को अपने रिश्तेदारों से मिलने भेज देते हैं
शांत होने के लिये।
और मेरे ख्याल से इसी व्यवस्था
के चलते, हम सब आज तक जीवित बचे है,
हमारी लडाकू पॄवत्तियों के मद्देनज़र।
इस व्यवस्था को मैं तीसरा-पक्ष कहता हूँ।
क्योंकि यदि आप ध्यान दें,
अक्सर जब भी हम विवाद के बारे में सोचते हैं, या बताते हैं,
तो उस में हमेशा दो पक्ष निहित होते हैं।
अरब बनाम इस्राइली, मज़दूर बनाम प्रबंधन,
पति बनाम पत्नी, रिपब्लिकन बनाम डेमोक्रेट,
मगर अक्सर जो हम नज़रअंदाज़ कर देते हैं,
वो ये है कि हमेशा एक तीसरा पक्ष होता है।
और वो तीसरा पक्ष है आप और मैं,
आसपास का समाज,
दोस्त, और सहयोगी,
परिवार के सदस्य, पडोसी।
और हम सब उसमें अभूतपूर्व सकारात्मक भूमिका निभा सकते हैं।
शायद सबसे मौलिक तरीका
जिस से कि तीसरा पक्ष मदद कर सकता है,
ये है कि विवादी जुटों को बतायें कि दाँव पर क्या लगा है।
बच्चों के लिये, परिवार के लिये,
समाज के लिये, और भविष्य के लिये,
हमें लडना छोड कर, बातचीत शुरु करनी होगी।
क्योंकि, मुद्दा ये है,
कि जब हम लडाई का हिस्सा होते हैं,
तो अपना आपा खोना बहुत आसान होता है।
तुरंत भडक उठना भी बहुत आसान होता है।
और मानव-जाति तो जैसे प्रतिक्रिया की मशीन है।
जैसा कि कहा जाता है,
जब आप गुस्सा हैं, तो आप वो बहतरीन भाषण देंगे
जिसका आपको हमेशा पछतावा रहेगा।
और इसलिये तीसरा पक्ष हमेशा हमें ये याद दिलाता रह सकता है।
ये तीसरा पक्ष हमें बालकनी में जाने में मदद करता है,
जो कि सोच-विचार की जगह का रूपक है
जहाँ हम सोच सकें कि हमें असल में चाहिये क्या।
मैं आपको अपने खुद के मध्यस्तता के अनुभव से एक किस्सा सुनाता हूँ।
कुछ साल पहले, मैं एक मध्यस्त के रूप में
एक बहुत कठिन वार्ता में शामिल था
रूस के नेताओं
और चेचेन्या के नेताओं के बीच।
और जैसा कि आपको पता ही है, उस समय एक युद्ध चल रहा था।
और हम हेग्य में मिले,
शांति महल में (पीस पैलेस),
उसी कमरे में जहाँ युगोस्लावी युद्ध अपराधों की कचहरी
चल रही थी।
और हमारी बातचीत शुरुवात में ही हिचकोले खाने लगी
जब चेचेन्या के उप-राष्ट्रपति ने
रूसियों की तरफ़ उँगली उठा कर कहा,
"आपको यहीं बैठे रहना चाहिये,
क्योंकि हो सकता है आप पर भी युद्ध-अपराधों का मुकदमा चले।"
और फ़िर वो मेरी ओर मुखातिब हो कर बोले,
"तुम तो अमरीकी हो।
देखो तुम अमरीकियों ने प्यूर्टो रिको में क्या किया है।"
और मेरे दिमाग ने तुरंत सोचना शुरु किया, "प्यूर्टो रिको? इसकी बात का मैं क्या जवाब दूँ?"
मैने प्रतिक्रिया करनी शुरु कर दी थी,
मगर तभी मुझे बालकनी मे जाने वाली बात याद आ गयी।
और जब उन्होंने बोलना बंद किया,
और सभी ने मेरी ओर जवाबी प्रतिक्रिया के लिये देखा,
बालकनी वाली सोच के चलते, मैं उनक उल्टा धन्यवाद देने में सक्षम हो सका,
और मैने कहा, "मैं अपने देश के प्रति आपकी आलोचना का सम्मान करता हूँ,
और इसे मित्रवत व्यवहार का लक्षण मानता हूँ कि
कम से कम हम खुल कर मन की बात बोल तो रहे हैं।
और आज हम यहाँ प्यूर्टो रिको या किसी और बात के लिये नहीं मिल रहे हैं।
हम यहाँ इसलिये हैं कि हम एक हल ढूँढ सकें जिस से कि
चेचेन्या में हो रह दुख और खून-खराबा बंद हो सके।"
बातचीत फ़िर से राह पर आ गयी।
तीसरे पक्ष का यही काम होता है,
कि वो विवाद में फ़ंसे पक्षों को बालकनी तक जाने में मदद करें।
चलिये मैं आपको ले चलता हूँ
विश्व के सबसे कठिन माने जाने वाली बहस के,
या शायद वास्तव में सबसे कठिन बहस के, ठीक बीच
मध्य-पूर्व में।
प्रश्न है: यहाँ तीसरा पक्ष कहाँ है?
यहाँ हम बालकनी में जाने की बात कैसे सोच सकेंगे?
अब मैं ये नाटक नहीं करूँगा कि
मेरे पास मध्य-पूर्व समस्या का समाधान है,
पर मेरे ख्याल से मेरे पास समाधान की ओर जाने का पहला कदम है,
वस्तुतः पहला कदम,
ऐसा कुछ जो हम सब तीसरे पक्ष के रूप में कर सकते हैं।
चलिये आप से पहले एक प्रश्न पूछता हूँ।
आप में कितनों ने
पिछले सालों में
स्वयं को पाया है मध्य-पूर्व की चिंता करते और
ये सोचते कि कोई क्या कर सकता है?
उत्सुक्तावश, कितने आप में से?
ठीक, तो हम में ज्यादातर लोगों ने।
और ये हम से इतना दूर है।
हम आखिर इस विवाद पर इतना ध्यान क्यों देते हैं?
क्या ये अत्यधिक लोगों की मृत्यु के चलते है?
इस के कई सौ गुना लोग मरते हैं
अफ़्रीका के विवादों में।
नहीं, ये इस से जुडी कहानी की वजह से है,
कि हम सब व्यक्तिगत तौर पर जुडे महसूस करते हैं
इस कहानी से।
चाहे हम ईसाई हों, मुसलमान हों, या फ़िर यहूदी,
और आस्तिक हों या नास्तिक,
हमें लगता है कि हमारा कुछ हिस्सा इसमें शामिल है।
कहानियों की अपनी महत्ता होती है। एक मानव-विज्ञानी होने के नाते मैं जानता हूँ।
हम कहानियों के ज़रिये अपने ज्ञान को आगे देते हैं।
उनसे हमारे जीवन को अर्थ मिलता है।
इसलिये ही हम सब यहाँ टेड में हैं, कहानियाँ सुनाने।
कहानियाँ सबसे महत्वपूर्ण हैं।
और मेरा प्रश्न है,
हाँ, चलिये कोशिश करके सुलझाते हैं राजनीतिक उलझन
जो मध्य-पूर्व में है,
लेकिन एक नज़र उस कहानी पर भी डालते हैं।
चलिये मसले की जड तक पहुँचने की कोशिश करते हैं।
चलिये देखते हैं कि क्या इस पर तीसरा पक्ष लागू होगा।
इसका क्या मतलब हुआ? यहाँ कहानी क्या है?
मानव विज्ञानी होने के नाते, हमें पता है कि
हर संस्कृति के उद्गम की एक कहानी होती है।
मध्य-पूर्व के उद्गम की कहानी क्या है?
सीधे सीधे, कहानी ये है:
४००० साल पहले, एक आदमी और उसके परिवार
ने मध्य-पूर्व के आरपार पद-यात्रा की
और दुनिया हमेशा हमेशा के बदल गयी।
और वो आदमी, जैसा कि सर्वविदित है,
अब्राहम था।
और वो एकता का पुजारी थी,
उसके परिवार की एकता।
वो हम सब का पिता था।
मगर मसला सिर्फ़ ये नहीं कि वो क्या पूजता था, बल्कि ये कि उसका संदेश क्या था।
उसका मूल संदेश भी एकता का ही था,
सबके आपस में जुडे होने का, और सबके बीच एकता का।
और उसका मौलिक मूल्य था सम्मान,
और अन्जान लोगों के प्रति दया का भाव।
वो इसिलिये जाना जाता है, अपनी सत्कार भावना के लिये।
तो इस लिहाज से,
वो तीसरे पक्ष का प्रतीक है
मध्य-पूर्व के लिये।
वो हमें ये याद दिलाता है कि
हम सब एक बडी परिकल्पना के हिस्से मात्र हैं।
तो आप कैसे --
थोडा रुक कर सोचिये।
आज हम आतंकवाद का बोझा ढो रहे हैं।
आतंकवाद आखिर है क्या?
आतंकवाद है कि एक मासूम अजनबी को पकडिये,
और उसे उस दुश्मन के माफ़िक मानिये जिसे आप मार देंगे
डर पैदा करने के लिये।
और आतंकवाद का विपरीत क्या है?
ये कि आप एक मासूम अजनबी से मिले,
और उससे उस दोस्त के माफ़िक बर्ताव किया,
जिसे आप अपने घर बुलायेंगे
उस के साथ दख-सुख बाँटेंगे, और समझ बढायेंगे,
सम्मान देंगे, प्यार देंगे।
तो अगर ऐसा हो कि
आप अब्राहम की कहानी उठायें,
जो कि तीसरे पक्ष की कहानी है,
और अगर उसे ऐसा कर दें --
क्योंकि अब्राहम सत्कार भावना का प्रतीक है --
क्या हो अगर ये आतंकवाद के खिलाफ़ एक दवाई हो जाये?
क्या हो अगर ये कहानी टीका बन जाये
मजहबी असहिष्णुता के खिलाफ़?
आप उस कहानी में जीवन कैसे फ़ूँक सकेंगे?
देखिये सिर्फ़ कहानी सुना भर देना काफ़ी नहीं है --
वो काफ़ी शक्तिशाली है --
मगर लोगों को कहानी को अनुभव कर पाना ज़रूरी है।
उन्हें उस कहानी को जी पाना ज़रूरी है। वो आप कैसे करेंगे?
और ये मेरी सोच थी कि ऐसा कैसे होगा।
और यहीं से पहले कदम की शुरुवात है।
क्योंकि एक साधारण तरीका ये कर पाने का है कि
आप पद-यात्रा के लिये निकल पडें।
आप अब्राहम के पदचापों का अनुसरण करते हुये पदयात्रा पर निकलें
आप अब्राहम के रास्ते चलें।
क्योंकि पदयात्रा में बडी ताकत होती है।
मैं, एक मानव-विज्ञानी होने के नाते, जानता हूँ कि पद-यात्राओं ने ही हमें मनुष्य बनाया है।
ये गजब है कि जब आप चलते हैं,
तो आप अगल-बगल चलते हैं
एक ही दिशा में।
और अगर मै आपके सामने से आऊँ
और इतना करीब आ जाऊँ,
तो आपको भय महसूस होगा।
लेकिन अगर मैं आपके कंधे से कंधा मिला कर चलूँ,
चाहे आपको बिल्कुल छूते हुये भी,
तो कोई समस्या नहीं है।
अगल बगल चलते समय आखिर कौन लडता है?
इसिलिये, जब मसले हल करते समय, स्थिति कठिन हो जाती है,
लोग जंगलों में पद-यात्रा के लिये निकल जाते हैं।
तो मुझे ये विचार आया कि
क्यों न मैं प्रेरित करूँ
ऐसा रास्ता --
सिल्क रूट जैसा, या अप्लेशियन रास्ते के जैसा --
जो कि ठीक वो ही हो
जो अब्राहम ने लिया था।
लोगों ने कहा, "ये पागलपन है। नहीं हो सकता।
तुम अब्राहम के रास्ते पर नहीं चल सकते। ये बहुत खतरनाक है।
आपको तमाम सारी सीमाओं को पार करना होगा।
ये मध्य-पूर्व के करीब दस अलग अलग देशों से गुज़रता है,
क्योंकि ये उन सब को जोडता है।"
तो हमने हार्वार्ड में इस विचार पर अध्ययन किया।
बारीकी से इसे समझा।
और फ़िर कुछ साल पहले, हम ने एक दल बना कर,
करीब १० देशों के २५ लोगों का,
ये देखने का फ़ैसला किया कि क्या हम अब्राहम के रास्ते पर चल पायेंगे,
उनके जन्मस्थान उर्फ़ा शहर से शुरु कर,
जो दक्षिणी तुर्की, उत्तरी मेसोपोटामिया में है।
तो हमने एक बस ली और थोडी पैदल यात्रा के उपरांत
हम हर्रान पहुँचे,
जहाँ से, बाइबिल के अनुसार, उन्होंने अपनी यात्रा शुरु की थी।
फ़िर हमने सीमा पार की और सीरिया गये, फ़िर अलेप्पो,
जिसका नाम अब्राहम पर ही पडा है।
हम दमसकस गये,
जिसका इतिहास अब्राहम से जुडा है।
फ़िर हम उत्तरी जोर्डन गये,
येरुसलम गये,
जो कि पूरी तरह से अब्राहम से बारे में है, फ़िर बेतलेहम,
और फ़िर आखिर में वहाँ जहाँ वो दफ़न हैं,
हब्रोन में।
तो हम लगभग गर्भाशय से कब्र तक गये।
हमने ये दिखाया कि ऐसा हो सकता है। ये बहुत ही गजब की यात्रा थी।
आपसे एक प्रश्न पूछता हूँ।
आप में से कितनों को ऐसा अनुभव हुआ है
कि किसी अजनबी जगह में,
या अजनबी देश में,
पूरी तरह से, सौ प्रतिशत अनजान व्यक्ति,
आप तक आये और आपसे प्यार की दो बात करे,
आपको अपने घर बुलाये, कुछ खातिरदारी करे,
कॉफ़ी पिलाये, या फ़िर खाने का निमंत्रण दे?
आप में से कितनों के साथ ऐसा हुआ है?
देखिये यही है मुद्दे की बात,
जो अब्राहम-पथ में निहित है।
क्योंकि आप यही होता पाते है, जब आप मध्य-पूर्व के इन गाँवों मे जाते हैं
जहाँ आप बुरे बर्ताव की आशा रखते हैं,
और आपको आश्चर्यजनक स्वागत मिलता है,
और सब अब्राहम से जुडे होने से।
अब्राहम के नाम पर,
"आइये मैं आपको कुछ खाने को देता हूँ।"
तो हमें ये पता लगा कि
अब्राहम महज एक किताबी किरदार नहीं है इन लोगों के लिये,
वो जीवित है, उनके बीच रोज़ाना।
और संक्षेप में कहूँ,
तो पिछले कुछ सालों में,
हज़ारों लोगों ने
अब्राहम-पथ के कुछ भागों पर
मध्य-पूर्व में चलना शुरु कर दिया है,
वहाँ के लोगों का स्वागत-सत्कार स्वीकार करते हुए।
उन्होने चलना शुरु किया है
इज़रायल और फ़िलिस्तीन में,
जोर्डन में, तुर्की में, सीरिया में।
ये बेहद अलग अनुभव है।
आदमी, औरत, युवा, वृद्ध --
आदमियों से ज्यादा औरतें, सच में।
और जो चल नहीं सकते,
जो वहाँ अभी तक नहीं जा सकते,
उन लोगों ने पद-यात्राएँ आयोजित करना शुरु कर दिया है
अपने शहरों, और अपने ही देशों मे।
सिनसिनाती में, उदाहरण के लिये, एक पद-यात्रा आयोजित होती है
एक चर्च से एक मस्जिद से होते हुए, एक यहूदी मंदिर तक
और फ़िर सब साथ में अब्राहम-भोज करते है।
उसे अब्राहम पथ दिवस कहा जाता है।
साओ पालो, ब्राज़ील में तो ये वार्षिक उत्सव बन चुका है,
हज़ारों लोगों के दौडने के लिये,
एक कल्पित अब्राहम पथ पर,
अलग अलग समुदायों को जोडने के लिये।
मीडिया भी इस पर खूब लिखती है, उन्हें ये बेहद पसंद है।
वो अपना ध्यान इस पर लुटाते है
क्योंकि ये देखने में बेहतरीन है,
और इस विचार को आगे बढाता है,
कि अब्राहम की तरह ही स्वागत
और दया की भावना अजनबियों के प्रति रखी जाये।
और अभी कुछ हफ़्ते पहले ही,
एन.पी.आर ने इस पर कहानी लिखी थी।
पिछले महीने,
इस पर गार्डियन अखबार ने लिखा था,
मैनचेस्टर से निकलने वाले गार्डियन ने --
पूरे दो पन्नों की रपट।
और उन्होंने एक ग्रामीण का संदेश भी शामिल किया था
जिसने कहा, "ये पद-यात्रा हमें दुनिया से जोडती है।"
उसने कहा कि ये एक रोशनी की तरह है जो हमारे जीवन में उजाला करती है
हमें आशा दे कर।
और देखिये इसी सब पर ये आधारित है।
मगर ये सिर्फ़ मनोवैज्ञानिक नहीं है,
ये आर्थिक भी है,
क्योंकि जब लोग चलते है, तो वो पैसे भी खर्च करते हैं।
और उम अहमद नाम की इस महिला,
जो कि उत्तरी जोर्डन में इस रास्ते पर ही रहती है।
ये बेहद गरीब है।
काफ़ी हद तक दृष्टि-विहीन है, उसका पति काम नहीं कर सकता है,
और उस के सात बच्चे हैं।
मगर वो एक काम कर सकती है - खाना पकाना।
तो उसने पद-यात्रियों के दलों के लिये खाना पकाना शुरु कर दिया है,
जो उसके गाँव से निकलते है, और उसके घर में खाना खाते हैं।
वो ज़मीन पर बैठते है।
उस के पास मेज़ ढकने का कपडा तक नहीं है।
और वो बहुत ही स्वादिष्ट खाना पकाती है
जो कि आसपास के खेतों में उगने वाले मसालों से बना होता है।
और इस वजह से और भी पद-यात्री वहाँ आते हैं।
और अब तो उसने पैसे कमाने भी शुरु कर दिये है,
अपने परिवार के सहारे के लिये।
और उसने वहाँ हमारी टीम को बताया,
"आपने मुझे उस गाँव में इज़्ज़्त दिलायी है
जहाँ एक समय पर लोग
मेरी तरफ़ देखने में भी झिझकते थे।"
ये है अब्राहम-पथ की शक्ति।
और ऐसे कई सौ समुदाय है
पूरे मध्य-पूर्व में , इस रास्ते के आसपास।
देखिये इसमें संभावना है पूरा मुद्दा बदल देने की
और मुद्दा बदलने के लिये आपको माहौल बदलना होगा,
जिस तरह हम देखते हैं--
माहौल बदलना होगा
दुश्मनी से दोस्ती में
आतंकवाद से पर्यटन में।
और उस हिसाब से, अब्राहम पथ
मुद्दा बदलने की संभावना से ओत-प्रोत है।
चलिये मैं आपको कुछ दिखाता हूँ।
मेरे पास एक छोटा सा बाँजफ़ल है
जो मैनें ऐसे ही रास्ते पर चलते हुए उठा लिया था
इस साल की शुरुवात में।
अब ये फ़ल बलूत के पेड से जुडा है, बिलकुल --
क्योंके ये उस पर उगता है,
जो कि अब्राहम से जुडा है।
ये पथ आज इस फ़ल की तरह है;
अपने शुरुवाती दौर में।
और बलूत का पूरा पेड कैसा दिखेगा?
जब मैं अपने बचपन के बारे में सोचता हूँ,
जिसका काफ़ी बडा हिस्सा मैने, शिकागो में पैदा होने के बावजूद,
यूरोप में गुज़ारा।
अगर आप
मान लीजिये, कि लंदन के खंडहरों
में १९४५ मे, या फ़िर बर्लिन मे, गये होते,
तो आपने कहा होता,
आज से साठ साल बाद,
ये धरती का सबसे शांत, सबसे धनी इलाका होगा,"
तो लोग सोचते कि
आप निश्चय ही पागल हैं।
मगर ऐसा हुआ - यूरोप की एक साझी पहचान के चलते,
और एक साझी अर्थव्यवस्था के चलते।
तो मेरा प्रश्न है, कि यदि ये यूरोप में किया जा सकता है,
तो मध्य-पूर्व में क्यों नहीं?
क्यों नहीं, जबकि वहाँ भी एक साझी पहचान है --
जो कि अब्राहम की कहानी से आती है --
और ऐसी साझी अर्थव्यवस्था से
जो कि पर्यटन पर टिकी हो?
मैं अंत में यही कहूँगा कि
पिछले ३५ सालों में,
मैने काम किया है
कुछ बहुत ही खतरनाक, कठिन और उलझे हुए विवादों
- पूरे विश्व में,
और आज तक मैं ऐसे विवाद को नहीं देख सका
जिसे देख कर मुझे लगा हो कि ये हल नहीं हो पायेगा।
बिलकुल, ये आसान नहीं है,
लेकिन ये संभव है।
ऐसा दक्षिणी अफ़्रीका में किया गया है।
उत्तरी आयरलैण्ड में भी किया गया है।
और ऐसा कहीं भी किया जा सकता है।
सब कुछ हम पर ही निर्भर करता है।
हमारा ही कर्तव्य है कि हम तीसरा पक्ष बनें।
तो मैं आप को आमंत्रित करता हूँ कि
तीसरे पक्ष की भूमिका निभाने को
एक छोटी शुरुवात के रूप में देखें।
थोडी ही देर में हम एक छोटा सा मध्यांतर लेंगे।
उस में किसी ऐसे से मिलिये
जो दूसरी संस्कृति, दूसरे देश से हो,
अलग जाति से हो, कुछ अलग हो,
और उनके साथ बातचीत कीजिये; उन्हें ध्यान से सुनिये।
यही तीसरे पक्ष का कार्य है।
यही अब्राहम के नक्श-ए-कदम पर चलना है।
टेडवार्ता की बाद,
क्यों न एक टेडयात्रा भी करें?
जाते जाते मैं आपको
तीन संदेश दे कर जाऊँगा।
एक, ये कि शांति का राज़ है
तीसरा पक्ष।
और तीसरा पक्ष मै आप,
हम में हर एक है,
और एक छोटे से कदम से ही,
हम दुनिया को बदल सकते है, उसे
शांति के और करीब ला सकते हैं।
एक पुरानी अफ़्रीकन कहावत है:
"अगर मकडियों के जाले एकजुट हो जायें,
तो वो शेर को भी रोक सकते हैं।"
अगर हम सब एकत्र कर सकें,
अपने तीसरे पक्ष के जाले,
तो हम युद्ध के शेर को भी रोक सकते हैं।
बहुत बहुत धन्यवाद।
(तालियाँ अभिवादन)