अगर मैं आपसे वायु के बारे में
सोचने को कहूँ,
तो आप किसकी कल्पना करेंगे?
ज़्यादातर लोग या तो खाली जगह के
बारे में सोचते हैं,
या साफ़ नीले आसमान के बारे में,
या कभी कभी तेज़ हवा में झूमते पेड़।
और फिर मुझे ब्लैक बोर्ड पर मेरी हाई स्कूल
की केमिस्ट्री(रासायनिक विज्ञान) की
अध्यापिका याद आतीं हैं,
बुलबुले बनाती हुई,
उन्हें एक दूसरे से जुड़ा हुआ बनाकर,
ये दर्शाते हुए की वे किस तरह आपस में
कांपते हुए, टकराते रहतें हैं
पर वास्तव में हम वायु के विषय में
कभी इतनी गहराई से नहीं सोचते।
हम अक्सर उस पर तब ध्यान देतें हैं
जब उसकी दशा में कुछ हलचल हो,
जैसे एक दुर्गन्ध,
या कुछ प्रत्यक्ष जैसे धुआँ या धुंद।
लेकिन वायु हमेशा हमारे आस पास होती है।
इस वक़्त भी हम सब उसके स्पर्श में हैं।
वो हमारे भीतर भी है।
हमारी वायु हमारे करीब है,
और हमारे लिए आवश्यक है।
इसके बावजूद, हम उसे इतनी आसानी
से नज़रंदाज़ कर देतें हैं।
तो आखिर वायु है क्या?
वह पृथ्वी पर मौजूद
सभी अदृश्य गैसों का एक मेल है,
जो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल से
पृथ्वी के समीप है।
और हालाँकि मैं दृश्यात्मक कलाकार हूँ,
वायु का अदृश्य होना मुझे रोचक लगता है।
मुझे दिलचस्पी है की हम कैसे
वायु की कल्पना करतें हैं,
किस तरह उसे अनुभव करतें हैं
और कैसे हम सब उसके होने की
एक सहज समझ रखतें हैं,
श्वास के द्वारा।
पृथ्वी पर मौजूद सभी जीव वायु में
बदलाव लातें हैं,
और इस पल भी हम ऐसा कर रहें हैं।
क्यों न हम सब अभी ही एक साथ
एक गहरी लंबी साँस लें ।
क्या आप तैयार हैं? श्वास अंदर।
और श्वास बाहर।
जो श्वास अभी ही आप सबने छोड़ी है,
उससे यहाँ की वायु में सौ गुणा
कार्बन डाइआक्साइड बढ़ गयी।
अतः लगभग पाँच लीटर वायु ,
प्रति श्वास, 17 श्वास प्रति मिनट
जहाँ एक वर्ष में 525,600 मिनट होतें हैं।
इससे हमें मिलती है 450 लाख लीटर वायु,
जिसमें कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा
100 गुणा बढ़ चुकी है ,
वह भी सिर्फ आप के लिए।
यह आकलन ओलंपिक खेलों में प्रयोग किये
जाने वाले 18 तरण तालों के बराबर है।
मेरे लिए वायु बहुवचन है।
वह एक ही साथ
हमारी श्वास जितनी लघु
और हमारी पृथ्वी जितनी विशाल भी है।
हाँ , इसकी कल्पना करना थोड़ा मुश्किल है।
शायद यह नामुमकिन हो , और शायद
इस बात से कोई फ़र्क भी न पड़े।
अपनी दृश्यात्मक कला की तकनीकों से,
मैं वायु को बनाने की कोशिश करती हूँ ,
न कि उसे चित्रित करने के,
पर उसे स्पर्शनीय बनाने की।
मैं कोशिश करती हूँ की हमारी सौन्दर्यात्मक
समझ को बढ़ाया जाए कि चीज़ें कैसी दिखती हैं
ताकि हम यह समझ सकें की
वायु हमारी त्वचा पर और हमारे फेफड़ों में
कैसी महसूस होती है
और उसका हमारी आवाज़ पर क्या असर पड़ता है ।
मैं वायु के वज़न, उसके गाढ़ेपन और गंध को
समझने की कोशिश करती हूँ, पर अधिकतर
मैं वायु से जुडी हम सब की कहानियों के
बारे में कईं बार सोचती हूँ।
यह मेरी एक रचना है, जो मैंने 2014
में बनाई थी।
इसे "विभिन्न तरह की वायु:
एक पौधे की डायरी" कहा जाता है,
जहाँ मैं पृथ्वी के विकास के अलग
अलग युगों की वायु को तर वा ताजा करती हूँ
और दर्शकों को उसका अनुभव लेने
का मौका देती हूँ।
यह बहुत ही आश्चर्यजनक था,
और साथ ही काफ़ी अलग।
मैं एक वैज्ञानकि नहीं हूँ,
पर वातावरण को समझने वाले
वैज्ञानिक वायु से जुड़े निशानों को
भूविज्ञान के नज़रिये से देखतें हैं,
कुछ वैसे ही जैसे चट्टानों
का ऑक्सीकरण होता है
और फिर उस जानकारी से वे,
कुछ मायनों में, अलग अलग समय पर
वायु की बनावट को लेकर
एक विधि बना लेतें हैं।
फिर मैं, एक कलाकार,
उसी विधि को लेकर
उसकी संघटक गैसों को लेकर उसे
पुनः बनाती हूँ।
मुझे समय के उन पलों में
विशेष दिलचस्पी रही है
जो जीवों के वायु पर प्रभाव का उदहारण हो,
और वे भी जिनमें वायु के कारण जीव
के विकास की दिशा निर्धारित हुई,
जैसे कार्बोनिफेरस हवा।
यह 30 से 35 करोड़ साल पहले से
पृथ्वी पर मौजूद है।
वह एक ऐसा युग था जिसे विशालकाय जीवों
का युग माना गया है।
तो जीवन के इतिहास में पहली बार,
लिग्निन पदार्थ विक्सित हुआ।
ये वो ठोस परत है जिससे पेड़ बनतें हैं।
अतः इस समय तक पेड़ अपने तने का
निर्माण खुद ही कर रहें हैं,
और फिर वे बड़े, अत्यधिक बड़े होकर,
पृथ्वी पर फैल जाते हैं,
प्राण वायु का इतना उत्पादन करते हुए,
कि प्राण वायु का स्तर
आज के मुताबिक दुगुना है।
और यह स्वच्छ प्राण वायु तरह तरह
के कीड़ों का सहारा देती है --
विशाल मकड़ियाँ , ड्रैगन-फलाय, जिनके पंखों
का विस्तार लगभग 65 सेंटीमीटर का है।
श्वास के लिए , ये हवा बेहद साफ़
और ताज़ा है।
हालांकि इसमें कुछ स्वाद नहीं है,
पर ये आपके शरीर में बेहद
सूक्ष्म तरह से ऊर्जा बढ़ा देती है।
ये खुमारी दूर करने के लिए बेहतरीन है।
(हंसी )
और फिर है "एयर ऑफ़ द ग्रेट डायिंग"--
करीब 2525 लाख साल पहले की,
डायनासोर के विक्सित होने से ठीक पहले।
भूविज्ञान के नज़रिये से यह एक
बहुत ही छोटी समय सीमा है,
20 से 200, 000 साल तक।
बहुत जल्द।
यह पृथ्वी के इतिहास में विलुप्तता की
सबसे बड़ी घटना है,
डायनासोर के विलुप्त होने से भी बड़ी।
85 -95 प्रतिशत जीव जंतु
इस घटना में विलुप्त हुए,
और इसी के साथ कार्बन डाइऑक्साइड के
स्तर में आकस्मिक बढ़ोतरी है,
जिसके लिए बहुत से वैज्ञानिक
साथ साथ फट रहे ज्वालामुखियों
और ग्रीनहाउस प्रभाव
को ज़िम्मेदार मानते हैं।
इस समय काल में ऑक्सीजन का स्तर आज
की तुलना में आधे से काम तक गिर जाता है,
तो लगभग 10 प्रतिशत।
अतः ये हवा कदापि मनुष्य जीवन
के लिए नहीं थी,
पर एक सांस ले लेना ठीक रहेगा।
और असल में सांस लेते हुए, ये
विचित्र रूप से आरामदायक है।
ये काफी शांतिदायक और गर्म है
और इसका स्वाद सोडे जैसा है।
इसमें भी उसी तरह की झुनझुनाहट है,
कुछ सुहानी सी।
अब इस भूतकाल की हवा के इतने मंथन के बाद,
स्वभाविक है कि हम भविष्य की हवा
के बारे में सोचने लगे।
बजाय हवा को लेकर काल्पनिक होने के
और मेरे मनगढंत रूप से हवा को दर्शाने के,
मैंने ये मनुष्य-रचित हवा की खोज की।
इसका मतलब है की यह
प्रकृति में कहीं भी नहीं पायी जाती,
पर इसका उत्पादन मनुष्यों
द्वारा प्रयोगशाला में ही,
अलग अलग औद्योगिक ज़रूरतों के लिए होता है।
तो ये भविष्य की हवा क्यों है?
खैर, इस हवा का अणु इतना स्थिर है,
कि टूटे जाने तक, उत्पन्न होने के
300-400 साल बाद भी,
यह वायु का हिस्सा बना रहता है।
अतः कुछ 12 से 16 पीढ़ियों तक।
साथ ही इस भविष्य की हवा में कुछ बेहद
ग्रहणशील गुण है।
ये अत्यधिक भारी है।
जिस वायु कि हमें श्वास के लिए आदत है,
ये उससे 8 गुना अधिक भारी है।
दरअसल यह इतनी भारयुक्त है,
कि इसका श्वास भर लेने के बाद
जो शब्द कहे गए हो
वे भी कुछ उसी तरह से भारी होते हैं,
जिस कारण वे ठुड्डी से सरक कर
ज़मीन पर गिर कर ,
दरारों में धंस जातें हैं।
यह एक ऐसी हवा है जो कई मायनों
में तरल पदार्थ की तरह है।
इस हवा का एक नैतिक पहलु भी है,
मनुष्य ने इस हवा का निर्माण किया।
पर यह आज तक की परखी गैसों में से,
सबसे प्रबल ग्रीनहाउस गैस भी है।
इसकी गर्माने की क्षमता कार्बन डाइऑक्साइड
से 24,000 गुणा अधिक है ,
और इसकी उम्र लगभग
12 से 16 पीढ़ियों तक की है।
यही नैतिक द्वन्द्व
मेरे काम का केंद्र है।
(धीमे स्वर में) इसमें एक और
आश्चर्यचकित करने वाला गन है।
यह आपकी आवाज़ की ध्वनि बदल देती है।
(हंसी)
तो जब हम सोचने लगे -- ओह !
अभी भी कुछ बाकि है।
(हंसी )
जब हम जलवायु परिवर्तन
के बारे में सोचते हैं,
हम संभवतः विशाल कीड़ों और
फटते ज्वालमुखियों या हास्यजनक आवाज़ों
के बारे में नहीं सोचते।
जो चित्र विशेष रूप से ध्यान में आतें हैं,
वे पिघलते हिमनदों और हिम-शिलाओं पर
तैरते ध्रुवीय भालुओं के होतें हैं।
हम पाई चार्टों और
स्तंभ ग्राफों के बारें में,
और असंख्य नेताओं को वैज्ञानिकों से
बातचीत करते हुए, सोचतें हैं।
लेकिन शायद अब वक़्त आ चूका है कि
हम जलवायु परिवर्तन के बारे में
उसी गहरायी से विचार करना शुरू कर दें,
जिस गहरायी से हम वायु का अनुभव करतें हैं।
हवा की भाँती, जलवायु परिवर्तन
एक साथ अणु के स्तर पर भी है,
श्वास के भी, और इस गृह के भी।
यह हमारे करीब है,
और हमारे लिए आवश्यक है,
साथ ही आकारहीन और दुष्कर भी।
और फिर भी, वह आसानी से भुला दी जाती है।
जलवायु-परिवर्तन मानवता का
सामूहिक आत्म-चित्रण है।
यह हमारे निर्णयों को, व्यक्तिगत,
सरकारी और औद्योगिक स्तरों पर दर्शाता है।
और अगर कुछ है जो मैंने वायु को
देखते हुए सीखा है, तो वह यह है कि
भले ही वह बदलती रहती है, वह कायम रहती है।
शायद ये उस ज़िन्दगी को समर्थन न दे,
जिसे हम समझते हैं
पर किसी तरह की ज़िन्दगी
को सहारा देती ही है।
और हम मनुष्य अगर उस बदलाव
का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा हैं,
तो मुझे लगता है, ये ज़रूरी है कि
हम उस विचार-विमर्श को महसूस करें।
हालाँकि ये अदृश्य है,
पर मनुष्य हवा पर एक बेहद
जीवंत छाप छोड़ रहें हैं।
शुक्रिया।
(तालियाँ )