सात साल पहले की बात है,
मैं बर्कले से स्नातक होकर निकली थी,
कोषिका जीवविज्ञान एवम् भाषा विज्ञान
की दोहरी डिग्री लेकर,
और मैं विश्वविद्यालय परिसर में हो रहे
एक सम्मेलन में पहुंची,
जहां से मुझे एक नई कंपनी - थेरानॉस
में साक्षात्कार के लिए बुलाया गया.
और उस समय,
इस कंपनी के बारे में ज़्यादा जानकारी
उपलब्ध नहीं थी,
पर जितनी भी थी, प्रभावशाली थी.
यह कम्पनी एक ऐसा चिकित्सा उपकरण बना रही थी
जिससे आप रक्त की सभी जांचें
मात्र कुछ बूंदें निकाल के कर सकते थे.
यानी रक्त की जांच के लिऐ आपको
अपने हाथ में लंबी सुई नहीं डालनी पड़ती.
यह काफ़ी रोचक था, सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि
इस प्रक्रिया में दर्द कम होता,
पर इसलिए भी क्योंकि इससे कई बीमारियों को
शुरू में ही आसानी से पकड़ा जा सकता था.
यदि आपके पास ऐसा उपकरण हो
जिसके प्रयोग में सहजता और सहूलियत हो,
और जो बीमारियों का पता लगा सके,
तो शायद आप बीमारी के गंभीर होने से पहले ही
उसका पता लगा सकते हैं.
ऐसा ही कम्पनी की संस्थापक, एलिजाबेथ होम्स
ने वॉल स्ट्रीट जर्नल को दिए
एक साक्षात्कार में कहा था.
"हमारी स्वास्थ्य प्रणाली की
वास्तविकता यह है
कि जब हमारा कोई अपना बहुत बीमार हो जाता है
तो उसकी गंभीरता का पता लगते
(अक्सर) बहुत देर हो चुकी होती है, और फ़िर
हम कुछ नहीं कर पाते.
यह दुखद है."
यह चांद पर जाने जैसा था
और मैं इसका हिस्सा बनना चाहती थी,
इसे साकार करने में योगदान देना चाहती थी.
एक और भी कारण था जो
एलिज़ाबेथ की कहानी
मुझे इतनी प्रभावशाली लगी.
एक समय था जब किसी ने मुझे कहा था,
"एरिका, लोग दो तरह के होते हैं.
एक वो जो सिर्फ गुज़ारा करते हैं, और एक वो
जो दुनिया बदलते हैं.
और तुम, गुज़ारा करने वालों में से हो."
विश्वविद्यालय जाने से पहले,
मैं एक चलित कमरे में, 5 पारिवारिक सदस्यों
केे साथ रही और पली बढ़ी,
और जब मैं कहती थी कि मैं
बर्कले जाना चाहती हूं,
तो लोग कहते थे, "ऐसे तो मैं अंतरिक्ष में
जाना चाहता हूं!"
मैं दृढ़ रही, मेहनत करती रही, और मुझे
प्रवेश आखिर मिल ही गया.
पर सच बोलूं तो वहां मेरा पहला वर्ष
बहुत कठिन रहा.
मेरे साथ कई अपराध हुए.
मुझे बन्दूक की नोंक पर लूटा गाया,
मेरा यौन शोषण हुआ,
वह भी तीन बार,
जिससे मूझे गंभीर तनाव रहने लगा.
मैं कक्षा में फेल होने लगी,
और मुझे पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ी.
तब तक मुझे लोग कहने लगे थे,
"एरिका, शायद विज्ञान तुम्हारे लिए नहीं है.
शायद तुम्हें कुछ और पढ़ना चाहिए."
और तब मैंने ख़ुद से कहा,
"अगर ना हो तो ना हो,
पर मैं हार नहीं मान सकती,
और मैं यह करके रहूंगी,
और चाहे मैं काबिल हूं या ना हूं,
मैं प्रयास करुंगी और करके दिखाऊंगी."
किस्मत से, मैं अड़ी रही, और डिग्री लेकर,
स्नातक होकर निकली.
(दर्शकों में तालियां)
धन्यवाद.
(दर्शकों में तालियां)
तो जब मैंने सुना कि एलिज़ाबेथ ने
स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय को
19 वर्ष की आयु में छोड़ दिया था
यह कम्पनी स्थापित करने, और वे सफ़ल भी रहीं
तो मेरे लिए यह एक इशारा था.
कि आप किस वर्ग अथवा परिस्थिति से हो,
यह मायने नहीं रखता.
यदि आप समर्पित रहोगे
और अपने विवेक से काम लोगे,
तो आप दुनिया में अपनी पहचान छोड़ सकोगे.
और मेरे लिए यह सूत्र, व्यक्तिगत स्तर पर
आत्मसात करना जरूरी था
क्योंकि जीवन की तेज़ मझधार में
यही मुझे हौसला देता था.
तो अब आप कल्पना कर सकते हैं,
कि जब मुझे कम्पनी की ओर से आमंत्रण आया,
तो मैं कितनी उत्साहित हो गई थी.
ऐसा लगा मैं तो चांद पर पहुंच गई थी.
यही अवसर था मेरे लिए,
समाज में अपना योगदान देने का.
जो समस्याएं मैंने देखी थीं,
उनका हल निकालने का.
और वास्तव में, जब मैंने थेरानॉस
के बारे में सोचा,
तो लगा कि यह पहली और आखिरी कंपनी होगी
जहां मैं काम करूंगी.
पर मुझे कुछ समस्याएं नज़र आने लगीं.
मैंने वहां की प्रयोगशाला में
प्रारम्भिक स्तर पर काम शुरू किया.
हम वहां मीटिंग में बैठे
आंकड़ों एवम् नतीजों को जांचते,
यह देखने कि तकनीक काम कर रही है या नहीं.
जब हमें नतीजों की फेहरिस्त मिलती,
तो मुझे कहा जाता,
"चलो, इस त्रुटिपूर्ण नतीजे को हटाते हैं
और फ़िर देखते हैं
कि नतीजे कितने प्रतिशत सटीक हैं."
तो, यहां त्रुटि की परिभाषा क्या है?
कौन सा नतीजा गलत है?
यह किसी को नहीं पता.
आप कैसे कह सकते हो कौन सा गलत है?
और इस तरह से नतीजों कोे हटाना
गलत है, यह वैज्ञानिक प्रक्रिया के
उन सिद्धांतों के खिलाफ़ है
जो संख्याओं और आंकड़ों के आधार पर
तथ्यों का सत्यापन करता है.
और भले ही ऐसा करना लुभावना लगे
कि आप अपने तथ्य को स्थापित करने के लिऐ
आंकड़ों से छेड़खानी करें,
परन्तु इसके गंभीर दुष्परिणाम होते हैं.
तो मेरे लिए यह खतरे का निशान था,
जिसने मेरे आगे के अनुभवों को प्रभावित किया
और आगे भी बहुत कुछ दिखाया.
यह बात है क्लीनिक प्रयोगशाला की.
क्लीनिक प्रयोगशाला,
जहां मरीज़ों के खून के नमूने
जांचे जाते हैं.
किसी भी नमूने की जांच से पहले, मेरे पास
एक खास नमूना होता था, जिसके अवयव
और उनकी मात्रा पहले से पता होते थे.
जैसे, tPSA की मात्रा 0.2.
tPSA, जो यह बताता है कि व्यक्ति को
प्रोस्ट्रेट कैंसर है या नहीं,
या फ़िर उसे इसका खतरा है या नहीं.
पर जब मैं उस ख़ास नमूने को
थेरानॉस के उपकरण से जांचती थी,
तो कभी tPSA की मात्रा 8.9 आती थी,
कभी 5.1,
और कभी 0.5,
जो कि वास्तविक मात्रा के आसपास ही है,
लेकिन आप ऐेसे में क्या करेंगे?
सटीक, भरोसेमंद माप कौन सा है?
और ऐसा सिर्फ एक बार नहीं हुआ.
यह लगभग रोज़ाना हाे रहा था,
बहुत सारी जांचों में.
और शुक्र है इस ख़ास नमूने मेें मुझे
मात्राएं पहले से पाता थीं.
यदि ना पता हों, तो क्या हो?
मान लीजिए आपको एक मरीज़ की जांच करनी है
आप कैसे भरोसा कर सकेंगे ऐसे नतीजों पर?
तो मेरे लिए यह आखिरी चेतावनी थी,
वह भी उस पड़ाव पर जब हम
उपकरण की जांच कर रहे थे,
ताकि हम प्रमाणित कर सकें
कि हमें और मरीजों के नमूने चाहिए या नहीं.
नियामक संस्थाएं आपको एक नमूना देती हैं,
और कहती हैं, "इसकी जांच करो,
सामान्य तरीके से
जैसे मरीजों के साथ किया जाता है,
और हमें नतीजे बताओ,
फ़िर हम बताएंगे आप पास हैं या फेल."
अब क्योंकि हमें अपने उपकरण में
इतनी खामियां दिख रही थीं,
वह भी वास्तविक मरीजों के नमूनों के साथ,
तो हमने नियामकों से नमूना लिया
और उसे FDA द्वारा प्रमाणित मशीन से जांचा,
फ़िर उसे अपने उपकरण से जांचा.
अंदाज़ा लगाइए क्या हुआ होगा?
हमें दो बहुत ही अलग नतीजे मिले.
आपको क्या लगता है,
ऐसे में हमने क्या किया होगा?
आप सोचेंगे कि हमने नियामकों से कहा होगा,
"इस तकनीक में हमें कुछ
अनियमितता दिख रही है."
पर नहीं, थेरानॉस ने नियामकों को वही नतीजे
भेज दिए जो FDA प्रमाणित मशीन से मिले थे.
यह क्या दर्शाता है?
यह दर्शाता है कि आपको अपनी संस्था द्वारा,
अपने उपकरण द्वारा दिए गए नतीजों पर ही
भरोसा नहीं है.
ऐसे में आप कैसे किसी को कहेंगे कि
इस उपकरण से मरीजों की जांच करें?
क्योंकि मैं नयी थी,
मैंने कई नमूनों पर प्रयोग किए,
सारे आंकड़े इकठ्ठा कर,
मैं मुख्य संचालन अधिकारी के पास गई
ताकि उनके सामने अपनी चिंता ज़ाहिर कर सकूं.
"उपकरण की जांच में बहुत
असंगत नतीजे आ रहे हैं.
सटीक नतीजों का प्रतिशत ठीक नहीं लग रहा.
शायद हमें वास्तविक मरीजों पर
जांच नहीं करनी चाहिए.
ये सब बातें मुझे सही नहीं लग रही हैं."
और मुझेे जवाब मिला,
"तुम नहीं जानती तुम क्या कह रही हो.
तुम्हें जिस काम के लिए तनख्वाह
दी जाती है वो करो,
जाके मरीजों के नमूने जांचों."
उस रात, मैंने अपने एक सहकर्मी से बात की.
टायलर शुल्ट्ज, जो मेरा मित्र बन गया था,
और जिसके दादाजी
कम्पनी के निदेशकों में से थे.
हमने उनके घर जाना तय किया,
और रात्रिभोज के समय उन्हें बताने का सोचा
कि कम्पनी में क्या चल रहा था,
बंद दरवाजों के पीछे.
मज़े की बात यह,
कि टायलर के दादाजी जॉर्ज शुल्ट्ज थे,
अमरीका के पूर्व सचिव.
तो अब आप सोच सकते हैं
मेरी मनोदशा क्या रही होगी.
मैं सोच रही थी, "यह मैं कहां फंस रही हूं?"
पर हम खाना खाने बैठे, और कहा,
"लोगों को लगता है कि
ये खून का नमूना लेते हैं,
उसे अपने उपकरण में डालते हैं,
और उससे कुछ नतीजा बाहर निकलता है.
पर असल में होता ये है कि
जैसे ही आप कमरे के बाहर जाते हैं,
वे आपके खून का नमूना
पांच अन्य लोगों को पकड़ा देते हैं
जो तैयार बैठे रहते हैं,
उसे पांच भागों में बांटकर
पांच अलग अलग मशीनों में जांचने के लिए."
जॉर्ज ने कहा, "मैं जानता हूं
टायलर काफ़ी होशियार है,
तुम भी काफ़ी होशियार लगती हो,
पर बात ये है कि मैंने कम्पनी में
और भी होशियार लोगों को रखा है,
और उन्होंने मुझे बताया है कि यह उपकरण
चिकित्सा क्षेत्र में क्रांति ले आयेगा.
तो शायद तुम्हें कहीं और
ध्यान लगाना चाहिए."
यह सिलसिला सात महीने से चल रहा था,
इसलिए मैंने अगले ही दिन इस्तीफ़ा दे दिया.
और ये --
(दर्शकों में तालियां)
ये वो समय था जब मुझे ख़ुद को समय देकर
अपना मानसिक संतुलन ठीक करना था.
मैंने प्रयोगशाला में आवाज़ उठाई,
मुख्य अधिकारी के सामने आवाज़ उठाई,
निदेशक के सामने भी आवाज़ उठाई.
इसी बीच,
एलिज़ाबेथ अमरीका की हर पत्रिका के
मुखपृष्ठ पर छाई हुई थी.
यह सब देखकर
मुझे लगने लगा,
क्या मैं ही गलत हूं?
क्या शायद ऐसा कुछ है जो मुझे नहीं दिख रहा?
क्या मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है?
कहानी के इस मोड़ पर
किस्मत ने मेरा साथ दिया.
मुझसे संपर्क किया
एक बहुत ही प्रतिभाशाली पत्रकार,
जॉन कैरीरू ने
जो कि वॉल स्ट्रीट जर्नल से थे,
और उन्होंने कम्पनी के बारे में
कई अन्य लोगों से भी शिकायतें सुनी थीं,
कम्पनी के कर्मचारियों से भी.
तब मुझे आभास हुआ,
"एरिका, तुम गलत नहीं हो.
तुम सही हो.
यहां तक कि तुम जैसे कई और लोग हैं,
जो सच बताने से डर रहे हैं,
और उन्हें भी वही सब दिख रहा है
जो तुम्हें दिख रहा है."
जॉन की जांच-पड़ताल प्रकाशित होने से पहले,
कम्पनी का सच सामने आने से पहले,
कम्पनी ने सभी पूर्व कर्मचारियों का
पता लगाया,
मुझ तक भी पहुंचे,
और हमें धमकाया कि कोई सामने ना आए,
ना कोई एक दूसरे से बात करे.
मुझ जैसे व्यक्ति के लिए यह डरावना था,
और मुझे उनका पत्र मिलने पर और डर लगा
जब मुझे एहसास हुआ कि
वे मेरा पीछा करते रहेंगे.
पर यूं कहें ये अच्छा ही हुआ,
क्योंकि तब मैंने एक वकील से संपर्क किया.
वह एक मुफ़्त में काम करने वाला वकील था,
और उसने सुझाया,
"आप किसी नियामक संस्था को
क्यों नहीं बतातीं ये सब?"
यह तो मेरे दिमाग में ही नहीं आया था,
क्योंकि मुझे ज़रा भी अनुभव नहीं था,
तो मैंने वही किया.
मैंने तय किया कि एक पत्र लिखूंगी,
जो भी मैंने प्रयोगशाला में देखा है,
वह सब बताते हुए.
भले ही मेरे पिता कहते हों कि उस समय मैं
राक्षसों का संहार करने वाली
देवी लग रही थी,
जहां मैंने एक बड़ी कम्पनी के खिलाफ़
आवाज़ उठाई
और उससे सिलसिला बनता गया,
मैं आपको बता देती हूं,
कि मुझमें बिलकुल भी साहस नहीं आ रहा था.
मैं डरी हुई थी,
घबराई हुई थी,
थोड़ी लज्जित भी,
कि मुझे यह पत्र लिखने मेेंं
एक महीना लग गया.
थोड़ी आशा इस बात की थी
कि शायद किसी को पता ही नहीं चलेगा
कि वह पत्र मैंने लिखा था.
इन सब भावनाओं के बीच
मैंने लिख ही डाला,
और किस्मत से, उससे जांच पड़ताल शुरू हो गई
जिसमें पाया गाया
कि प्रयोगशाला में बहुत अनियमितताएं थीं,
और थेरानॉस को मरीजों के नमूने
जांचने से रोक दिया गया.
(दर्शकों में तालियां)
अब आप सोच रहे होंगे,
कि इस सब से गुजरने के बाद,
यह सब झेलने के बाद,
मैं उपसंहार में कुछ सीखें, कुछ सार बताऊंगी
या ये बताऊंगी की आपको
ऐसी परिस्थिति में क्या करना चाहिए.
पर असल में, ऐसी परिस्थिति में,
सिर्फ़ प्रसिद्ध मुक्केबाज
माईक टायसन का कथन सही बैठता है -
"सब जानते हैं क्या करना है,
जब तक मुंह में मुक्का नहीं पड़ जाता."
(दर्शकों में हंसी)
बिलकुल ऐसा ही होता है.
पर आज,
हम साथ आए हैं उन अति महत्त्वाकांक्षी
सपनों की बात करने,
ये वो सपने/परियोजनाएं होती हैं
जो बड़े वादे करती हैं,
जिनपर सब विश्वास करना चाहते हैं.
लेकिन क्या होता है जब
आपके सपने इतने बड़े हों,
और उनमें विश्वास इतना दृढ़,
कि आप वास्तविकता को नज़रंदाज़ करने लगें?
ख़ासकर तब जब ऐसी परियोजनाएं
समाज को हानि पहुंचाने लगें,
तब आप क्या कदम उठा सकते हैं
जिससे इनसे होने वाली क्षति को
रोका जा सकता है?
मेेरे अनुसार, इसका सबसे आसान तरीका है
लोगों को प्रोत्साहित करना,
जिससे वे खुलकर सामने आ सकें.
साथ ही, ऐसे लोगों की आवाज़ को सुनना चाहिए.
अब बड़ा प्रश्न यह है,
कि खुलकर बोलने को अपवाद की बजाय
सामान्य कैसे बनाया जाए?
(दर्शकों में तालियां)
क़िस्मत से, मैंने अनुभव से ये समझा,
कि जब खुलकर सामने आने की बात आती है,
तो कई मामलों में ये सीधा सा काम लगता है.
पर कठिन यह है कि आप पहले तय कर लें,
आप बोलेंगे या नहीं.
तो हम आपने निर्णयों को किस तरह से आंकें
जिससे उन पर अमल करना आसान हो जाए
और हम नैतिक बने रहें?
कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी ने इसके लिए
एक बहुत बढ़िया वैचारिक रूपरेखा तैयार की है
जिसे "3C" कहा गया है.
Commitment (समर्पण), consciousness (सचेतन)
और competency (सामर्थ्य).
समर्पण- किसी भी कीमत पर
सही चीज़ करने का.
थेरानोस वाले मामले में
यदि मैं गलत होती,
तो मुझे उसकी कीमत चुकानी होती.
पर अगर मैं सही होती,
तो सब कुछ जानते हुए भी
कुछ ना कहना
मुझे कचोटता रहता.
चुप रहने की गूंज मेरे कानों में होती.
फ़िर आता है सचेतन,
दैनिक कार्यों में
नैतिकता रखना,
हमेशा.
तीसरा है सामर्थ्य.
जानकारी एकत्र करना, जांचना,
और भविष्य में होने वाले नुकसान का
आंकलन करना.
मुझे अपने सामर्थ्य पर भरोसा था
क्योंकि यह मैं दूसरों की भलाई के लिए
कर रही थी.
तो सबसे आसान तरीका यह होगा
कि आप कल्पना करें,
"यदि ऐसा मेरे बच्चों के साथ होता,
या मेरेे माता पिता के साथ,
मेरे जीवनसाथी के साथ,
मेरे पड़ोस में, मेरे समुदाय में,
और तब मैं ये कदम उठाता ....
तो लोग मुझे किस तरह से याद रखते?"
इसी के साथ
मैं आपसे विदा लेती हूं, और आशा करती हूं
कि हम सब वापस जाकर बडे़ बडे़ सपने देखेंगे,
और सिर्फ़ देखेंगे ही नहीं,
बल्कि उनको सच भी करेंगे
बिना किसी झूठ के, बिना किसी छलावे के.
धन्यवाद.
(दर्शकों में तालियां)